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धर्म-अध्यात्म

ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी आज्ञा का पालन करना ही धर्म है

ओ३म्

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मनुष्य ज्ञान से युक्त एक कर्मशील सत्ता है। मनुष्य का जीवात्मा अल्पज्ञ होता है। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है और अपनी इन शक्तियों से ही वह इस सृष्टि की रचना व पालन करता है। ईश्वर में सृष्टि रचना के अतिरिक्त भी अनेक गुण हैं। वह अनन्त कर्मों को करता है और उसका स्वभाव धार्मिक, पवित्र, शुद्ध तथा जीवात्माओं का कल्याण करना है। वर्तमान समय में संसार में अनेक मत-मतान्तर, सम्प्रदाय, मजहब तथा गुरुडम प्रचलित हैं। क्या यह सभी धर्म है? इसका उत्तर है नहीं, सभी मत-मतान्तर आदि धर्म नहीं है। धर्म एक गुण व मनुष्य के कर्तव्यों के समुच्चय को कहते हैं जिनसे मनुष्य का अभ्युदय होता है और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। मनुस्मृति को मानव धर्म शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। प्रक्षेप रहित मनुस्मृति में किसी मत या सम्प्रदाय की शिक्षा नहीं है अपितु पृथिवी के सभी मनुष्यों की आत्माओं व जीवन की उन्नति के लिये वह शिक्षायें व ज्ञान है जिनका पालन कर देश, समाज व विश्व में सुख व शान्ति उत्पन्न होती व हो सकती है। वेद और मनुस्मृति की शिक्षा को पढ़कर व उन्हें आचरण में लाकर कोई मनुष्य किसी के प्रति अकारण हिंसा व द्वेष आदि नहीं करता और आजकल की तरह उसे किसी का धर्मान्तरण करने की भी आवश्यकता नहीं होती। धर्म को जानने के लिये हमें मनुष्य की आत्मा व उसकी आवश्यकताओं पर विचार करना उचित होगा। मनुष्य परमात्मा व माता-पिता की कृपा से इस संसार में जन्म लेता है। जन्म किसका व क्यों होता है? इस प्रश्न का शास्त्रों के अध्ययन सहित विचार व चिन्तन करने पर उत्तर मिलता है कि संसार में तीन अनादि सत्ताओं ईश्वर, जीव तथा प्रकृति में से जीव एक चेतन सत्ता है जो ज्ञान प्राप्ति तथा कर्म करने में समर्थ होती है। जीव एकदेशी एवं ससीम होता है इस कारण उसका ज्ञान एवं शक्ति भी अल्प व सीमित होती है।

अपने ज्ञान व शक्ति के अनुरूप ही जीवात्मा मनुष्य आदि जन्म को प्राप्त कर कार्य कर सकती है। ज्ञान प्राप्त हो जाये तो आचरण करना सरल हो जाता है। ज्ञान प्राप्ति ही मुख्य बात है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वज गुरुकुलों में आचार्यों से ज्ञान प्राप्त किया करते थे। वह आचार्य अपने पूर्व के आचार्यों से करते आ रहे थे। सृष्टि के प्रथम आचार्य चार वेदों के ज्ञानी ऋषि वा आचार्य ब्रह्मा जी थे। चार वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी को चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा से प्राप्त हुआ था जिन्हें यह ज्ञान इनकी आत्मा में सर्वान्तर्यामी ईश्वर से प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने ही वेदाध्ययन, ज्ञान प्राप्ति, अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन की परम्परा का आरम्भ किया था। अतः मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह वेदज्ञान की परीक्षा कर उसकी शिक्षाओं की भी परीक्षा व समीक्षा करे। ऋषि दयानन्द ने ऐसा ही किया था और वह उन्हें सभी सत्य व मनुष्यों के लिए अत्यावश्यक एवं कल्याणप्रद प्रतीत हुईं थी। वेदों में ईश्वर का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। ऐसा सत्यस्वरूप किसी मत, सम्प्रदाय, मजहब या गुरुडमों के ग्रन्थों व मान्यताओं में प्राप्त नहीं होता। वेदों का अध्ययन कर हमारे सभी प्राचीन ऋषियों सहित स्वामी दयानन्द जी ने घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा वेदों का पढ़ना व दूसरों को पढ़ाना तथा उसे विद्वानों से सुनना व दूसरों को सुनाना श्रेष्ठ मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। वेद साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है। अन्य जितने ग्रन्थ लिखे गये हैं, जिनकी शिक्षायें व मान्यतायें वेद से भिन्न व अपने अपने अनुयायियों के लिये हैं, वही साम्प्रदायिक कहे जाते हैं। वेद के सभी सिद्धान्त व शिक्षायें सार्वभौमिक होने के साथ सबके लिये कल्याणप्रद एवं हितकारी हैं। अतः सबको अपनी सर्वांगीण उन्नति व विश्व में शान्ति के लिये वेदों की शरण में आना चाहिये।

वेदेतर मतों की पुस्तकें विचारधारा के आधार पर संकीर्णता का सन्देश देती हैं। यह अपने मतों के अनुयायियों का ही कल्याण व हित चाहती व करती हैं तथा दूसरे मनुष्यों की अच्छी बातों की भी प्रत्यक्ष रूप में उपेक्षा कर उनको छल, बल, भय तथा प्रलोभन से छलती व भ्रमित कर उनका धर्म व आत्मा को गुलाम बनाती हैं। वेदों की शिक्षायें मत-मतान्तरों की संकीर्ण मान्यताओं के विपरीत हैं। वह किसी एक आचार्य व सन्देशवाहक की शिक्षाओं तक सीमित नहीं हैं। वह परमात्मा प्रदत्त ज्ञान व शिक्षायें संसार के सभी मनुष्यों के कल्याण को दृष्टिगत कर सत्य व हितकारी सन्देश देती हैं। यही कारण है कि अतीत में हमारे देश के प्रायः सभी महापुरुष व विद्वान वेदज्ञान से युक्त होने के साथ सभी विद्याओं में निपुण होते थे तथा वह बलशाली, देशभक्त एवं समाज के हितैषी होते थे। हमारे प्राचीन देश में शिक्षा व्यवसाय न होकर सबको निःशुल्क प्रदान की जाती थी। स्त्रियां भी वेद पढ़कर वेदविदुषी और यज्ञ की ब्रह्मा बनती थी और राजकार्यों एवं युद्धों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। अतः वेदों के सम्मुख संसार के सभी मनुष्यकृत ग्रन्थ धार्मिक व अन्य तुच्छ हंै। महर्षि दयानन्द ने इस विषय में एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त दिया है। वह यह है कि वेद सूर्य के समान स्वतः प्रमाण है। सूर्य को दिखाने के लिये दीपक की आवश्यकता नहीं होती अपितु सूर्य अपने प्रकाश से स्वयं प्रकाशित अर्थात् दृष्टिगोचर होता है। अन्य ग्रन्थों को ऋषि दयानन्द ने परतः प्रमाण बताया है। परतः प्रमाण का अर्थ है कि जिन ग्रन्थों की जो बातें वेदों के अनुकूल हैं वह भी प्रमाण योग्य मानी जाती हैं। अन्य बातें जो वेदानुकूल नहीं हैं अपितु वेद विरुद्ध हैं, वह त्याज्य होती हैं। उन वेदविरुद्ध बातों का सभ्य मनुष्यों को त्याग कर देना चाहिये। यही सिद्धान्त, मान्यता व विचारधारा सृष्टि की आदि से महाभारत युद्ध के कुछ दशक पूर्व तक पूरे भारत में प्रचलित थी। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब वर्षों तक संसार में वेदेतर कोई मत उत्पन्न नहीं हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद संसार में अज्ञान का अन्धकार छा गया और उस अज्ञान के अन्धकार में दीपक तुल्य मत प्रचलित हुए जबकि वेद व वैदिक धर्म सूर्य के समान प्रकाशवान एवं ज्ञान से युक्त एवं प्रकाशित रहे। वेदों के ज्ञान के धवल प्रकाश में ही मनुष्य जीवन व उसकी आत्मा की उन्नति होकर वह सर्वांगीण उन्नति को प्राप्त होकर ईश्वर साक्षात्कार सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है।

वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, सृष्टि सहित मनुष्यों के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के प्रथम दो नियमों में ईश्वर व उसके स्वरूप की चर्चा की है। वह लिखते हैं कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। इस नियम में यह स्पष्ट किया गया है सब सत्य विद्याओं का आदि मूल परमेश्वर है और वह सभी पदार्थ जो विद्या से जाने जाते हैं उन सब पदार्थों का आदिमूल, उनके परमाणु से लेकर उनके पूर्ण निर्मित स्वरूप सहित, उनका आदिमूल भी परमात्मा ही है। आर्यसमाज का दूसरा नियम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस नियम के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। अन्यत्र ईश्वर के बारे में यह भी विदित होता है कि वह सृष्टि का पालन और संहारकर्ता भी है। वह जीवात्माओं को उनके शुभाशुभ वा पाप-पुण्य का पूरा-पूरा, न कम न अधिक, सुख व दुःख रूपी फल देता है। वह जीवात्मा का कल्याण करता है और उसकी आत्मा में स्थित रहता हुआ वह उसको सन्मार्ग व सत्कर्म करने की प्रेरणा भी देता है। ईश्वर का यह स्वरूप वेदेतर मतों में नहीं पाया जाता। इसी लिये वह सब अपूर्ण हैं और उनमें अनेक बातें व नियम इसके विपरीत भी हैं। अतः वेद को छोड़कर मनुष्य को अपने अभीष्ट ईश्वर-साक्षातकार एवं ईश्वर के आनन्द के अनुभव सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। वेद जीवात्मा को सत्य, चित्त, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अजर, अमर, जन्म-मरण धर्मा, पाप-पुण्य के कर्मों में बंधा हुआ, अपने प्रारब्ध व कर्मों के अनुसार सुख व दुःखी रूपी फलों का भोक्ता बताते हंै। वेद यह भी बताते हैं कि मनुष्य योनि में मनुष्य को वेद ज्ञान की प्राप्ति कर सत्य व धर्म मार्ग पर चलते हुए शुभ कर्मों का संग्रह कर ईश्वर की उपासना तथा अग्निहोत्र यज्ञ से ईश्वर को प्राप्त करना है और इसके परिणाम से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करना है। इसी लिये हमारा जन्म हुआ है। यदि हम इसके विपरीत चलेंगे तो इससे हमें वर्तमान व भविष्य में अनन्त काल तक दुःख व पतन की ओर जाना होगा। अतः सभी मनुष्यों के सम्मुख एकमात्र विकल्प वेदों को स्वीकार करना तथा उसके अनुसार आचरण करना ही सिद्ध होता है। मत-मतान्तरों में फंस कर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के स्वरूप, इनके ज्ञान व प्राप्ति से वंचित हो जाता है। अतः वेदों में प्राप्त ईश्वर का स्वरूप ही मनुष्य के लिये उपासनीय है। वेदानुसार आचरण ही हमारा धर्म एवं कर्तव्य है।

हम भाग्यशाली है कि हमारे पास ऋषि दयानन्द का लिखा हुआ वेदसम्मत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से हम सत्यासत्य तथा विद्या-अविद्या के स्वरूप को जान सकते हैं। इस ग्रन्थ के अध्ययन से हमारा जीवनपथ प्रकाशित होता है। हम असत्य की ओर जाने से बच सकते हैं तथा सन्ध्या, अग्निहोत्र व वैदिक कर्मों एवं आचरण को करके ईश्वर का साक्षात्कार करने के बाद जन्म व मरण से भी मुक्त होकर 31 नील 10 खरब से अधिक वर्षों तक ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द का भोग कर सकते हैं। यही हमारे लिये प्रेय व श्रेय दोनों ही है। हमें इसी को अपनाना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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