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आज का चिंतन

आज का चिंतन-28/06/2013

केदार देख रहा है
सब सुन रही है गंगा

डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

जो कुछ हाल के दिनों में अकस्मात हो गया, नहीं होना था वह सब हो गया। पहाड़ों से फिसल गए विपदाओं के पहाड़, और गंगा मैया अपना समस्त वात्सल्य, ममता और शालीनता छोड़कर पहाड़ों से रौद्र रूप धारण कर बह चली बस्तियों और मैदानों की ओर।

फिर जो कुछ हुआ, देखा गया और देखने में आ रहा है वह सब वीभत्स और कारुणिक मंजर हर किसी को व्यथित कर देने वाला है। जो प्रत्यक्षदर्शी और साक्षी हैं वे इस हादसे से ऊबर नहीं पाए हैं, जिन्दगी भर के लिए उनके अवचेतन में वे दृश्य ऎसे कैद होकर रह गए हैं कि जाने कितने समय तक बार-बार स्मृति पटल पर उभर कर आते रहेंगे और पीड़ित करते रहेंगे।

इनके परिजनों और क्षेत्रवासियों के लिए भी ये दुःखद स्मृतियां विषाद का माहौल बनाने को काफी हैं। जो लोग उत्तराखण्ड से लौट नहीं पाए हैं उनमें से कितनों को काल ने लील लिया, कितने किस दयनीय अवस्था में हैं और जो लोग वहाँ से लौटने लगे हैं वे भी, और वे भी जो सुरक्षा और सेवा-सुश्रुषा में लगे हैं, सारे के सारे पिछले कई दिनों से एक ऎसी दुनिया में घिर कर रह गए हैं जहाँ जीवन और मौत से लेकर मौत के बाद तक का मंजर छितराया हुआ है,माहौल में जाने कैसी मनहूसियत छा गई है, कैसी चीत्कार और दारुण दुःखों का दरिया बहने लगा है।

इसके साथ ही मानवीय संवेदनाओं के चीरहनन की कई सारी घटनाओं के साथ ही क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं, यानों के आवागमन के साथ ही बयानों की बारिश हो रही है। दावों और वादों के बादल पूरी ताकत के साथ फट रहे हैं। कभी कोई बयान आता है, कभी कहीं और से दूसरा बयान। बयानों के बादलों का फटना लगातार जारी है।

आपदा के मौसम की मार के बीच तरह-तरह के लोग अपने उल्लू सीधे करने लगे हैं। जात-जात के कूटनीतिज्ञों और महान लोगों द्वारा श्रेय पाने के लिए जाने क्या-क्या जतन नहीं किए जा रहे हैं। हालांकि यह समय मौत के मुंह से देशवासियों को बचाने, बचे हुए लोगों को स्वस्थ जिन्दगी और अपने-अपने क्षेत्रों में पहुंचने के लिए साधन-सुविधाएं मुहैया कराने और पर्वतों के बीच आम जिन्दगी को बहाल करने के लिए सारी ताकत झोंक देने का है।

जो ज़ज़्बा  हमारी सेना और उसके अंग दिखा रहे हैं उसी तरह का जज्बा उन सभी लोगों को दिखाना चाहिए जो लोग उत्तराखण्ड की बातें कर रहे हैं या उत्तराखण्ड आते-जाते रहे हैं अथवा उत्तराखण्ड में इन दिनों किसी न किसी काम से लगे हुए हैं।

मानवीय संवेदनाओं को आकार देने और मनुष्य के लिए मनुष्य द्वारा किए जाने वाले सेवा कार्यों के लिए चरम शिखर बनी इस आपदा ने हर इंसान को चेतना दिया है।  यह साफ कर दिया है कि आदमी को आदमी की तरह जीना चाहिए और आदमी के लिए काम करना चाहिए। साथ ही उस प्रकृति के लिए जीने का माद्दा दिखाना होगा जिसके आँगन में हम पल रहे हैं, अठखेलियां कर रहे हैं और दैवभूमि में रहने का गौरव पा रहे हैं।

इतनी विराट और अनंत विनाश कर देने में समर्थ आपदा को महाप्रलय ही कहा जाना चाहिए लेकिन इस प्रलय के बाद हम इससे निपटने के लिए कितने कारगर हो पाए हैं, इस बारे में किसी को कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है,सारा सच हमारे सामने है।

दूसरी तरह इस महाविनाशलीला के बाद अचानक संहार मुद्रा में आ गया केदार और पूरा उत्तराखण्ड सब कुछ देख रहा है, चुपचाप वह उन सारे नज़ारों को देख रहा है जो दिखने नहीं चाहिए थे। पतितपावनी माँ गंगा अपनी सारी मर्यादाओं को तोड़कर जिस कदर रौद्ररूप में आ गई है वह भी सारी हलचलों को सुन रही है। न केदार से कुछ छिपा हुआ है, न गंगा से।

दैवभूमि की वादियों में शिव के गणों की कोई कमी नहीं है। हम जो कुछ कह रहे हैं, जिस तरह काम कर रहे हैं, जिस नीयत से काम कर रहे हैं और जिस लक्ष्य को सामने रखकर काम कर रहे हैं, वह सब कुछ इन सभी से कुछ छिपा हुआ नहीं है।

इंसानों की हर हरकत को भाँपने में माहिर केदार और माँ गंगा ने जाने कितने समय से अपने दर्द को ममत्व और आत्मीयता के आवरण में छिपा रखा होगा और किस वेदना के साथ अब तक सब कुछ समेट रखा होगा।  तभी वह क्षण आ पहुंचा जब सारे तटबंधों को तोड़कर गंगा विकराल रूप में पहाड़ों से नीचे उतर आयी और केदार के इशारों पर पूरा का पूरा उत्तराखण्ड अपने पहाड़ों को फिसलाने लगा।

आखिर ये सारी आपदाएं क्यों आ रही हैं? प्रकृति की बेरहमी के आगे इंसान विवश क्यों हो गया है?  क्यों आखिर दैव भूमि अचानक संहार भूमि और श्मशान में बदल गई और सब कुछ साफ हो गया जिसकी बदौलत हम सदियों से भगवान तक पहुँचने का रास्ता बना चुके थे। इतना बड़ा प्रलय सब कुछ बहा ले गया। जिंदगियों को लील गया और जमीन खिसकती चली गई।

इसके बावजूद हम हममें से कितने सारे लोग इतने संवेदनहीन बने हुए हैं कि हमारी मोटी खाल पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। हममें से कई ऎसे हैं जिन्हें इस गमगीन माहौल में उन सारी हरकतों पर शर्म आनी चाहिए जो इंसानियत को शर्मसार करने वाली हैं।

हम से तो वे मूक पशु अच्छे हैं जो ऎसे गमगीन माहौल में शोक व्यक्त करते हुए गम और दुःख के बोझ के मारे दबे रहते हैं और एक हम हैं कि हम इस मामले में पशुओं से भी कुछ नहीं सीख पाए हैं।  कोई कुछ भी कहे, कोई कुछ भी करे, और किसी भी नीयत से कहे, कहता रहे…….केदार और गंगा अब हमें सहने वाले नहीं हैं। गंगा उतर आयी है ऊपर से, और अब वह हमारे ज्यादा करीब आने लगी है। इसका अर्थ हम सभी को समझ लेना होगा।

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