Categories
हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

समाज सुधारक राजा राममोहन राय

22 मई/जन्म-दिवस

हिन्दू समाज में सीता, सावित्री, अनसूया आदि सती-साध्वी स्त्रियों की सदा से पूजा होती रही है। सती का अर्थ है मन, वचन, कर्म से अपने पतिव्रत को समर्पित नारी; पर जब भारत में विदेशी और विधर्मियों के आक्रमण होने लगे, तो मुख्यतः राजस्थान में क्षत्रिय वीरांगनाओं ने पराजय की स्थिति में शत्रुओं के हाथों में पड़ने की बजाय आत्मदाह कर प्राण देने का मार्ग चुना।

इसके लिए वे एक बड़ी चिता सजाकर सामूहिक रूप से उसमें बैठ जाती थीं। वीर पुरुष भी पीछे नहीं रहते थे। वे सब केसरिया वस्त्र पहनकर, किले के फाटक खोलकर रणभूमि में चले जाते थे। इस प्रथा को ही ‘जौहर’ कहा गया। कुछ नारियाँ अपने वीरगति प्राप्त पति के शव के साथ चिता पर बैठ जाती थीं। इसके लिए भी ‘सती’ शब्द ही रूढ़ हो गया।

कुछ और समय बीतने के बाद देश के अनेक भागों (विशेषकर पूर्वांचल) में सती प्रथा का रूप विकृत हो गया। अब हर विधवा अपने पति के शव के साथ चिता पर चढ़ने लगी। कहीं-कहीं तो उसे चिता पर जबरन चढ़ा दिया जाता था। चिता जलने पर ढोल-नगाड़े बजते। सती माता की जय के नारे लगते। इस शोर में उस महिला का रुदन दब जाता। लोग इस कुप्रथा को ही ‘सती प्रथा’ कहकर सम्मानित करने लगे। कई बार तो नाते-रिश्तेदार पारिवारिक सम्पत्ति के लालच में भी महिला को चिता पर चढ़ा देते थे।

ऐसे वातावरण में राधानगर (बंगाल) के एक सम्भ्रात और प्रतिष्ठित परिवार में 22 मई, 1772 को एक बालक जन्मा, जो आगे चलकर नारी अधिकारों के समर्थक और सती प्रथा को समाप्त कराने वाले राजा राममोहन राय के रूप में प्रसिद्ध हुआ। राजा राममोहन राय के बड़े भाई जब बीमार हुए, तो उनका ठीक से इलाज नहीं हुआ। उनके देहान्त के बाद जब पूरा परिवार शोक में डूबा था, तब अनेक लोग उनकी भाभी को सती होने के लिए उकसाने लगे।

उनकी भाभी सती होना नहीं चाहती थीं; पर लोगों ने इसे धर्म और समाज की परम्परा बताते हुए कहा कि सती होकर तुम अपने पति की सर्वप्रियता सिद्ध करोगी। इससे उनका और तुम्हारा दोनों का परलोक सुधरेगा। राजा राममोहन राय राधानगर की जमींदारी के प्रमुख थे। उन्होंने इसका विरोध कर अपनी भाभी को बचाना चाहा; पर लोग इस परम्परा को तोड़ने के पक्षधर नहीं थे। अन्ततः इच्छा न होते हुए भी उनकी भाभी को चिता पर चढ़ना ही पड़ा। राममोहन के कोमल मन को इस घटना ने विचलित कर दिया।

इसके बाद तो उन्होंने इस कुप्रथा की समाप्ति को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन दिनों भारत में अंग्रेजी शासन था। जब गवर्नर जनरल विलियम बैण्टिक ने ‘समाज सुधार योजना’ के अन्तर्गत सती प्रथा की समाप्ति और विधवा विवाह, अन्तरजातीय विवाह आदि के प्रयास किये, तो राजा राममोहन राय ने उनका साथ दिया। 1829 में सती प्रथा विरोधी कानून पारित हो गया।

इसके बाद उन्होंने नारी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए अनेक विद्यालयों की स्थापना की, जिनमें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक का प्रबन्ध था। इनमें संस्कृत तथा बांग्ला के साथ अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती थी। महिलाओं के अधिकारों के लिए उन्होंने उनके माता-पिता और सास-ससुर को भी प्रेरित किया। उन दिनों बंगाल के बुद्धिजीवी हिन्दू धर्म को हेय समझ कर ईसाइयत की ओर आकर्षित हो रहे थे। यह देखकर वे श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित आध्यात्मिक संस्था ‘ब्रह्म समाज’ में सक्रिय हो गये और इस अन्धी दौड़ को रोका।

27 सितम्बर, 1833 को जनता को जनार्दन मानकर उसकी आराधना करने वाले राजा राममोहन राय का देहान्त हुआ। यद्यपि कुछ लोगों का मत है कि उन्होंने विधवा दहन को ‘सती प्रथा’ कहकर भारत की बदनामी कराई।
……………………………
इस प्रकार के भाव पूर्ण संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196

Comment:Cancel reply

Exit mobile version