Categories
इतिहास के पन्नों से

सोमनाथ मंदिर की रक्षा के लिए किए गए बलिदानियों के बलिदान दिवस पर विशेष

8 जनवरी 1026 का है दिवस जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया था , आज हमें अनायास ही याद हो आया । इस पोस्ट का लिखने का अभिप्राय महमूद गजनवी के आक्रमण को महिमामंडित करना नहीं है , अपितु उसके आक्रमण के समय हमारे देश के वीरों के द्वारा सोमनाथ मंदिर की रक्षा के लिए दिए गए बलिदानों को स्मरण करना है । इतिहास को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है कि आज ही के दिन सोमनाथ के मंदिर को तोड़ा था महमूद गजनवी ने और ऐसे भी पढ़ा जा सकता है कि अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए आज ही के दिन भारत वासियों ने दिए थे हजारों की संख्या में बलिदान। मेरे विचार से इतिहास को दूसरे ढंग से पढ़ने में ही लाभ है।
सोमनाथ मंदिर की लूट को गजनवी के पक्ष में इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे उसके जाते ही पाला उसी के पक्ष में हो गया था। वास्तव में ऐसा नही था। वह अपने उद्देश्य -लूट में अवश्य सफल हुआ था परंतु भारतीयों से बहुत बड़े संघर्ष के पश्चात उसे यह सफलता मिली थी। उसकी सफलता से गीत गाने से पूर्व इतिहास की उस मौन किंतु रोमांचकारी साक्षी पर विचार करना चाहिए जो केवल भारतीयों के बलिदान और देशभक्ति का परचम लहरा रही है। यद्यपि उस समय कुछ ‘जयचंद’ भी सामने आए परंतु यहां उल्लेख ‘जयचंद’ के कुकृत्यों पर दुख व्यक्त करने का या अपने भीतर आयी किसी अकर्मण्यता पर पश्चात्ताप करने का नही है, यहां बलिदान और देशभक्ति के भावों को श्रद्घांजलि देने का है। संपूर्ण इतिहास को ही भारत के बलिदानों का और लोगों की देशभक्ति का स्मारक बनाकर प्रस्तुत करने का है।

इतिहास का प्रमाण है कि 12 अक्टूबर 1025 को महमूद सोमनाथ की लूट के लिए स्वदेश से निकला था और 1026 की जनवरी की 8 तारीख को वह सोमनाथ शहर में पहुंचा था। उसका उद्देश्य पूरे देशवासियों ने समझ लिया था। इसलिए उसने जैसे ही भारत की सीमाओं में प्रवेश किया लोगों ने उसका प्रतिरोध और विरोध प्रारंभ कर दिया। जिस यात्रा को वह अधिकतम 15 दिन में पूर्ण कर सकता था उसे पूर्ण करने में उसे तीन माह लगे। यह देरी भारतीयों के प्रतिरोध और विरोध के कारण ही हुई थी। प्रतिरोध और विरोध की यह भावना बता रही थी कि भारत की आत्मा कितनी सजग थी, कितनी सावधान थी और उसका धर्म कितनी सजगता से देश की अस्मिता का रक्षक बना खड़ा था?

मुल्तान हो चाहे अजमेर हो और चाहे अन्हिलवाड़ पाटन (गुजरात की राजधानी अन्हिल वाडा) या फिर बीच के ग्रामीण क्षेत्र, सभी ने राष्ट्रवेदी पर अपनी ओर से कहीं सशस्त्र तो कहीं मौन आहुति देने का साज सजाया।
मंदिर में दो सौ मन सोने की एक जंजीर थी। मंदिर के प्रांगण में स्थित पाषाण स्तंभ भी स्वर्णावेष्टिïत थे। 3000 ऊंटों पर व हजारों घोड़ों और हाथियों पर मंदिर का खजाना लादकर ले जाया गया था।
उस समय के लिए कहा जाता है कि सारे राजस्थान के राजपूत राजाओं ने वापस लौटते महमूद को घेरने की योजना बनाई थी, लेकिन उसने मार्ग परिवर्तन कर लिया और दूसरी ओर से निकल गया। तब रास्ते में उसे जाटों ने मुलतान में घेरने का प्रयास किया था, लेकिन वह जाटों से भी बच गया था। गजनवी पहुंचकर वह मुलतान के जाटों से प्रतिशोध लेने पुन: आया। जाटों को बड़ी यातनाएं दी गयीं और उनकी पत्नियों को मुस्लिम लुटेरे अपने साथ ले गये।
अजमेर का राजा महमूद की सेना के डर से भाग गया तो प्रजा ने अपनी मौन आहुति के लिए स्वयं को आगे कर दिया। यज्ञ में मौन आहुति का बड़ा महत्व होता है। यज्ञ का ब्रहमा हमें बताता है कि मौन आहुति के समय अपने इष्ट देव प्रजापति ईश्वर का ध्यान अपने हृदय में करो। भारत में जब जब राष्ट्रदेव के लिए मौन आहुति देने का समय आया तो लोगों ने अपने इष्ट देव -राष्ट्रदेव का ध्यान किया और अपनी आहुति दे दी। इतिहास का यह रोमांच केवल और केवल भारत में ही देखने को मिलता है।

संग्राम के वो चार दिन

1026ई. की जनवरी के दूसरे सप्ताह के बृहस्पतिवार को महमूद सोमनाथ शहर में प्रविष्ट हुआ। इसके पश्चात मंदिर के भक्तों ने बिना किसी राजा या नायक की प्रतीक्षा किये तीन दिन और तीन रात तक महमूद की सेना का सफलता पूर्वक सामना किया और उसके विशाल सैन्य दल को मंदिर में भीतर नही घुसने दिया। यदि उन मुट्ठी भर लोगों को किसी राजा की सेना की सहायता मिल गयी होती तो परिणाम दूसरा ही आता। किंतु धन्य है मां भारती का वैभव और उसकी कोख कि क्षेत्रीय जनता ने फिर बिना किसी नेता या नायक की प्रतीक्षा किये अपनी आत्मोसर्गी सेना का निर्माण किया और चल दी मंदिर की सुरक्षा के लिए।

रविवार के दिन महमूद को जब इस हिंदू सेना का पता चला कि पीछे से कोई और सेना भी आ रही है तो उसके होश उड़ गये थे। उसने आनन फानन में निर्णय लिया और अपने कुछ सैनिकों को मंदिर पर जारी युद्घ के लिए छोड़ बाहरी सेना के प्रतिरोध के लिए वह अपनी सेना के बड़े भाग के साथ शहर के बाहर आ गया। दोनों सेनाओं में जमकर संघर्ष हुआ।

महमूद के पांव उखाड़ दिये थे बिना नेता की भारतीय राष्ट्रीय सेना ने। तब उसने करो या मरो का आह्वान अपने सैनिकों से किया। राष्ट्रीय सेना ने अपना संपूर्ण बलिदान दिया। जीत महमूद की हुई। लेकिन हमारे पचास हजार बलिदानों के पश्चात। उन बलिदानों का स्मारक सोमनाथ के मंदिर के जीर्णोद्घार के बाद कहीं नही बना। आखिर क्यों?

हमने क्या किया? हमने बिना नेता के युद्घ करने के अपनी जनता के अदभुत शौर्य को शासकों के चाटुकार इतिहासकारों की दृष्टि से देखा और उनके शौर्य पर मात्र ‘कुछ उपद्रवकारी’ होने का ठप्पा लगाकर आगे बढ़ गये। हमने स्मारकों को न तो पूछा कि बताओ तुम्हारी कहानी क्या है, और ना उन्हें पूजा।

शौर्य को भी हमने उपेक्षित कर दिया इससे अधिक कृतघ्नता और क्या हो सकती है? संग्राम के उन चार दिनों को हमने इतना उपेक्षित किया कि आज का हर इतिहासकार सोमनाथ के मंदिर की लूट को और महमूद की उस पर विजय को बस चुटकियों का खेल बता देता है। जबकि ढाई माह का संघर्ष था वह और उसमें भी अंतिम चार दिन तो अत्यंत रोमांचकारी थे। हमने अपने ही रोमांच के स्मारक पर न तो फूल चढ़ाए और ना ही दीप जलाए।

यह राष्ट्र के साथ छल नही तो और क्या है? वैसे वास्तव में भारत के इतिहास को स्वतंत्रता और परतंत्रता के दीये और अंधकार के संघर्ष का काल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी?

आज हम अपने उन 50,000 बलिदानियों को उनके बलिदान दिवस पर अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिन्होंने देश धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version