लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो गया तो कुछ बरसाती मेंढक बाहर आकर टर्राने लगे हैं। इन मेंढकों की टर्राहट गृहमंत्री अमितशाह के उस बयान को लेकर अधिक है जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत का धर्म के आधार पर यदि विभाजन नहीं होता तो आज उन्हें इस विधेयक को लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
संसद के बाहर लालकृष्ण आडवाणी के निकट माने जाने वाले सुधींद्र कुलकर्णी ने इस विधेयक का विरोध किया है । उन्होंने ट्वीट करके कहा है – ‘संसद के इतिहास में शायद ही कभी हमने किसी वरिष्ठ मंत्री को एक काले कानून का बचाव करने के लिए इस प्रकार से सफेद झूठ बोलते देखा हो। ’
वहीं, इतिहासकार एस इरफान हबीब ने ट्वीट करके लिखा, ‘सदन में आप ऐसी बातें उस वक्त करते हैं , जब आप तथ्यों पर आधारित इतिहास को पढ़ने या समझने की जहमत नहीं उठाते।’
एक अंग्रेजी अखबार ने विनायक दामोदर सावरकर के 1923 के लिखे निबंध ‘ हिंदुत्व ‘ का सन्दर्भ देकर बताया है कि सावरकर ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से 17 वर्ष पहले द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात की थी । वहीं, लोकसभा में कॉंग्रेस के मनीष तिवारी ने अमित शाह के उस दावे को अस्वीकार किया, जिसके अनुसार देश के विभाजन के लिए कांग्रेस उत्तरदायी थी। तिवारी ने कहा कि द्विराष्ट्र के सिद्धांत की बात सावरकर ने दी थी।
जब भी द्विराष्ट्रवाद की बात चलती है तो अक्सर हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर का नाम यह कहकर लिया जाता है कि उन्होंने 1923 में ‘ हिंदुत्व ‘ नामक जिस पुस्तक का लेखन किया था , उसमें ही उन्होंने द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात कही थी।
वीर सावरकर पर ऐसा आरोप लगाने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि सावरकर जी ने अपनी इस पुस्तक में राष्ट्रवाद के सिद्धांत की बात तो की है लेकिन उसका समर्थन नहीं किया है। अखंड भारत के उपासक सावरकर जी द्विराष्ट्रवाद के समर्थक कभी नहीं हो सकते थे और न ही उन्होंने इस पुस्तक में धर्म के आधार पर दो राष्ट्र के सिद्धांत के प्रति अपनी सहमति व्यक्त की है।
वास्तव में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान भारत में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के प्रतिपादक थे। मुस्लिम तुष्टीकरण के राग में लगे सुधींद्र कुलकर्णी , मनीष तिवारी और हबीब साहब जैसे लोग सावरकर जी पर तो दिराष्ट्रवाद के सिद्धांत का आरोप लगा देते हैं , पर सर सैयद अहमद खान के बारे में कुछ भी बोलने या उन पर शोध करने से वह पीछे हट जाते हैं। तथ्यों की बात करने वाले इन जैसे लोग सत्य के सामने आते ही उससे मुंह फेर कर खड़े हो जाते हैं ।
यदि सर सैयद अहमद खान के विषय में गंभीरता से सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि उनके विचारों से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ । इतिहास के निष्पक्ष समीक्षकों की यह दृढ़ मान्यता है कि पाकिस्तान का जनक यदि जिन्नाह था तो उसका पितामह सर सैयद अहमद खान थे। उनके द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को ही आगे चलकर इक़बाल और जिन्नाह ने विकसित किया जो पाकिस्तान के निर्माण का सैद्धांतिक आधार बना। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ रमेशचंद्र मजूमदार कहते हैं- “सर सैय्यद अहमद खान ने दो राष्ट्रों के सिद्धांतों का प्रचार किया जो बाद में अलीगढ़ आंदोलन की नींव बना… इसके बाद मुस्लिम अलग राष्ट्र है – इस सिद्धांत को गेंद की तरह इससे ऐसी गति मिलती रही कि उससे पैदा हुई समस्या को पाकिस्तान निर्माण के द्वारा हल किया गया।”
जिन्नाह के जीवनीकार हेक्टर बोलियो लिखते हैं- “वे भारत के पहले मुस्लिम थे , जिन्होंने विभाजन के बारे में बोलने का साहस किया और यह पहचाना कि हिंदू-मुस्लिम एकता असंभव है, उन्हें अलग होना चाहिए।” बाद में जिन्ना की इच्छा के अनुसार जो हुआ उसका पितृत्व सर सैयद का है। पाकिस्तान शासन द्वारा प्रकाशित आज़ादी के आंदोलन के इतिहास में मोइनुल हक कहते हैं- “सच में हिंद पाकिस्तान में मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करने वाले संस्थापकों में से थे वे। उनके द्वारा ही डाली गई नींव पर कायदे आज़म ने इमारत बना कर पूरी की।”
पाकिस्तानी विश्वविद्यालयों में मान्यता प्राप्त “अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ पाकिस्तान” के खंड 4 के नौवें अध्याय में मुस्लिम राष्ट्रवाद का आरंभ बिंदू 1857 के युद्ध में असफलता की प्रतिक्रिया को बताया गया है। मुसलमानों के प्रति ब्रिटिश आक्रोश को कम करने और ब्रिटिश सरकार व मुसलमानों के बीच सहयोग का पुल बनाने के लिए उन्होंने योजनाबद्ध प्रयास आरंभ किया। ब्रिटिश आक्रोश को कम करने के लिए उन्होंने 1858 में “रिसाला अस बाब-ए-बगावत ए हिंद” (भारतीय विद्रोह की कारण मीमांसा) शीर्षक पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने प्रमाणित करने की कोशिश की कि इस क्रांति के लिए मुसलामन नहीं, हिंदू जिम्मेदार थे।
सर सैय्यद भले ही मुस्लिमों में अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्षधर थे , पर मुस्लिम धर्म, इतिहास परंपरा, राज्य और उसके प्रतीकों और भाषा पर उन्हें बहुत अभिमान था। 1867 में अंग्रेज़ सरकार ने हिंदी और देवनागरी के प्रयोग का आदेश जारी किया। सर सैयद इस बात से बहुत बैचेन थे कि अब भारत में इस्लामी राज्य खोने के पश्चात हमारी भाषा भी गई। तब उन्होंने डिफेन्स ऑफ उर्दू सोसायटी की स्थापना की। डॉ इकराम ने कहा है कि आधुनिक मुस्लिम अलगाव का शुभारंभ सर सैय्यद के हिंदी बनाम उर्दू का मुद्दा हाथ में लेने से हुआ।
सर सैयद को अक्सर उदारवादी और हिंदू मुस्लिम एकता के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 1867से 1887 तक के बीच सर सैय्यद अक्सर कहा करते थे कि हिंदू और मुस्लिम वधू की दो आँखों की तरह है। पहले वे हिंदू और मुस्लिमों को दो कौमें बताते थे तो उसका अर्थ होता था दो समाज। परन्तु 1887 से कौम शब्द का उपयोग राष्ट्र के संदर्भ में करने लगे थे। खुलकर द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में बोलने लगे थे।
उन्होंने 28 दिसंबर 1887 को लखनऊ में और 14 मार्च 1888 को मेरठ में जो लंबे भाषण दिए, उनमें यह मुद्दा उठाया। वास्तव में 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई और दो वर्षों में ही सर सैय्यद के ध्यान में आया कि कांग्रेस हिंदू और मुसलमानों और सभी के लिए धर्मनिरपेक्ष होने के उपरांत भी बहुसंख्यक हिंदुओं की ही संस्था रहने वाली है। इसके द्वारा हिंदू राजनीतिक तौर पर संगठित होंगे। भविष्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था आने पर बहुसंख्यक हिंदुओं को ही लाभ होगा। अपनी इसी सोच के अंतर्गत उन्होंने इसके पश्चात हिंदुओं का खुला विरोध करना आरंभ कर दिया था।
14 मार्च 1888 को मेरठ में दिए गए अपने भड़काऊ भाषण में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हिंदू-मुस्लिम मिलकर इस देश पर शासन नहीं कर सकते । अपने भाषण में उन्होंने कहा- “सबसे पहला प्रश्न यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आनेवाली है ? मान लीजिए, अंग्रेज़ अपनी सेना, तोपें, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोड़कर चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा ? क्या उस स्थिति में यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें ? निश्चित ही नहीं। उसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को जीतें, एक दूसरे को हराएँ । दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धांत व्यवहार में नहीं लाया जा सकेगा।”
उन्होंने आगे कहा- “इसी समय आपको इस बात पर ध्यान में देना चाहिए कि मुसलमान हिंदुओं से कम भले हों मगर वे दुर्बल हैं, ऐसा मत समझिए। उनमें अपने स्थान को टिकाए रखने का सामर्थ्य है। लेकिन समझिए कि नहीं है तो हमारे पठान बंधु पर्वतों और पहाड़ों से निकलकर सरहद से लेकर बंगाल तक खून की नदियाँ बहा देंगे। अंग्रेज़ों के जाने के बाद यहाँ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तब तक इस देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती।”
उन्होंने कहा कि भारत में प्रतिनिधिक सरकार नहीं आ सकती , क्योंकि प्रतिनिधिक शासन के लिए शासक और शासित लोग एक ही समाज के होने चाहिए।”
मुसलमानों को उत्तेजित करते हुए उन्होंने कहा- “जैसे अंग्रेज़ों ने यह देश जीता वैसे ही हमने भी इसे अपने आधीन रखकर गुलाम बनाया हुआ था। …अल्लाह ने अंग्रेज़ों को हमारे शासक के रूप में नियुक्त किया हुआ है। …उनके राज्य को मज़बूत बनाने के लिए जो करना आवश्यक है , उसे ईमानदारी से कीजिए ( अर्थात ऐसे काम करिए कि जिससे अंग्रेज भारत को छोड़ने सकें क्योंकि उनका यहां बने रहना ही मुसलमानों के हित में है ) । …आप यह समझ सकते हैं मगर जिन्होंने इस देश पर कभी शासन किया ही नहीं, जिन्होंने कोई विजय हासिल की ही नहीं, उन्हें (हिंदुओं को) यह बात समझ में नहीं आएगी। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने बहुत से देशों पर राज्य किया है । आपने 700 साल भारत पर राज किया है। अनेक सदियाँ कई देशों को अपने आधीन रखा है। मैं आगे कहना चाहता हूँ कि भविष्य में भी हमें किताबी लोगों की शासित प्रजा बनने के बजाय (अनेकेश्वरवादी) हिंदुओं की प्रजा नहीं बनना है।”
2 दिसंबर 1887 को वह लखनऊ में मुस्लिम समाज के सामने यह बताते हुए स्पष्ट करते हैं कि किस तरह लोकतंत्र निरर्थक है ? वे कहते हैं- “कांग्रेस की दूसरी माँग वाइसरॉय की कार्यकारिणी के सदस्यों को चुनने की है। समझो ऐसा हुआ कि सारे मुस्लिमों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दिए तो हर एक को कितने वोट पड़ेंगे। यह तो तय है कि हिंदुओं की संख्या चार गुना ज़्यादा होने के कारण उनके चार गुना ज़्यादा सदस्य आएँगे, मगर तब मुस्लिमों के हित कैसे सुरक्षित रहेंगे। …अब यह सोचिए कि कुल सदस्यों में आधे सदस्य हिंदू और आधे मुसलमान होंगे और वे स्वतंत्र रूप से अपने अपने सदस्य चुनेंगे। मगर आज हिंदुओं से बराबरी करनेवाला एक भी मुस्लिम नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा- “पल भर सोचें कि आप कौन हैं? आपका राष्ट्र कौन सा है? हम वे लोग हैं जिन्होंने भारत पर छः-सात सदियों तक राज किया है। हमारे हाथ से ही सत्ता अंग्रेज़ों के पास गई। हमारा (मुस्लिम) राष्ट्र उनके खून का बना है जिन्होंने सऊदी अरब ही नहीं, एशिया और यूरोप को अपने पाँवों तले रौंदा है। हमारा राष्ट्र वह है जिसने तलवार से एकधर्मीय भारत को जीता है। मुसलमान अगर सरकार के खिलाफ आंदोलन करें तो वह हिंदुओं के आंदोलन की तरह नरम नहीं होगा। तब आंदोलन के खिलाफ सरकार को सेना बुलानी पड़ेगी, बंदूकें इस्तेमाल करनी पड़ेंगी।जेल भरने के लिए नए कानून बनाने होंगे।”
हमीद दलवई ने उनके बारे में कहा था- “1887 बद्रुदीन तैयबजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। उनसे कुछ मुद्धों पर सर सैयद के मतभेद थे। तब तैयबजी को लिखे पत्र में सर सैयद ने कहा था- “असल में कांग्रेस निशस्त्र गृहयुद्ध खेल रही है। इस गृहयुद्ध का मकसद यह है कि देश का राज्य किसके (हिंदुओंं या मुसलमानों) हाथों में आएगा। हम भी गृहयुद्ध चाहते हैं मगर वह निशस्त्र नहीं होगा। यदि अंग्रेज़ सरकार इस देश के आंतरिक शासन को इस देश के लोगों के हाथों में सौंपना चाहती है तो राज्य सौंपने से पहले एक स्पर्धा परीक्षा होनी चाहिए। जो इस स्पर्धा में विजयी होगा , उसी के हाथों में सत्ता सौंपी जानी चाहिए। लेकिन इस परीक्षा में हमें हमारे पूर्वजों की कलम इस्तेमाल करने देनी चाहिए। यह कलम सार्वभौमत्व की सनदें लिखने वाली असली कलम है (यानी तलवार)। इस परीक्षा में जो विजयी हो, उसे देश का राज दिया जाए।”
सावरकर जैसे महान विचारक और इतिहास की गहरी समझ रखने वाले नेता ने सर सैयद अहमद खान की इस विचारधारा का पहले दिन से विरोध करना आरंभ किया । जबकि कांग्रेस अपनई तुष्टिकरण की नीति के अंतर्गत सर सैयद अहमद खान को शिक्षा क्षेत्र के महारथी और एक उदारवादी महान नेता के रूप में स्थापित करती रही।
अलीगढ़ संस्थान के 1 अप्रैल 1890 के राज-पत्र में सर सैय्यद ने भविष्ययवाणी की थी- “यदि सरकार ने इस देश में जनतांत्रिक सरकार स्थापित की तो इस देश के विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में गृहयुद्ध हुए बिना नहीं रहेगा।” 1893 में एक लेख में उन्होंने धमकी दी थी- “इस राष्ट्र में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं लेकिन इसके बावजूद परंपरा यह है कि जब बहुसंख्यक उन्हें दबाने की कोशिश करते हैं तो वे हाथों में तलवारे ले लेते हैं। यदि ऐसा हुआ तो 1857 से भी भयानक आपत्ति आए बिना नहीं रहेगी।”
सर सैयद अहमद खान की इसी अलगाववादी और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की जनक विचारधारा ने आगे चलकर जिन्नाह का निर्माण किया। जिसने धर्म के आधार पर इस देश का विभाजन करवाया और कांग्रेस ने उसे अपनी सहमति व स्वीकृति प्रदान कर देश के साथ अपघात किया।
सावरकर जी ने सर सैयद अहमद खान और इन जैसे अलगाववादी नेताओं की चालों को बहुत पहले समझ लिया था । वह नहीं चाहते थे कि देश का किसी भी आधार पर बंटवारा हो। इतने स्पष्ट प्रमाणों के होने के उपरांत भी यदि सावरकर जी को भारत विभाजन का दोषी माना जाता है तो मानना पड़ेगा कि इतिहास को पूर्ण सत्यता के साथ लिखने का समय आ गया है। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब चोर बादशाह बन जाएगा और बादशाह चोर बन जाएगा।
वैसे इतिहास के तथ्यों की बात करने वाले लोगों को यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि भारत में द्विराष्ट्रवाद की बात करने वाले सर सैयद अहमद खान जब 1887 में अपने भड़काऊ भाषण दे रहे थे , उस समय सावरकर जी मात्र 4 वर्ष के थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत