आज हम तबलीग पर अंगुली उठा रहे हैं। परंतु आत्मावलोकन नहीं करते। तबलीग का काम पिछले 100 सालों से चल रहा है परंतु शुद्धि के नायक स्वामी श्रद्धानंद को भुला दिया गया। यदि हमने शुद्धि आन्दोलन को जारी रखा होता तो तबलीग का प्रभाव इतना अधिक नहीं होता।
श्री एम0 मुजीब ने अपनी पुस्तक ‘दी इंडियन मुस्लिम’ में कई उदाहरण देते हुये किया है और विस्तार से बताया है कि धर्म बदलने के बाबजूद मुसलमानों ने अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों में हिंदू तहजीब को अपनाये रखा।
‘करनाल में 1865 तक बहुत से मुस्लिम किसान अपने पुराने गांवों के देवताओं की पूजा करते थे और साथ ही मुसलमान होने के कारण कलमा भी पढ़ते थे। इसी तरह अलवर और भरतपुर के मेव और मीना मुसलमान तो हो गये थे पर उनके नाम पूर्णरुपेण हिंदू होते थे और अपने नाम के साथ वो खान लगाते थे। ये लोग दीपावली, दुर्गापूजा, जन्माष्टमी तो मनाते ही थे साथ ही कुएं की खुदाई के वक्त एक चबूतरे पर हनुमान की पूजा करते थे। मेव भी हिंदुओं की तरह अपने गोत्र में शादी नहीं करते। मीना जाति वाले मुस्लिम भैरो (शिव) तथा हनुमान की पूजा करते थे और (क्षत्रिय हिंदुओं की तरह) कटार से शपथ लेते थे।
बूंदी राज्य में रहने वाले परिहार (शायद वास्तविक शब्द परमार है) मीना गाय गोश्त से परहेज करते थे। रतलाम से लगभग 50 मील दूर जाओरा क्षेत्र में कृषक मुसलमान शादी के समय हिंदू रीति-रिवाज को मानतें है।
स्वामी श्रद्धानन्द अपनी पुस्तक हिन्दू संगठन (1924) में लिखते हैं- राजपूताना (आज का राजस्थान) से कुछ युवक मेरे पास आए और मुझे सन्यासी समझ कर प्रणाम किया। मैंने उन्हें हिन्दू समझा। उन्होंने अपने सिर पर टोपी उतार कर चोटी भी दिखाई। मैंने उन्हें शुद्धि की आवश्यकता के बारे में बताया, तभी कोई आया और उसने मुझे बताया कि ये युवक मुस्लिम हैं। उसके बाद मैंने सोचा इनकी कैसी शुद्धि? इन्होने तो अत्यन्त कठिन परिस्थिति में भी अपना धर्म नहीं छोड़ा। प्रायश्चित तो हिन्दू समाज को करना चाहिए उन्होंने अपने भाइयों को अलग कर दिया।
हिंदुओं को मुस्लिम बनाना इतना आसान भी नहीं रहा। कुछ उदाहरण उस समय के मुस्लिम इतिहासकारों की पुस्तकों से। (पृष्ठ संख्या इंग्लिश संस्करण की है)
अलाउद्दीन (1296-1315) ने अपने कर्मचारियों को ऐसे कानून बनाने के आदेश दिए, जिसके द्वारा लोगों की सुख-समृद्धि छीन कर उन्हें नियंत्रित किया जा सके (जियाउद्दीन बर्नी, तारीख-ए-फिरोजशाही, पृ० 289-291)I
दूसरे मुस्लिम सुल्तानों की भी यही नीति रही। गयासुद्दीन तुगलक ने आदेश दिया कि हिन्दुओं के पास इतना ही रहने दिया जाए कि जिससे वे अपनी समृद्धि के कारण उद्धत न बन सकें तथा दूसरी ओर वे निराश होकर अपनी भूमि छोड़ कर भी न चले जाएं’ (जियाउद्दीन बर्नी, ‘तारीख ए-फिरोजशाही’, पृ० 433)।
मई, 1236 में इल्तमश की मृत्यु के बाद चौहानों ने रणथम्बोर पर आधिपत्य जमा लिया और खरकपाड़ी या खोखरों के साथ सन्धि कर ली। उनके सरदार जैत्र सिंह ने मालवा, गुजरात तथा मारवाड़ के शासकों के अतिरिक्त तुर्कों के परास्त होने की घोषणा की। जैत्र सिंह के पुत्र हम्मीर ने समस्त राजपूताना पर अपना अधिकार जमा लिया। मेवात के लोगों ने चौहानों का साथ दिया। मेवात के जादों भट्टी राजपूतों ने तर्कों से लुक-छिप कर युद्ध किया। उनके सरदार मल्का ने हांसी पर एक भीषण हमला किया तथा वहां से पशु ले गया, जो उन्होंने रणथम्बोर तक वितरित कर दिए। (‘तब-कत-ए-नासिरी’, पृ० 313)।
परंतु वर्षों तक ये लोग कोशिश करते रहे कि किसी तरह सनातन परिवार इन्हे अपना ले। हमारा नजरिया क्या रहा–
दक्षिण भारत – भयंकर हिन्दू मुस्लिम दंगा हुआ। अनेकों हिन्दुओं को जबरदस्ती मुस्लिम बनाया गया। दंगा शांत होने के बाद उत्तर भारत से लोग गए।
उनमे 2 मुख्य थे-
1- करपात्री जी महाराज 2- प्रिंसिपल लक्ष्मी जी (स्वामी विद्यानन्द जी)
करपात्री जी ने कहा- जिसे मुस्लिम बना लिया गया है यदि वह हिन्दू बनना चाहता है तो उसे एक पाव गाय का गोबर खाना पड़ेगा (यह जानकारी उस समय की मैगजीन में भी छपी थी)।
प्रिंसिपल लक्ष्मी जी आर्य समाज से थे। उन्होंने कहा- जो अपने को हिन्दू मानता है वह हिन्दू है। उसे कोई प्रायश्चित की जरूरत नहीं है।
आपको पता चल गया होगा कि हिन्दू समाज में से केवल बाहर जाने का रास्ता था। अंदर आने के रास्ते पर मतान्ध धर्म गुरुओं ने ऊँची दीवार खड़ी कर रखी थी। महर्षि ने अपने तपोबल से इस दीवार को तोड़ दिया।
मुख्य संपादक, उगता भारत