ऐतिहासिक और प्रमाणिक सत्य है कि पांचवी सदी में बने टिम्बकटू शहर से 15वीं-16वी सदी तक ऊँटों के काफिले सहारा रेगिस्तान हो कर सोना ढोया करते थे।
आजतक के मानव इतिहास में सन 1280 से 1337 ई तक टिम्बकटू के राजा रहे #मनसा_मूसाकेता यानि सुल्तान मूसा केता को टाईम और फोर्ब्स मैगजीन्स ने अब तक का सबसे अमीर व्यक्ति माना है।
टिम्बकटू के बारे में खोजी प्रवृति के मित्रगण जानना शुरू कीजिए बहुत कुछ वो मिलेगा जो हिन्दुत्व विरोधियों को मुंह तोड जवाब देने का कोड़ है..
भारत का ज्ञान और टिम्बकटू का सोना
– अश्विनी कुमार पंकज
इस पृथ्वी पर सोने की सबसे बड़ी लूट 1799 में हुई थी जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिक जर्मन यहूदी रोथ्सचिल्ड ने टीपू सुल्तान की हत्या करके उसका सारा सोना उठवा लिया और जहाजों से यूरोप भेज दिया।
यही सोना रोथ्सचिल्ड के बैंक समूह ( IMF, वर्ल्ड बैंक, अमेरिकन फ़ेडरल रिज़र्व ) का आधार बना — इसी से इतिहास की बड़ी बड़ी घटनाओं — दोनों विश्व युद्ध, फ्रांस, रूस, चीन की क्रांतियाँ तथा अनेक नरसंहारों को अंजाम दिया गया, इसी ने रोथ्सचिल्ड को “बिग ब्रदर” की पदवी दिलाई।
पर टीपू सुल्तान के पास यह सोना कहाँ से आया? उसने केरल के प्राचीन मंदिरों के तहखानों से यह सोना चुराया था जो वहाँ हजारों सालों के व्यापार से इकठ्ठा हुआ था। व्यापार — मसालों का और ज्ञान का — जी हाँ! ज्ञान का ।
यह सोना कितना रहा होगा — इसका अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि एक साधारण सा मंदिर जो टीपू से बच गया — उसने कोशिश की थी पर इसमें वह अपने पैर तुड़वा बैठा और उसे अपनी तलवार खोनी पड़ी , जो अब भारतीय व्यवसायी विजय माल्या के पास है – वह था केरल का श्रीपद्मनाभ स्वामी मंदिर ।
जून 2011 में भारत सरकार ने इस मंदिर का एक छोटा तहखाना खोला – और उससे निकले स्वर्ण भंडार से विश्व की आँखें चौंधिया गयीं – इसकी कीमत 24 अरब यू. एस. डॉलर आँकी गई। इसकी प्राचीनता को देखते हुए यह कीमत दस गुनी ज्यादा होगी। अंततः ( सुरक्षा कारणों से ) भारत सरकार को इसके बड़े तहखाने खुलवाने का विचार त्यागना पड़ा। शायद सरकार यह समझ नहीं पा रही थी कि इतने सोने का वह करेगी क्या ?
आजतक लोगों को समझ में नहीं आया कि श्रीपद्मनाभ स्वामी मंदिर के इन बंद तहखानों में अज्ञात रूप से पड़े इस विशाल स्वर्ण भंडार का स्रोत क्या था?
आइये अब माली चलें ।
मनसा मूसा का जन्म 1280 में हुआ था और वह माली साम्राज्य का शासक था जहाँ उस समय विश्व के 70 % सोने का उत्पादन होता था।
आज माली की माली हालत खस्ता है और वह देश दरिद्र हो चुका है। पर मनसा मूसा का राज्यकाल “ माली साम्राज्य का स्वर्णयुग” था।
वह अपनी 1324 में की गई हज यात्रा के लिए मशहूर हो गया। अफ्रीका को पार करते हुए वह यात्रा साल भर में पूरी हुई थी, जिसमे वह पूरे ठाट बाट के साथ चला था – ऊंटों की लम्बी पंक्तियाँ, दास दासी, प्रजाजन, जीन कसे हुए घोड़े, रंगीन ध्वज, सोने के भण्डार – साथ ही उसकी वरिष्ठ पत्नी अपनी पाँच सौ दासियों के साथ थी। इब्न बतूता के अनुसार माली से मक्का की इस यात्रा में 60,000 लोग मनसा मूसा के साथ थे। बेशकीमती सिल्क के वस्त्र पहने 12,000 नौकर थे जिनमें हरेक के पास 4 पौण्ड सोने की छड़ें थीं। उसके कारवाँ में 100 से अधिक ऊँटों में हरेक के ऊपर 300 पौण्ड से अधिक सोना लदा था। एक अफवाह के अनुसार उसने सारा सोना रास्ते में बाँट दिया।
पर नहीं महाशय ! ऐसा नहीं था !!!
उसके साथ बहुत से विद्वान भी थे और रास्ते में वह ज्ञान विज्ञान की सारी पुस्तकें खरीदता गया । बहुत से विद्वानों, चिकित्सकों, शिल्पकारों, अध्यापकों, विचारकों और अनुवादकों को वह अपने साथ माली ले गया और वहाँ बड़े बड़े विश्वविद्यालय स्थापित कर दिये।
वह बुद्धिमान राजा जानता था कि ज्ञान का मूल्य सोने से अधिक है।
इस ज्ञान का अधिकांश भाग — खगोलशास्त्र, चिकित्सा, गणित, विज्ञान आदि से सम्बंधित वैदिक पुस्तकों का मलयालम या संस्कृत से अरबी में अनुवाद मात्र था, जिसका स्वत्व-शुल्क (royalty) कालीकट का राजा वसूलता था।
मनसा मूसा की मक्का यात्रा के बाद माली के साथ साथ भारत का कालीकट भी पुर्तगाल और स्पेन की नज़रों में चढ़ गया। आश्चर्य नहीं कि 1498 में वास्को डि गामा कालीकट पर चढ़ बैठा।
विद्याप्रेमी मनसा ने माली को ज्ञान विज्ञान का एक प्रमुख केंद्र बना दिया। वहाँ के गाओ और टिम्बकटू शहरों में हर तरफ पुस्तकालय थे। लोगों के व्यक्तिगत संग्रह में भी हज़ारों पुस्तकें हुआ करती थीं।
जब यूरोपियन टिम्बकटू पहुँचे तो उन्होंने शहर को खूब लूटा। आज भी माली के रेत के गड्ढों में ये पुस्तकें छिपायी हुई हैं क्योंकि वहां के लोग, चालाक गोरे लोगों के आक्रमण के भय से किसी केंद्रीय पुस्तकालय में भरोसा न करके अपनी बहुमूल्य पुस्तकों को रेत के गड्ढों में छिपा देते थे।
टिम्बकटू की चकाचौंध अब भूली-बिसरी कहानियों तक सीमित रह गई है। समय के प्रवाह में यह शहर अब अपनी रौनक खो बैठा है, पर माली के लोग अपने ज्ञान की रक्षा करने में आज भी पूरे मुस्तैद हैं और वहाँ के पुस्तकालयों में बाहरी लोगों की पहुँच बहुत मुश्किल है।
हो भी क्यों ना !! आखिर अपना सोना देकर उन्होंने “भारत का ज्ञान” हासिल किया था !
टिम्बकटू किताबों का शहर है. आप ही की तरह हम भी चक्करघिन्नी हो गए थे. पहली बार सुनकर. लेकिन जनाब एकदम दुरूस्त खबर है. अंगरेजों और फ्रांसीसी स्वयंभू आकाओं ने लंबे समय तक यह बात दुनिया से दबाए रखी. इस खबर को दबाए रखने में उन्हें कौन-सा ‘मोक्ष’ प्राप्त हो रहा था, ये पॉलटिक्स आप ज्ञानी लोग समझते ही हैं बखूबी. सो बिना उनकी पॉलटिक्स पर एक भी शब्द और खर्च किये आपको बता दें कि टिम्बकटू किताबों का शहर है. वह भी प्राचीन किताबों का. ज्ञान-विज्ञान, कला, भाषा-साहित्य, व्याकरण, चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र और अध्यात्म-धर्म जैसे विषय पर दुर्लभ पांडुलिपियों का भंडार है. हर घर में जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी से लोगों ने संभाल रखा है.
टिम्बकटू सहारा रेगिस्तान का प्रवेश द्वार है जो निग्रे नदी से 20 किमी की दूरी पर बसा है. ‘टिन’ का अर्थ होता है ‘स्थान’ और ‘बुकटू’ उस क्षेत्र में रहनेवाली एक बेहद भली महिला का नाम था. जो सदियों पहले वहां रहती थी. लेकिन अंगरेजों को देखिए. टिम्बकटू का अर्थ उनकी डिक्शनरी में है – बहुत दूर का देश या स्थान. उपलब्ध इतिहास के अनुसार टिम्बकटू 5वीं सदी में स्थापित हुआ था और 10वीं सदी तक एक व्यवस्थित और विकसित नगर का रूप ले चुका था. 12वीं सदी तक यह सभी विषय के स्कॉलरों, विशेषज्ञों सहित व्यापार, धर्म-अध्यात्म, कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के एक महत्वपूर्ण इस्लामिक केन्द्र के रूप में जाना जाने लगा था. सबसे पहले इस शहर का जिक्र मोरक्कन यात्री इब्ने बतूता ने 1353 में किया है. इस्लामिक शासकों के दौर में फला-फूला माली साम्राज्य 19वीं सदी (15 दिसंबर 1893) में जब फ्रांसीसियों के अधीन हुआ तो यह उन्नत नगर भी उनके उपनिवेश का हिस्सा हो गया. फिर 22 सितंबर 1960 को जब माली गणराज्य एक स्वतंत्र राष्ट्र बना तो टिम्बकटू ने भी आजादी की सांस ली.
1960 तक लाखों पांडुलिपियां और ग्रंथ गुलामी के कारण कई सदी तक दुनिया से छुपी रहीं. रसोई घर में, जानवरों के गोहाल में और जमीन के नीचे दबकर. लेकिन आजादी मिलते ही प्राचीनतम पुरानी किताबें हवा और धूप सेंकने बाहर आ निकलीं. तब जाकर दुनिया को पता चला और शुरु हुआ इंसानी ज्ञान के दुर्लभ लिखित स्रोतों के खोज और संग्रह का अनूठा अभियान. अब तक के खोज अभियानों के अनुसार टिम्बकटू में इंसानी ज्ञान के 7 लाख से भी अधिक अत्यंत प्राचीन पांडुलिपियों का संग्रह है. ये पांडुलिपियां समूचे टिम्बकटू क्षेत्र के निवासियों के घरों में संरक्षित हैं. 90 के बाद से इनके संग्रह का अभियान शुरू हुआ जो अब भी जारी है. संग्रह अभियान के फलस्वरूप कई परिवारों ने या तो खुद ही या फिर कई परिवारों ने मिलकर संग्रहालय-पुस्तकालय बनाकर पांडुलिपियों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने की पहल की. इन कोशिशों का परिणाम है कि मात्र 54,453 आबादी वाले इस ऐतिहासिक केन्द्र टिम्बकटू में 60 से अधिक निजी और सरकारी पुस्तक पांडुलिपि संग्रहालय हैं. अनुमान है कि अभी भी हजारों पांडुलिपियां अनेक घरों में मौजूद हैं. जिन्हें संग्रहित नहीं किया जा सका है.
1988 में यूनेस्को ने टिम्बकटू को ‘इंसानी सभ्यता की अनमोल धरोहर’ घोषित कर चौदहवीं-सोलहवीं शताब्दी में निर्मित तीन अनूठे विशाल इस्लामिक मस्जिदों (झिंगिरबर, सैंकोर, सिदी याहिया) और लाखों प्राचीन पांडुलिपियों के संरक्षण की ओर दुनिया ध्यान खींचने की कोशिश की. 2012 में यूनेस्को में इसे ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट इन डेंजर’ की सूची में भी शामिल किया. पर टिम्बकटू के इस्लामिक धार्मिक स्थल और पांडुलिपियांे के संरक्षण की तमाम कोशिशें अलकायदा समर्थित कट्टरपंथी गुटों के फतवों का खतरा झेल रहे हैं. यूनेस्को के धरोहर विशेषज्ञों का मानना है कि तीन महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक झिंगिरबर मस्जिद, जो 1327 का निर्माण है, को भारी नुकसान पहुंचाया है और कई संग्रहालयों को या तो नष्ट कर दिया गया है या फिर उन्हें जला दिया गया है. यूनेस्को के डेविड स्टेल ने 3 जुलाई को नुकसान का आकलन करते हुए कहा, ‘अहमद बाबा इंस्टीच्यूट ऑफ हायर लर्निंग एंड इसलामिक रिसर्च’ में 46 हजार पांडुलिपियां थी जिनमें से 4203 पांडुलिपियों की या तो चोरी हुई है या फिर उन्हें जला दिया गया है.
ध्यान रहे कि अप्रैल 2012 में अलकायदा इस्लामिक मगरिब संगठन के विद्रोहियों ने टिम्बकटू पर कब्जा कर लिया था जो जून 2013 में फ्रेंच और माली सेना की संयुक्त कार्रवाइयों के बाद मुक्त हो सका. पर इस एक साल के कब्जे के दौरान प्राचीन धार्मिक स्थलों और पांडुलिपियों को बहुत नुकसान पहंुचाया गया. विद्रोही गुटों ने फतवा जारी कर प्राचीन इस्लामिक धार्मिक स्थलों और पांडुलिपियों को ‘शरिया’ कानून के तहत इस्लाम विरूद्ध मानते हुए उनके नष्ट करने की घोषण कर रखी है. कट्टरपंथियों से पांडुलिपियों को बचाने के लिए लोगों ने सरकारी और व्यक्तिगत प्रयासों से जान जोखिम में डालकर लाखों प्राचीन ग्रंथों की ‘तस्करी’ की. इंसानी इतिहास में पुस्तकों को बचाने का ऐसा प्रयास पहली बार दुनिया ने देखा है.
बौद्धिक और आध्यात्मिक केन्द्र टिम्बकटू मूलतः अफ्रीकन आदिवासियों ने विकसित किया था. नालंदा-तक्षशीला और एथेंस जैसे केन्द्रों की तरह ही टिम्बकटू भी ज्ञानार्जन का एक प्रमुख केन्द्र था. चूंकि एक अच्छी-खासी अफ्रीकन आदिवासी आबादी ने इस्लाम अपना लिया था और वे अपने ज्ञान-विज्ञान से ईसाई धर्म व शासकों को चुनौती दे रहे थे, इसलिए पश्चिमी देशों ने इस केन्द्र के बारे में चुप्पी साध ली और अपने लिखित इतिहास से इसे बाहर धकेल दिया. विशेषज्ञों के मुताबिक लाखों पांडुलिपियों में से लगभग 10 प्रतिशत स्थानीय अफ्रीकन आदिवासी भाषा ‘अजामी’ में हैं जिन्हें अरबी में लिपिबद्ध किया गया है. इसके अलावा इन पांडुलिपियों में अफ्रीका की लगभग सभी भाषाएं अंशतः शामिल हैं. विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि इन दुर्लभ और अनमोल ग्रंथों के रचयिता अफ्रीकन आदिवासी ही हैं जिसके अध्ययन के द्वारा हम उस इतिहास को खारिज कर सकते हैं जिनमें औपनिवेशिक शासकों ने अफ्रीका को बर्बर व असभ्य समाज के रूप में चित्रित कर रखा है. टिम्बकटू और माली के अन्य क्षेत्रों में मिले प्राचीन पांडुलिपियों व ग्रंथों को विषय के आधार पर 73 विशिष्ट वर्गों में विभाजित कर उनके डिजिटाइजेशन और अध्ययन का काम जारी है. जानकर आंखें खुली की खुली रह जाती हैं कि टिम्बकटू में 15वीं-16वीं सदी तक धर्म, अध्यात्म और ज्ञान के 150 केन्द्रों और 25 हजार विद्यार्थियों के होने के लिखित प्रमाण हैं. जबकि नालंदा में महज 10 हजार विद्यार्थियों के होने की सूचना मिलती है. टिम्बकटू अब तक ज्ञात ज्ञान के सबसे विशाल विश्वविद्यालयों में से है जहां दुनिया भर के लोग अध्ययन और शांति के पैगाम का विस्तार करने के लिए, सीखने के लिए आते थे.
– अश्विनी कुमार पंकज
‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ के महासम्मेलन विशेषांक, जून-अगस्त 2013 से साभारदिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |