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इतिहास के पन्नों से

क्या है भारत में दास प्रथा का सत्य ?

भारत में दास का अर्थ स्पष्ट करने वाले कई प्राचीन तथा आधुनिक उदाहरण हैं। ऋग्वेद का एक मात्र उपलब्ध ब्राह्मण ऐतरेय है जिसका लेखक ऐतरेय महिदास है। यदि दास पशु की तरह खरीदे गुलाम होते तो वह न ब्राह्मण ग्रन्थ लिख पाता, न वह आज तक आदृत होता। काशी के राजा के रूप में दिवोदास का उल्लेख भी ऋग्वेद में दाशराज युद्ध के प्रसंग में है। ओड़िशा में एक मुलिया उपाधि के आधार पर राहुल सांकृत्यायन ने अपने उपन्यासों सिंह सेनापति, वोल्गा से गंगा में लिखा कि यहां खरीद कर दास लाये जाते थे। यहां चासी-मुलिया कृषक को कहते हैं। चासी अपनी जमीन पर खेती करता है, मुलिया मूल्य ले कर उस पर काम करता है। उसे दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी पर काम करने वाला कह सकते हैं। उसके अतिरिक्त भारत में दास उपाधि भी है। जो व्यक्ति सरकारी अधिकारी थे, उनकी उपाधि दास है। इनको सरकारी उपकरण होने के कारण ’करण’ कहते हैं। पैसे का हिसाब करने के लिए ये अलग अलग पंक्तियों में लेने-देन का हिसाब रखते थे, अतः पंक्ति विभाजन (column) को करणी कहते हैं। सरकारी अधिकारी या दूत के रूप में हनुमान् ने अपने को कहा है-दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य। तुर्की के विषय में एक अंग्रेजी उपन्यास में लिखा है कि वहां मन्त्री से ले कर चपरासी तक सभी अधिकारियों को सुलतान का गुलाम कहते थे। पर स्वयं इंगलैण्ड में उनको Government Servant कहते हैं, यह भूल गये। उनके अनुकरण पर भारत में २ शब्द प्रचलित हैं-Government Servant = सरकारी अधिकारी। ये दास के बदले स्वामी अधिक हैं। दूसरे Public Servant हैं। ये तो सरकारी अधिकारियों के भी मालिक हैं, समाज के सेवक रूप में शूद्र या दास नहीं। इसी अर्थ में भारत में सरकारी अधिकारियों तथा सन्तों को दास कहते थे। सन्त दास को तो सम्बोधन में स्वामीजी ही कहते हैं। न्यायाधीश, मन्त्री आदि को तो महामहिम आदि कहते हैं।
✍🏻अरुण उपाध्याय

भारत में दासप्रथा का सत्य

राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल धूर्तों के लिए देश एवं समाज में विद्वेष के बीज बोने का कृत्य कोई नया विषय नहीं है। शूद्रवर्ण को यह कहकर शेष जनों के प्रति घृणा से भरा जा रहा है कि उन्हें शास्त्र ने “दास” कहा है। दास प्रथा के समय उनके ऊपर अत्याचार होता था। वैसे ध्यान से देखें तो गत एक हज़ार वर्षों में, जहां देश के निवासियों का अधिकांश समय अपने धर्म, धन, सम्मान और प्राण की रक्षा के लिए युद्ध करते हुए बीता है, विधर्मियों के अत्याचारों का सामना सभी वर्ग के लोगों ने किया है। किन्तु रक्षकों को ही बड़ी धूर्तता से विधर्मियों ने इतिहास लेखन के नाम पर शोषक घोषित कर दिया, जिसका सीधा लाभ धर्मपरिवर्तन कराने वाली मिशनरियों को हुआ।

विदेशों में यहूदी, इस्लाम एवं ईसाईयत के मौलिक नियम और “कायदे”, एवं उससे भी पहले हेलेनिज़्म (यूनान), फेरॉन (मिस्र) और रोमन पैगन के समय भी गुलामी, स्लेवरी का बहुत प्रचलन था। कहीं किसी विशेष सामाजिक वर्ग, तो कहीं कहीं मात्र चमड़ी के रंग के आधार पर ही लोगों को गुलाम बना दिया जाता था, यह गुलामी कई पीढ़ियों तक चलती थी। जब धूर्तों ने भारत के इतिहास का लेखन या विकृतिकरण प्रारम्भ किया तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि भारत में ऐसा कोई प्रकरण क्यों नहीं मिलता ? क्यों यहां पर कोई वर्ग दूसरे के धन आदि का अपहरण नहीं करता ? जैसे विदेशों में सर्वोच्च स्तर पर बैठे लोग सदैव अपने को सुख से आवृत्त रखने का प्रयास करते हैं, यहां पर ब्राह्मण के लिए सबसे अधिक कठोर नियम, दण्ड विधान, त्याग और संतोष की बात क्यों है ? इसीलिए उन्होंने गुलामी एवं स्लेवरी का अनुवाद “दासप्रथा” के रूप में कर दिया। अब हमारे यहां हालांकि, शूद्रवर्ण का शास्त्रीय पदनाम “दास” ही है, किन्तु उसका सन्दर्भ “गुलाम” या “स्लेव” से कदापि नहीं है। हमारे यहां आधुनिक काल में सूरदास, तुलसीदास, रैदास, हरिदास, मतिदास, पुरंदरदास आदि अनेकों सर्वमान्य सन्त हुए हैं, जिनमें ब्राह्मण से शूद्र तक सभी सम्मिलित हैं। यहाँ तक कि श्रीराम जी के काल में भी आचार्य कृष्णदास, आचार्य रामदास आदि का वर्णन आता है।
भारत में दास प्रथा जैसी कोई चीज थी ही नहीं। यहां दास का अर्थ बस सेवक होता था, और सेवक का तात्पर्य वह नहीं है, जो गुलाम या स्लेव का होता है। शास्त्रों में दास, दासी आदि शब्द बहुतायत से आये हैं, किन्तु वहां जो तात्पर्य है, जो व्यवहार की नियमावली है, उसका उल्लेख में इस लेख में करूँगा। विदेशी मान्यता एवं पंथों में जो गुलामी या स्लेवरी की बात है, वह अत्यंत ही बीभत्स, क्रूर, अमानवीय एवं निन्दनीय है। उसे अधिक विस्तार से पढ़ने के लिए, समझने के लिए आपको विशेष शोध की आवश्यकता नहीँ पढ़ने वाली, क्योंकि आज तक इसका दंश देखने को मिलता है। हां, आप उसके भावनात्मक अनुभव को प्राप्त करने के लिए कुछ हॉलीवुड फिल्में, जैसे कि 12 Years a slave (2013), Django Unchained (2012), Glory (1989), और सबसे बढ़कर Slavery by another name (2012) आदि देख सकते हैं। रोमन, अरबी, यूनानी एवं मिस्री गुलामी के भयावह दृश्य आपको झलक Exodus: Gods and Kings (2014), Gladiator (2000) जैसी फिल्में दिखा देंगी।

विदेशों में जिस गुलामी और स्लेवरी की बात आती है, वहां अधिकांश मामलों में गुलामों को जंजीरों में बांधकर रखा जाता था। उनसे अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उनके आवास, भोजन आदि अत्यंत निम्नस्तरीय होते थे और वेतन की बात दूर, कई बार तो पर्याप्त वस्त्र एवं भोजन भी नहीं दिया जाता था। उनके पत्नी, बच्चे आदि के साथ क्रूर शोषण और बलात्कार होते थे एवं एक ही व्यक्ति और उसकी पत्नी एवं बच्चों को कई बार अलग अलग बेचा जाता था, जहां वे जीवन में फिर कभी नहीं मिल पाते थे। स्त्रियों को निर्वस्त्र करके उनकी नीलामी की जाती थी, और आज भी इसका व्यापक प्रयोग होता है। इस्लामी, ईसाई एवं यूनानी आक्रांताओं ने भारत को भी ऐसे अनगिनत घाव दिए हैं।
आज भी विदेशों में Freeman की उपाधि लगाकर लोग घूमते हैं, जो यह दिखाता है कि कैसे उनके पूर्वज गुलाम थे। उदाहरण के लिए मॉर्गन फ्रीमैन का ही नाम देख लें। कुछ लोग भारत में “न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति” के आधार पर कहते हैं कि स्त्रियों का जीवन गुलामी के लिए है, ऐसी बात है। यह भी एक वामपंथी भ्रम ही है। उन श्लोकों में पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने आदि की बात है। वहां स्त्री की रक्षा करने की बात है, और रक्षा का अर्थ जंजीरों में बांधकर कोड़े बरसाना नहीं होता। आईये, हम सनातन शास्त्रों में दास-दासियों के विषय में दिए गए निर्देशों में से कुछ उदाहरण देखते हैं।

दास शब्द का सामान्य अर्थ सेवक, परिचारक, किंकर और एकदम सरल शब्दों में नौकर आदि है, किन्तु इसका अर्थ बन्धक गुलाम नहीं होता है। आप नौकरी करते हैं न, चाहे सरकारी (राजकीय) या प्राइवेट (व्यक्तिगत), यही दास्यकर्म है। दास का अर्थ वही है, जो आपकी सरकारी या प्राइवेट नौकरी का है। लोग बड़े गर्व से कहते हैं आजकल कि मेरा बेटा नौकरीपेशा है, या मेरा दामाद सर्विस करता है, और यहां तक ठीक है, यदि हम कहें कि दास्यकर्म करता है, तो गलत ? क्यों ? क्योंकि अंग्रेजों ने दास शब्द को, दास प्रथा को अपने यहां की क्रूर गुलामी और स्लेवरी से जोड़ कर दिखा दिया। यूपीएससी को भी लोकसेवा आयोग कहते हैं। सेवक का अर्थ दास ही है। हनुमान जी भगवान् श्रीराम के दास हैं, गुलाम नहीं। कामशास्त्र में प्रेमी या पति को अपनी प्रेमिका या पत्नी का दास बताया गया है, वैसे ही पत्नी भी पति की दासी है। हमारे यहां इसीलिए रैदास (रविदास), तुलसीदास आदि भी हुए, ये गुलाम या स्लेव नहीं थे। दास शब्द किसी शोषण या अत्याचार का प्रतीक नहीं, विनम्रता, सेवाभाव, अहंकारहीनता का प्रतीक था। आज भी लोग समाज”सेवा” करते हैं न।

हां, यह अवश्य है कि कहीं कहीं वचन है कि कोई व्यक्ति दासकर्म न करे, किन्तु वहां भाव है कि उसे अपनी आजीविका के लिये किसी अन्य के दिए गए वेतन पर आश्रित न रहना पड़े, अपितु वह स्वरोजगार करे। बड़े बूढे कहते भी थे – “अधम चाकरी” …

मिताक्षरा में वचन है,
कर्म्मापि द्बिविधं ज्ञेयमशुभं शुभमेव च ।
अशुभं दासकर्म्मोक्तं शुभं कर्म्मकृतां स्मृतम् ॥

कर्म के भी दो प्रकार हैं, एक शुभ एवं दूसरा अशुभ। दासकर्म को अशुभ तथा स्वकृत को शुभ कहते हैं।

शूद्रवर्ण, जिनके लिए दास शब्द का उल्लेख है, उन्हें व्यक्तिगत दास्यकर्म (नौकरी) के लिए कम, और स्वकर्म का अधिक अवसर दिया गया था। जितने भी समाज के आधारभूत कर्म हैं, वे सभी एक एक जाति के लिए सहज ही आरक्षित थे। जैसे सोने चांदी का सारा काम सुनार, लोहे का लुहार, पीतल कांसे का ठठेरा, तेल का तेली, कपड़े बुनने का बुनकर, कपड़े सिलने का दर्ज़ी, कपड़े रंगने का रंगरेज, कपड़े धोने का धोबी, मिट्टी का सारा काम कुम्हार, सौंदर्य प्रसाधन का सैरंध्री, नाई आदि, पानी भरने और वितरण का कहार, भिश्ती, आदि … सबके कर्तव्य निश्चित थे। हां, इसके बाद यदि आजीविका में कोई समस्या आये, तब उसके लिए नौकरी करने यानी दास बनने की बात थी। वहां भी उसे पर्याप्त अवकाश, वेतन आदि की सुविधा रहती थी, जैसे आज की नौकरी में है।

शब्दकल्पद्रुम में दास शब्द की परिभाषा में यह भी कहते हैं –
दास्यते दीयते भूतिमूल्यादिकं यस्मै सः (दासः)
जिसे भूतिमूल्य आदि दिया जाए, उसे दास कहते हैं। भूति का अर्थ सम्पत्ति भी है और सत्ता भी है। सत्ता का अर्थ शब्दकल्पद्रुम में साधुता एवं अच्छा व्यवहार भी बताया गया है। भूति का अर्थ उत्तरोत्तरवृद्धि भी है। अर्थात् दासों को उनके अच्छे कर्म का वेतन, धन, मूल्य आवश्यक वेतनवृद्धि, क्रमशः बढ़ते हुए वेतनमान के साथ मिलता था।

दास का अर्थ किंकर भी होता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे का किंकर है।

विप्रस्य किङ्करा भूपो वैश्यो भूपस्य भूमिप।
सर्व्वेषां किङ्कराः शूद्रा ब्राह्मणस्य विशेषतः॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, गणपतिखण्ड, अध्याय ३४, श्लोक – ५९)

ब्राह्मण का किंकर राजा है। राजा का किंकर वैश्य है। वैश्य का किंकर शूद्र है और शूद्र सबका, विशेषकर ब्राह्मण का किंकर है।

किंकर का अर्थ गुलाम नहीं होता, आदेशपालक होता है। “मैं क्या करूँ ?” अथवा “मेरे लिए क्या आज्ञा है ?” ऐसे प्रश्न करने वाला किंकर है। हनुमानजी महाराज को प्रभु श्रीराम का किंकर बताया गया है। रघुवंशम् में कुम्भोदर सिंह ने राजा दिलीप को स्वयं का परिचय शिव जी के किंकर के रूप में दिया है – अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः।

राजा ब्राह्मण से पूछता है कि मैं क्या करूँ ? मैं कैसे राज्य चलाऊँ कि धर्मानुसार सब प्रजा सुखी रहे, इसीलिए वह ब्राह्मण का किंकर है। वैश्य, राजा से पूछता है कि मैं क्या करूँ ? राज्य के नियमों के अनुसार अर्थव्यवस्था के अनुकूल कौन सी व्यापार नीति अपनाऊं ? , इसीलिए वह राजा का किंकर है। शूद्र, चूंकि उत्पादक (Primary Production Sector) वर्ग है, और वैश्य वितरणकर्ता (Secondary or Tertiary Sector) है, अतएव शूद्र वैश्य से पूछता है कि मैं क्या करूं ? क्या बनाऊं, किस वस्तु का किस गुणवत्ता अथवा कितनी मात्रा में उत्पादन करूँ? , इसीलिए वह वैश्य का किंकर है। विशेषकर ब्राह्मण का किंकर इसीलिए है, क्योंकि ब्राह्मण के सदुपदेश से उसे कर्तव्य की शिक्षा मिलेगी तो वह शेष दायित्वों का वहन सहजता से कर लेगा। किंकर को ही दास भी कहते हैं, दास को ही भृत्य भी कहते हैं।

भृत्यकर्म को ही दास्यकर्म भी कहते हैं। भृत्यों के भी कई भेद हैं। उत्तम, मध्यम एवं अधम भृत्यों के सन्दर्भ में शास्त्रों का वचन है कि जैसे सोने की परख उसके वजन, घर्षण, छेदन एवं ताप आदि परीक्षणों से होती है, वैसे ही सामाजिक प्रशंसा, अच्छा आचरण, कुल और कार्यकुशलता से भृत्य की परीक्षा ली जाती है।
भृत्या बहुविधा ज्ञेया उत्तमाधममध्यमाः ।
नियोक्तव्या यथार्थेषु त्रिविधेष्वेव कर्म्मसु ॥
भृत्यपरीक्षणं वक्ष्ये यस्य यस्य हि यो गुणः।
तमिमं संप्रवक्ष्यामि यद्यदा कथितानि च ॥
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते,
तुलाघर्षणच्छेदनतापनेन।
तथा चतुर्भिर्भृतकः परीक्ष्यते,
श्रुतेन शीलेन कुलेन कर्म्मणा ॥

(गरुड़ पुराण, आचारकाण्ड, बार्हस्पत्यनीति, अध्याय – ११२, श्लोक – ०१-०३)

भृत्य अथवा दास का काम शुश्रूषा बताया गया है। शुश्रूषा के कई अर्थ हैं, जैसे कि – सुनने की इच्छा, सेवा, उपासना आदि। स्वामी के दिये गए निर्देशों को सुनने की इच्छा रखना, उसकी सेवा करना आदि दास के कर्तव्य हैं। अब यदि दास पर अत्याचार होगा तो वह भला क्यों अपने स्वामी के आदेश सुनने की इच्छा रखेगा ? सेवा भाव भी तभी उत्पन्न हो सकता है, जब स्वामी उसके प्रति सद्व्यवहार करे। शास्त्रों में दास के कई भेद हैं, जिनमें क्रीतदास (ख़रीदा हुआ व्यक्ति) भी है। इसका एक उदाहरण हम राजा हरिश्चंद्र और वीरबाहु चांडाल के प्रकरण में देखते हैं। किन्तु क्रीतदास को भी पूरी सुविधा और वेतन आदि मिलते थे। (हरिश्चंद्र के साथ अत्याचार इसीलिए हुआ क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा की धार्मिक परीक्षा हो रही थी, और वह चांडाल, ब्राह्मण आदि माया के थे) ऐसे ही एक दास का प्रकार वह है जो ऋण न चुकाने की स्थिति में दास बन गया हो, ऐसे में वह व्यक्ति ऋण के समतुल्य परिश्रम करके, अथवा किसी और व्यक्ति के द्वारा ऋण चुका देने पर स्वतः मुक्त हो जाता था। इसमें कोई पीढ़ी दर पीढ़ी की गुलामी की बात नहीं थी। पिता के मरने पर नियमतः उसका लिया गया ऋण चुकाने के लिए उस व्यक्ति की पत्नी या पुत्र बाध्य नहीं हैं। हां, यदि अपने पिता को पारलौकिक कष्ट से बचाने के लिए पुत्र या पत्नी उस ऋण को चुका दें, तो यह उनकी अपनी अलग सत्यनिष्ठा है।
✍🏻 भगवतानंद गुरु

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