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विशेष संपादकीय

सरस्वती का आध्यात्मिक रहस्य

सरस्वतीउपनिषदों का मानना है कि जो पिण्ड में है वही विशाल रूप में ब्रह्मांड में है, और जो ब्रह्मांड में है वही सूक्ष्म रूप में पिण्ड में है। पिण्ड में आत्मा है तो ब्रह्मांड में परमात्मा है। हमारे ऋषि मुनियों ने जो ब्रह्मांड में देखा उसे पिण्ड में खोजा। उन्होंने प्राचीन काल में गंगा, यमुना और सरस्वती नदी के संगम को देखा तो उसे इस पिण्ड में खोजने का उद्यम किया। गंगा, यमुना तो हमें दीखती हैं पर सरस्वती नही दीखती। इसके लिए भूवैज्ञानिकों का मानना है कि प्राचीन काल में सरस्वती नदी भी आज के राजस्थान की ओर से आकर इलाहाबाद में संगम बनाती थी कालांतर में यह नदी लुप्त हो गयी। यह बात तो जंचती है कि कभी ऐसी नदी रही हो। परंतु अज्ञानता वश लोगों ने ऋग्वेद (10-75-5) के इस मंत्र की गलत व्याख्या की है-
इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्णिआ। असिक्न्या मरूदवृधे वितस्तपा आर्जीकीये शृणुहिं आ सुषोमया।।
अर्थात गंगा, यमुना, सरस्वती, परूष्णी, असिक्नि, मरूदवृधा, वितस्ता और अर्जीकीया आदि सोम सोम से संबंध रखती हैं। वास्तव में ये नाम नदियों के न होकर सूर्य की किरणों के हैं। दशों दिशाओं में फैली दश किरणों में से सात प्रधान मानी गयीं हैं। लोक में संयोग से सात नदियां जहां मिलीं उसे हमने सप्त सिंधु कहा। जहां तीन का संगम मिला उसे हमने तीर्थ माना और संगम कहा। कालांतर में पंचनद प्रांत को पंजाब कहकर पुकारा गया। इस प्रकार मूल अर्थ कहीं वेद से चला और लेाक में जाकर रूढ़ हो गया। हम समझ नही पाए कि इनका अर्थ क्या है? भौतिक जगत की इन नदियों से अलग हमारे आंतरिक जगत में जो कुछ हो रहा है इसे ध्यान से देखने और समझने की आवश्यकता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से पूछा-पितामह जो सब तीर्थों में श्रेष्ठ हो और जहां जाने से परमशुद्घि हो जाती हो, मुझे उस तीर्थ के संबंध में विस्तारपूर्वक बताइए।
तब भीष्म बोले-युधिष्ठर इस पृथ्वी पर जितने तीर्थ हैं, वे सब मनीषी लोगों के लिए गुणकारी होते हैं किंतु उन सबमें जो परम पवित्र और प्रधान तीर्थ है, उसका वर्णन करता हूं ध्यानपूर्वक सुनो! जिस धैर्य रूपी कुण्ड में सत्यरूपी जल भरा हो, तथा जो अगाध निर्मल और अत्यंत शुद्घ है, उस मानस तीर्थ में परमात्मा का आश्रय लेकर स्नान करना चाहिए। कामना और याचना का अभाव, सरलता, सत्य संयम, और मनोनिग्रह ये ही मानस तीर्थ के सेवन से प्राप्त होने वाली पवित्रता के लक्षण हैं। जो ममता अहंकार राग द्वेषादि द्वंद्व और परिग्रह से रहित तथा भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं, वे विशुद्घ अंत:करण वाले सज्जन तीर्थ स्वरूप हैं।
शरीर को पानी से भिगो लेना। स्नान नही कहलाता। वस्तुत: सच्चा स्नान तो उसने किया है जिसने मन इंद्रियों के संयम रूपी जल में गोता लगाया है, वही बाहर और भीतर से भी पवित्र माना गया है। आचार शुद्घि सन: शुद्घि, तीर्थ, शुद्घि और ज्ञानबुद्घि ये चार प्रकार की शुद्घि मानी गयी हैं। इनमें भी ज्ञान से प्राप्त होने वाली शुद्घि सर्वश्रेष्ठ मानी गयी है।
जो मनुष्य प्रसन्न और शुद्घ मन से ब्रह्मज्ञान रूपी जल के द्वारा मानस तीर्थ में स्नान करता है, उसका वह स्नान ही तत्वदर्शी ज्ञानी का स्नान माना गया है।
इसका अभिप्राय है कि मन की निर्मलता की पवित्र अवस्था ही सच्चा तीर्थ है। यदि मन में विकार भरे हों तो नित्य प्रति के स्नान का भी कोई लाभ नही होता। स्नान का लाभ तभी होता है जब शरीर की बाहरी सफाई के साथ साथ शरीर की भीतरी अर्थात अंत:करण की सफाई भी की जाए। सरस्वती विद्या की देवी है, वह वीणा वादिनी है। विद्या हृदयस्थ की जाती है। हमारा शरीर एक वाद्ययंत्र है। जब इसमें वीणावादिनी सरस्वती विद्या की देवी भीतर विराजमान हो जाती है तो शरीर का रोम रोम आलोकित हो उठता है। वही पवित्र अवस्था ही सरस्वती स्नान कहलाता है। इससे भिन्न तो केवल आडंबर है। गायत्री मंत्र में हम ऐसी ही बुद्घि की प्रार्थना परमपिता परमात्मा से करते हैं जो हमें अज्ञान अंधकार से दूर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जा सके। वेद का हमें आदेश और उपदेश है कि—
यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।
तथा मामद्य मेधयाग्ने मेंधाविनं कुरू।
अर्थात जिस मेधा की उपासना हमारे पितर लोग करते चले गये उसी मेधा को आप हमें प्रदान करें, और हमें मेधावी बनायें।
मेधा से ही हमारे जीवन में विनम्रता और सौम्यता आती है। हम जीवन की सच्चाईयों को समझ सकते हैं। मेधा संपन्न व्यक्ति ही दोषों का प्रक्षालन कर सकता है, दोषों पर दृष्टिï पात कर सकता है, अपने दोषों को स्वीकार कर सकता है और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति से बच सकता है। ये सारे गुण सिंह की भांति चलते-2 भी पीछे को देखने की (सिंहावलोकन) प्रवृत्ति को बताते हैं ऐसे गुण सच्चे तीर्थ स्नानी प्रभु प्रेमी और दिव्य मेधा संपन्न व्यक्ति में ही मिलते हैं। बीमार हो जाओ तो देखो कि मेरा दोष क्या था? मैंने कहां क्या गलत खाया पिया या कहां आया गया, और संकट में फंसों तो भी देखो कि मेरा दोष क्या था, जो ये संकट आया? सच्चे हृदय से सरस्वती के हृदय मंदिर में दोषों की स्वीकाराक्ति करो और प्रभु कृपा के पात्र बनो।
इडा गंगेति विज्ञेया पिंगला यमुना नदी।
मध्ये सरस्वती विद्यात्प्रयागादि समस्तया।। (शिवस्व 374)
अर्थात इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाडिय़ां ही गंगा यमुना सरस्वती इन नामों से जानी जाती है। मनुष्य के शरीर में 72 हजार नाडिय़ां हैं, इनमें इडा पिंगला और सुषुम्ना तीन महत्वपूर्ण हैं। इडा पिंगला शरीर की समावस्था बनाये रखने के लिए सक्रिय रहती है। इडा पिंगला के सुव्यवस्थित कार्यों से सुषुम्ना जागृत (जिसे नाड़ी जागरण कहा जाता है) होती है। इडा पिंगला तो नासिका के चंद्रस्वर (बांयी नासिका द्वार) व सूर्यस्वर (दांया नासिका द्वार) हैं, जो दीखते हैं। योगी प्राणायाम के माध्यम से इनमें स्नान करता है पर जब अभ्यास बढ़ जाता है तो शनै शनै सुषुम्णा जागृत होने लगती है और हमारा शरीर नीरोगता का अनुभव करता है। यही वास्तविक सरस्वती नदी है जो अदृश्य रहती है पर जब योगी इसके दर्शन कर लेता है-ज्ञान गंगा में डुबकी लगाने का अभ्यासी हो जाता है तो उसका जीवन ही धन्य हो उठता है। इसी को अंत: सलिता कहा गया है। यही वह सरिता है जो हमारे जीवन को उन्नत शील और ऊध्र्वगामी बनाती है।
अब देखें कि हमारे लिए भौतिक संगम का स्नान उचित है या आध्यात्मिक और आंतरिक संगम का स्नान उचित है? कल्याण किससे होगा पाठक स्वयं निर्णय करें।

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