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विशेष संपादकीय

सहज और स्वाभाविक बनो

goddaव्यावहारिक जीवन में हम किसी भी ऐसे बच्चे की बातों से अधिक प्रभावित होते हैं जो तोतली भाषा में अपनी बात को तुतला-तुतलाकर कहता है, किंतु कहता वही है जो कुछ उसकी नजरों में सच होता है, उसकी बातों की सहजता और स्वाभाविकता ही हमारे हृदय को प्रभावित करती है। स्वाभाविकता कहते ही उसको हैं जिसमें कोई औपचारिकता न हो, जो वे बोलें, उसका अर्थ वही हो जैसा कहा गया है। यदि शब्दों में औपचारिकता घुस गयी है यदि चिकनी चुपड़ी बातों को शब्दों ने अंगीकृत कर लिया है और यदि शब्द जिस रूप में सुनाई पड़ रहे हैं उनका अर्थ वह नही है, तो भाषा अच्छी प्रकार अलंकारिक रूप लिए होकर भी अगले व्यक्ति के हृदय को नही छूती। सुनने वाले को उसकी बातों में एक तोतले बच्चे की बातों का सा मजा भी नही आता। एक नेता घंटों गला फाड़ता है किंतु सुनने वाले के लिए उसका कहा हुआ सारा का सारा मसाला नीरस और फीका होता है। उसकी बातों में श्रोता को मजा नही आता। नेता की बातों से अधिक स्वाद एक चिडिय़ा की चहचाहट लिए होती है, पक्षियों का वह कोलाहल लिए होता है जिसे सुनकर प्रात: भ्रमण करने वाला व्यक्ति स्वयं को आनंदित और प्रफुल्लित अनुभव करता है। नेता की सारी बातों को समझा और चिडिय़ा अथवा पक्षियों के कोलाहल से कुछ भी नही समझा लेकिन हृदय को आनंद की अनुभूति हो गयी तो बहुत कुछ पा लिया। इसी को स्वाभाविकता कहते हैं। जब बच्चा अपने वाक्य को आपके समक्ष उद्घाटित करता है तो वह न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, और ना ही कुछ और होता है, मजहब की ये दीवारें तो हम स्वयं खड़ी करते हैं, और इन सबसे बच्चे का परिचय कराते हैं। इनसे परिचय होने से पूर्व तो वह ईश्वर का रूप होता है। उसे छल, कपट, झूठ बोलना, ईष्र्या करना, हिंसा करना सभी कुछ तो हम सिखाते हैं और तो और हिंदू होकर कुरान से और मुस्लिम होकर वेद से गीता से रामायण और महाभारत से नफरत करनी है, यह सब भी उसे हम ही सिखाते हैं। वह ज्यों ज्यों हमारी अंगुली को पकड़कर इन मजहबी दीवारों, छल, कपट, ईष्र्या और द्वेष की बातों, की सीढिय़ों पर चढऩे का प्रयास करने लगता है त्यों त्यों वह हमारे लिए कम आकर्षक होता चला जाता है। वह जब तक सांसारिक दुष्प्रवृत्तियों से बचा हुआ था तभी तक बच्चा था, जब उनमें रम गया तो न बच्चा रहा और न हमारे लिए उतना आकर्षक और प्रशंसनीय रहा जितना पहले था। कितनी अजीब बात है, जब कुछ नही जानता था तो लगता था कि सब कुछ जानता है और जब कुछ जान गया तो लगने लगा कि कुछ नही जानता। इसका अभिप्राय ये हुआ कि हमने उसे उन बातों में भरमा दिया जिससे कि उसका जीवन ही भरमा गया। जब जीवन, जीवन की उन झूठी और मिथ्या बातों में फंसकर भ्रमित हो गया जिनका कोई सार नही, कोई तथ्य नही तो जीवन और जगत के विषय में नयी धारणा ने जन्म लिया कि जग मिथ्या है। दुनिया एक भ्रम है। इन मिथ्या और भ्रमोत्पादक बातों से बचाकर वास्तविकता की प्राप्ति के लिए हमारे महान नीतिकारों ने सहजता और स्वाभाविक की प्राप्ति के लिए जो जैसा है, उसे वैसा ही कहने, सुनने और समझने की प्रार्थना करते हुए जिस तत्व की खोज की उस प्रार्थना की भावना का नाम उन्होने ‘असतो मा सद गमय’ दिया। अर्थात असत्य से, मिथ्यावाद से उन झूठी और भ्रमोत्पादक बातों से, जिन से संसार और यह जगत मिथ्या अनुभव होने लगे, उस परम सत्य की ओर चलने की प्रार्थना की, जिसे पाने के लिए उसके इस विशाल दृश्यमान स्वरूप को समझना परमावश्यक है। इसलिए हमारी संस्कृति के शिल्पकारों ने इस जग को अपने कल्याण हेतु परमपिता द्वारा प्रदत्त यथारूप में ही स्वीकार किया। इसके विषय में अपनी ओर से कोई नई धारणा अथवा मान्यता का सृजन अथवा आविष्कार नही किया। उनकी जो जैसा है कि उसे उसी रूप् में स्वीकार करने की इसी भावना ने उन्हें सहजता और स्वाभाविकता का प्रतिरूप बनाकर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। इसलिए भारत की इस परंपरा के महापुरूष हमारे लिए आज भी स्तवनीय और आदर के पात्र हैं। इसलिए सहज और स्वाभाविक बनने में ही लाभ है।

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