ईसाइयत की मार झेलते हुए झारखंड ने अपना निर्णय दे दिया है । देश के कई लोगों के लिए यह खुशी का विषय है कि फिर वही लोग सत्ता में आ गए हैं जिनके कारण ईसाईकरण की प्रक्रिया इस देश में बलवती हुई । हमने उस विचार और विचारधारा को झारखंड में ठुकरा दिया है जो इस देश के धर्म व संस्कृति के प्रति समर्पित होकर कार्य करने की बात कर रही थी। हमें निहित स्वार्थ अच्छे लगे और राष्ट्रीय हितों को हमने लात मार दी है । इसमें बीजेपी का अहंकार कांग्रेस का तुष्टिकरण का खेल और झामुमो की क्षेत्रीय राजनीति जैसे कुछ प्रमुख कारण रहे हैं ।
हमें चुनाव परिणामों पर अधिक कुछ नहीं कहना पर आज एक बात को समझने की आवश्यकता है कि ईसाई लोगों ने भारत में इसे लूटने और यहां पर अपना राज्य स्थापित करने के लिए भारत में प्रवेश किया था। सबसे पहले पुर्तगाल से भारत पहुंचे वास्कोडिगामा को वहां के राजा ने भारत केवल इसीलिए भेजा था कि वहां जाओ और ईसाइयत का प्रचार-प्रसार करो । यह भी एक संयोग ही है कि 24 दिसंबर जो कि वास्कोडिगामा का मरण दिवस है , उसी दिन झारखंड की जनता ने कांग्रेस और झामुमो को सत्ता सौंप कर वास्कोडिगामा को पुनः जीवित कर लिया है ।
भारत में ऐसे अनेकों लोग हैं जो वास्कोडिगामा का गुणगान करते हैं और यह मानते हैं कि उसने भारत को यूरोप से जोड़ा अर्थात यूरोप से भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग उसने खोजा । जबकि यह सफेद झूठ है । भारत के गुजरात प्रांत का एक हमारा साहसी भारतीय व्यापारी इससे पहले यूरोप के लिए समुद्री मार्ग की खोज कर चुका था । परंतु हम अपनों को भूल कर दूसरों का गुणगान करने में अपनी शान समझते हैं ।
वास्कोडिगामा पहला यूरोपीय था जो 1498 में चोरी से भारत में प्रवेश पाने में सफल हो गया था । 1505 ई. से उसने गोवा में छल-कपट मारकाट और हिंसा के बल पर भारत में ईसाईकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ की। पुर्तगाली गोवा को ‘पूरब का रोम’ बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने भारत में धर्मांतरण की प्रक्रिया आरंभ की और यहां के अनेकों हिंदू मंदिरों को तोड़कर अपने गिरजाघरों की स्थापना करने का क्रम आरंभ किया ।रिचर्ड बर्टन ने लिखा कि, ‘सोने का गोवा शीघ्र ही भूतों का शहर बन गया।’ गोवा को भूतों का शहर बनाने वाला वास्कोडिगामा आज हमारे लिए कितना पूजनीय हो गया है ? – इसका पता हमें गोवा में जाकर ही चलता है । जहां उसके नाम के अनेकों गिरजाघर और चर्च उसका गुणगान करते मिलते हैं। वास्कोडिगामा के पश्चात सेंट जेवियर 1524 में भारत पहुंचा । उसने इस क्रम को जारी रखा और क्रूर यातनाओं के साथ हमारे कितने ही हिंदुओं का धर्मांतरण कराया या उनकी हत्या कर दी गई । आज उसी सेंट जेवियर के नाम के अनेकों स्कूल भारत में चल रहे हैं , जिनमें अपने बच्चों को पढ़ाकर हम अपनी शान समझते हैं।
जब 1760 के करीब बंगाल में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित हो गया तो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भी धर्मांतरण की इस प्रक्रिया को पूर्ण पाशविक अत्याचारों के साथ जारी रखा गया । 1813 ई. में कोलकाता में पहला बिशप टी.एफ. मिडिलटन भारत पहुंचा। इन मिशनरियों को सरकारी संरक्षण मिला। 1857 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अध्यक्ष आ.टी. मैंगल्ज ने कहा- ‘परमात्मा ने हिन्दुस्थान का विशाल साम्राज्य इंग्लैण्ड को इसलिए सौंपा ताकि हिन्दुस्थान में एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह की विजयी झण्डा फहराने लगे।’
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में ईसाइयत का प्रवेश भारत और भारतीयता को मिटाने के लिए हुआ। जिन्हें करुणा , दया और न्याय का प्रतीक मानकर आज भी कई लोग भारत में प्रशंसित करते हैं।
इन विदेशी अत्याचारी लोगों का भंडाफोड़ करने का काम सर्वप्रथम महर्षि दयानंद ने आरंभ किया । उनके साथ – साथ रामसिंह कूका , लाला हरदयाल , महर्षि अरविंद और अन्य कितने ही क्रांतिकारी और समाज सुधारक मैदान में कूद पड़े । सचमुच इन लोगों का हमारे ऊपर भारी उपकार है जिनके कारण आज हमारी पहचान बची हुई है।
बीसवीं सदी में लोकमान्य तिलक, डा. अम्बेडकर तथा महात्मा गांधी ने भी विदेशी पादरियों के भारत आगमन तथा मतान्तरण का कड़ा प्रतिरोध किया। गांधीजी भी छल-कपट से या लालच देकर अथवा जबरदस्ती मतान्तरण के कट्टर विरोधी थे। 1931 ई. में वे एक बार रोम के पोप से भी मिलने गए थे। परन्तु भारतीय पादरियों के कहने पर पोप ने महात्मा गांधी से तब मिलने से इनकार कर दिया था। गांधी जी ने एक बार लिखा, ‘5000 विदेशी फादर (पादरी) प्रतिवर्ष 20 करोड़ रुपया भारत के हिन्दुओं के मतान्तरण पर खर्च करते हैं। अब विश्वभर के 30,000 कैथोलिक आगामी नवम्बर, (1937) में मुम्बई में इकट्ठे होंगे। जिनका लक्ष्य अधिक से अधिक भारतीयों पर विजय पाना हैं’। ( हरिजन, 6 मार्च 1937) गांधी जी ने इसाईयत को ‘बीफ एण्ड बीयर बाटल्स क्रिश्चयनिटी’ कहा।
भारत का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि स्वतंत्रता के उपरांत महात्मा गांधी की कांग्रेस ने गांधी के इस विचार की हत्या कर दी और यहां पर नेहरू और इंदिरा के नेतृत्व में जिस भारत का निर्माण किया गया उसमें सेकुलरिज्म के नाम पर ईसाइयों को अपने मजहब के प्रचार प्रसार की पूरी छूट दे दी गई । सारी सीमाएं उस समय लांघ दी गई जब इंदिरा गांधी की पुत्रवधू और वर्तमान में कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ईसाइयों के द्वारा धर्मांतरण की प्रक्रिया को और भी बलवती कर दिया।
विश्व से ईसाई मिशनरियों तथा संगठनों द्वारा छल-कपट, प्रलोभन तथा जबरदस्ती मतान्तरण की सचाई को सरकार द्वारा 14 अप्रैल, 1955 को गठित डा. भवानी शंकर नियोगी आयोग ने भी स्पष्ट किया। इस आयोग में सात सदस्य थे, जिनमें एक ईसाई सदस्य भी था। 1956 ई. में इस आयोग ने 1500 पृष्ठों की विस्तृत रपट प्रस्तुत की थी। आयोग ने म.प्र. के 26 जिलों के 700 गांवों के लोगों से साक्षात्कार किया। आयोग ने मतान्तरण के अनेक भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों का भण्डाभोड़ किया। मतान्तरण की सबसे प्रेरक शक्ति विदेश धन बतलाया, जिसका छोटा सा अंश ही भारतीय स्रोतों से प्राप्त होता है। आयोग ने अनेक सुझाव दिए। आयोग ने कहा कि ईसाइयों ने न केवल अलगाव बढ़ाया बल्कि स्वतंत्र राज्य की मांग भी इसके पीछे दिखलाई पड़ती है।
महात्मा गांधी के राजनीतिक शिष्य और भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू के ही काल में 1963 में कन्याकुमारी में स्थित स्वामी विवेकानन्द स्मारक की पट्टियों को भी उखाड़ फेंका था । इस सारे घटनाक्रम की अनदेखी करते हुए नेहरू ने नवम्बर, 1964 में मुम्बई में 38वें यूक्राईटिक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर तत्कालीन पॉप का भव्य स्वागत करते हुए अपने सरकार के सेकुलर लिस्ट होने का उन्हें प्रमाण दिया था ।
उस समय पोप के साथ भारत का ईसायीकरण करने के उद्देश्य से उनके साथ 25,000 विदेशी पादरी भी विभिन्न देशों से भारत आए। मुम्बई के पत्र ‘विल्ट्ज’ ने इस सरकारी स्वागत का विस्तृत वर्णन किया है। ( 12 दिसम्बर, 1964 का पत्र।) इसी पोप ने अपनी धार्मिक कट्टरता का परिचय देते हुए पं. नेहरू की पुस्तक गिल्म्सेज आफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ को केरल को पाठयक्रम से हटवा दिया था। उस समय पोप ने भारत के शासन की सेकुलरिज्म की नीतियों का मखौल उड़ाते हुए स्पष्ट घोषणा की थी कि ‘विश्व में केवल एक ही धर्म सच्चा है, और वह है ईसाईयत।’ पोप के इस वाक्य को पकड़कर ‘क्रिश्चियन अवैक’ नामक पत्रिका ने तब लिखा था , ‘जब ईसाइयत तथा देश की वफादारी में टकराव हो तो निश्चय ही सच्चे ईसाई को ईसा की आज्ञा माननी चाहिए। (15 फरवरी, 1965 का विल्ट्ज।)
यही पोप जॉन पॉल द्वितीय दूसरी बार नवम्बर, 1999 में भारत आए तो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में भारत में ईसाईकरण का अपना एजेण्डा घोषित किया, ‘हम ईसा की पहली सहस्राब्दी में यूरोपीय महाद्वीप को चर्च की गोद में लाये, दूसरी सहस्राब्दी में उत्तर और दक्षिण महाद्वीपों व अफ्रीका में चर्च का वर्चस्व स्थापित किया, अब तीसरी सहस्राब्दी में भारत सहित एशिया महाद्वीप की बारी है। ‘
इसके पश्चात इंडियन इवेंजिलिकल टीम (दिल्ली) ने 2000 तक भारत में 2000 नए चर्च बनाने का लक्ष्य रखा। उसने अगले 300 वर्षों में भारत के एक ईसाई राष्ट्र बनाने का भी उद्देश्य रखा। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ईसाई मिशनरियों की इस योजना को फलवती और बलवती करने के लिए अपनी ओर से सारी सुविधाएं दे रहे हैं , क्योंकि वह स्वयं भी ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके हैं । झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा वास्कोडिगामा के काम को आगे बढ़ाने के लिए कुख्यात रहा है । अब उसी झारखंड मुक्ति मोर्चा के हाथों में झारखंड की जनता ने अपना 5 साल का भविष्य सौंप दिया है – – – अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ?
सचमुच समय सोने का नहीं है , बल्कि जागते हुए देश , धर्म और संस्कृति की रक्षा के उपायों में जुट जाने का है । सेकुलरिज्म के पक्षाघात से पीड़ित वे लोग भी अब जाग जाएं , जिन्होंने अपनी इस विचारधारा के प्रवाह में बहकर भारत का भारी अहित कर लिया है । देश के शासन नेतृत्व को भी जागना होगा और जागृत रहकर सारे षड़यंत्र का भंडाफोड़ करना होगा ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत