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अध्याय — 15
द्वंद्वभाव और बैरागी का संकल्प
प्राचीन काल में हमारे यहां पर एक धौम्य नाम के ऋषि हुए। ऋषि धौम्य के पास बहुत से छात्र विद्याध्ययन हेतु आते थे । आश्रम के पास से बहने वाली एक नदी में वर्षा ऋतु में पानी अक्सर अधिक आ जाता था । उस पर बनाया गया बांध कई स्थानों पर दुर्बल पड़ चुका था । जिसकी उचित देखभाल की बहुत आवश्यकता थी , अन्यथा कुछ भी सम्भव था ।एक बार की घटना है कि वर्षा ऋतु के काल में गुरु जी ने अपने एक शिष्य को भेजकर बांध का ध्यान रखने के लिए कहा । जिससे कि यदि कहीं से बांध टूटे तो आश्रमवासियों को समय से उसकी जानकारी हो जाए । इस शिष्य का नाम आरुणि था ।
शिष्य आरुणि जब बांध पर पहुंचा तो उसने देखा कि बांध एक स्थान से रिसने लगा था और उसका यह रिसाव बढ़ता ही जा रहा था। वह गुरु भक्त आरुणि बांध के रिसाव को देख नहीं पाया । उसने अनुमान लगा लिया कि यह रिसाव ही बांध के टूटने का कारण बन जाएगा और उससे जन – धन की भारी हानि हो सकती है । उसने भरसक प्रयास किया कि टूटते हुए बांध पर मिट्टी डालकर किसी प्रकार उसे रोक दे । पर यह क्या ? – वह जितनी भी मिट्टी डालता था , वह मिट्टी पानी के प्रवाह से बह जाती थी। भरसक प्रयास करने के उपरांत भी पानी रुक नहीं पा रहा था । कटाव बढ़ता ही जा रहा था ।अंत में उसने एक उपाय पर विचार किया कि जहां से पानी बह रहा था , उस स्थान पर वह स्वयं लेट गया। लेटने से पानी का बहना रुक गया और आश्रम भी बहने से बच गया । गुरुजी ने सायंकाल तक आरुणि की प्रतीक्षा की । उसके आश्रम में न पहुंचने पर गुरुजी स्वयं कुछ शिष्यों के साथ उसके पास आ धमके ।
उन्होंने देखा कि आरुणि पानी के रिसाव वाले स्थान पर स्वयं ही पानी को रोकने के उद्देश्य से लेटा हुआ पड़ा था । आरुणि की गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर गुरुजी ने उसे सीने से लगा लिया और उस स्थान पर अन्य शिष्यों के द्वारा मिट्टी आदि डलवा कर बांध को मजबूत कराने के पश्चात अपने शिष्य को सकुशल लेकर आश्रम लौट आए।
भक्ति देख शिष्य की भाव विभोर थे धौम्य ।
सीने से चिपका लिया वीर बनो तुम सौम्य ।।
इस दृष्टान्त में केवल गुरु भक्ति ही नहीं है , अपितु यहां पर गुरु भक्ति के साथ-साथ राष्ट्रभक्ति भी है । राष्ट्रभक्ति के साथ-साथ मानवमात्र के प्रति सहयोग , सेवा , समर्पण , सद्भाव और करुणा का भाव भी है । इन्हीं गुणों के कारण भारत की संस्कृति विश्व में महान कही जाती है। हमारे यहां पर दूसरों की आपदा को देखकर अपने प्राणों की बाजी लगा देना कोई बड़ी बात नहीं है । क्योंकि हम सभी की मान्यता यह रही है कि हमें यह शरीर संसार के कल्याण के लिए मिला है , अपने कल्याण के लिए नहीं । परकल्याण और परमार्थ हमारा राष्ट्रीय संस्कार है । इसी राष्ट्रीय संस्कार के कारण हमने विदेशी आक्रमणकारियों के साथ बड़े-बड़े युद्ध लड़े। बंदा बैरागी भी भारत की संस्कृति के इन्हीं संस्कारों से प्रेरित होकर विदेशी आक्रमणकारियों से या शासकों से अपना युद्ध जारी रखे हुए थे।
बंदा वीर बैरागी के साथ समस्या यह थी कि वह स्वयं राजा नहीं बनना चाहता था । इसके लिए बंदा वीर बैरागी दूसरे लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करता था । वह स्वयं एक संरक्षक , शत्रु विध्वंसक व शत्रु संतापक के रूप में पीछे से काम करना चाहता था। वह अभी भी इस दृष्टिकोण का था कि उसे स्वयं प्रभु भक्ति में लगना चाहिए और दूसरे लोगों को काम करने का अवसर देना चाहिए। कुछ लोगों ने इसके उपरांत भी बंदा वीर बैरागी इस प्रवृत्ति को आलोचना का पात्र बनाया है कि वह राजाओं की भांति रहने लगा था , और राजाओं जैसा ही आचरण भी निष्पादित करने लगा था ।
अपनी योजना को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करने के लिए बंदा वीर बैरागी ने सन 1713 में अमृतसर में एक बड़ा भारी दीवान लगाया । जिसमें उसने अपने सरदारों को जागीरें प्रदान कीं । कई लोगों का महसूल हटा दिया । इसी अवसर पर उसने अमृतसर को पूर्ण स्वाधीनता प्रदान की। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने नई सेना का गठन किया। अच्छे हट्टे कट्टे और देश- धर्म के लिए समर्पित युवाओं को नई सेना में भर्ती करना आरंभ किया । उसकी योजना थी कि भविष्य में कभी फिर मुगलों या मुस्लिम शासकों , सरदारों , सेनापतियों आदि के सामने उसे न तो अपमानित होना पड़े और न ही पराजित होना पड़े। यही कारण रहा कि उसने स्थान – स्थान पर जाकर अपने आप अधिकारी नियुक्त किये । पटियाला , गुरदासपुर और पठानकोट क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित किया । गुरदासपुर में एक दुर्ग बनवाया , जिसमें युद्ध सामग्री और खाद्य पदार्थ भरवा दिए। जिससे कि किसी भी आकस्मिकता के समय उसका सदुपयोग किया जा सके। आनंदपुर जाकर उसने पहाड़ी राज्यों को भी यह संदेश भिजवाया कि उन्हें हिंदू धर्म की रक्षा के लिए एक संगठन तैयार करना चाहिए और उसके साथ मिलकर कार्य करना चाहिए। इसके पश्चात वह स्वयं पर्वतों पर चला गया।
जब – जब बंदा वीर बैरागी मैदानी भागों को छोड़कर पर्वतों पर जाता , तब – तब ही मुसलमानों को हिन्दुओं को दुखी व आतंकित करने का अवसर मिलता था । इससे पता चलता है कि बंदा वीर बैरागी मैदानों को छोड़कर पर्वतों पर जाकर एक भयंकर गलती ही करता था । उसे यदि साधना ही करनी थी तो वह मैदानों में ही कहीं गोपनीय ढंग से अपने इस कार्य को पूर्ण कर सकता था , अर्थात अपनी साधना को जारी रख सकता था । उसके पर्वतों पर बार बार जाते ही मुस्लिम लोगों का मचने वाला उपद्रव उसकी शक्ति को क्षीण करता था , और साथ ही उसका ध्यान भी भंग करता था । इसके पश्चात उसे दुगुने वेग से अपनी शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने और अपने अधिकारियों को फिर से पहले जैसी स्थिति में लाने के लिए शक्ति का अपव्यय करना पड़ता था । इस बार भी उसने यही किया कि अपने सारी प्रशासनिक तंत्र को सुव्यवस्थित कर वह स्वयं पर्वतों पर चला गया । उसके जाते ही मुस्लिम शासकों , सरदारों व अधिकारियों ने फिर वही करना आरंभ कर दिया जिसे वह पहले से करते आए थे अर्थात हिंदुओं को फिर से प्रताड़ित ,उत्पीड़ित और दुखी करना आरंभ कर दिया , उनके अत्याचार फिर बढ़ने लगे।
इसी समय एक बार जम्मू का मुस्लिम शासक जबरदस्त खान दिल्ली जाते हुए लाहौर में रुका । उसने देखा कि वहां पर हिंदू राज्य बड़े अच्छे सुव्यवस्थित ढंग से फूल – फल रहा है। सांप्रदायिक सोच और पूर्वाग्रह से ग्रसित जबरदस्त खां को गुरदासपुर का हिंदू राज्य रुचिकर नहीं लगा । उसने सोचा कि इस राज्य को क्यों न नष्ट कर यहां पर इस्लाम की पताका फहरा दी जाए ? उसने गुरदासपुर को फिर से मुस्लिम रंग में रंगने के लिए उस पर चढ़ाई कर दी । हिंदू वीरों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया और जबरदस्त खान को जबरदस्त पराजय का मजा चखा कर वापस भागने के लिए बाध्य कर दिया । पराजित होकर उसे लौटना पड़ा।
जैसे ही मुंह फेरता दानवता सिर चढ बोलती , धज्जियां उड़ा प्रेम की दुष्टता के द्वार खोलती ।
पौरुष को ललकारती और दुष्ट हंसी बिखेरती ,
तब शत्रुसंतापक वीर की चेतना थी डोलती।।
बैरागी को इस बार फिर पर्वतों से मैदानों में आना पड़ा उसने सूबेदार हमीद खान पर चढ़ाई कर दी । इस युद्ध में सूबेदार हमीद खान ने भी अपनी वीरता का प्रदर्शन किया । भयंकर युद्ध दोनों पक्षों में हुआ। सूबा की तोपों ने सिक्खों को बहुत अधिक आतंकित कर दिया था । जिससे सेना को पर्याप्त हानि उठानी पड़ रही थी। इतने में ही एक नवयुवक केहरसिंह ने देखा कि सूबा नमाज अदा कर रहा है । इतना देखते ही वह नवयुवक शेर की भांति सूबा पर झपटा और उसका सिर काट कर बैरागी के सामने ला रखा । बैरागी को तब तक यह आभास हो चुका था कि उसकी सेना के मनोबल पर सूबा की तोपों का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । अतः जब उसने नरकेसरी बने नवयुवक केहर सिंह के इस वीरतापूर्ण कार्य को देखा तो उसके मुंह से भी अकस्मात यह निकल गया कि – ‘ आज हमको विजय जो प्राप्त हुई है , वह केहरसिंह के कारण ही प्राप्त हुई है ।” इसके पश्चात बैरागी ने गुरदासपुर में अपना निवास कर लिया । जिससे कि यहां के हिंदुओं का मनोबल बढ़ा रहे और आसपास के या गुरदासपुर के मुस्लिम लोग किसी भी प्रकार से हिंदुओं पर कोई अत्याचार करने का साहस न कर सके । यद्यपि उसका यह निवास स्थायी न रह सका । अपने स्वभाव के वशीभूत होकर वह फिर गलती करते हुए समस्त राज्य अपने सरदारों को सौंप कर मंडी के लिए प्रस्थान कर गया । इसके जाते ही मुसलमानों ने फिर अपना आतंक मचाना आरंभ कर दिया।
जब अपने आप ही व्यक्ति किसी भी प्रकार के संशय शंका या संदेह में घिरा रहता है या किसी भी प्रकार के वैराग्यभाव को पाल लेता है तो उसकी सफलता स्वयं ही प्रश्नचिह्न के घेरे में आ जाती है। पूर्ण मनोयोग के साथ किया गया कार्य भी तभी सफल होता है जब उसमें किसी भी प्रकार की शंका व संदेह के लिए कोई स्थान न हो । इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि बंदा वीर बैरागी अपने समय का सर्वोत्कृष्ट योद्धा था। उसके भीतर देशभक्ति और वीरता कूट-कूट कर भरी हुई थीं । वह मां भारती को गौरव प्रदान करने के लिए प्रत्येक प्रकार का कार्य करने के लिए उद्यत था। परंतु उसके स्वभाव का यह द्वंद – भाव बार-बार छलक उठता था कि वह संसार में रहकर भी संसार से भाग जाना चाहता था । उसका संकल्प माँ भारती को विदेशी शासकों और अत्याचारी लोगों से मुक्त करना था। इसके लिए वह यथोचित वीरता का प्रदर्शन और क्षत्रियोचित यौद्धेय कर्म भी कर रहा था । परंतु राज्य सत्ता के प्रति वैराग्य भाव का प्रदर्शन करते हुए उसको अपने हाथों में न लेकर दूसरों को सौंपने की गलती भी वह बार-बार कर रहा था । मैदान से हटकर पर्वतों पर जाकर तपस्या में लीन रहते हुए वह भक्ति के मार्ग को अपनाना चाहता था । इससे पता चलता है कि उसका बैरागी भाव अभी भी समाप्त नहीं हुआ था । बस , यही द्वंद्वभाव उसकी सफलता को बार-बार क्षति पहुंचाता था। बहुत बड़ा कार्य करके भी वह अपनी सफलता को स्थायी नहीं बना पा रहा था ।
वह चंद्रगुप्त और चाणक्य दोनों स्वयं ही था। उससे भूल यह हो रही थी कि वह किसी दूसरे व्यक्ति को चंद्रगुप्त बना देना चाहता था । यद्यपि इसके साथ – साथ ही वह यह भी भूल कर रहा था कि चाणक्य ने चंद्रगुप्त को ढूंढने के पश्चात स्वयं वैराग्य धारण नहीं किया था । चाणक्य चंद्रगुप्त के साथ सदा ही छाया की भांति लगा रहा और प्रत्येक पग पर उसका समुचित मार्गदर्शन करता रहा । बैरागी अपने जिस किसी भी ‘ चंद्रगुप्त ‘ को ढूंढता था , वह प्रथमत: तो चंद्रगुप्त ही नहीं होता था और यदि होता भी था तो उसे पीछे से चाणक्य की भूमिका में रहने वाले बंदा वीर बैरागी का मार्गदर्शन नहीं मिलता था , क्योंकि उसका चाणक्य मैदान छोड़कर पर्वतों पर चला जाता था।
एक व्यक्ति समुद्र में अपनी नाव से चला जा रहा था। उसने अचानक अपनी नाव का प्रवाह कम किया और एक बहुत ही मूल्यवान मोती को समुद्र में फेंक कर धरती पर लौट आया । वापस आने के बाद उसने एक बाल्टी ली और समुद्र के पानी को गड्ढा बनाकर उसमें उड़ने लगा ।तीन दिन तक वह निरंतर अपने इस कार्य को करता रहा , परंतु समुद्र था कि उसका पानी कम होने का नाम नहीं ले रहा था । तभी अचानक वहां पर किसी दिव्य महापुरुष का आगमन हुआ । जिसे कुछ लोगों ने प्रेत कहकर भी संबोधित किया है । उस प्रेत ने उस व्यक्ति से पूछा कि यह पानी आप क्यों उंडेलते जा रहे हो ? इस पर उस सनकी व्यक्ति ने कहा कि मेरा एक अति मूल्यवान मोती इस समुद्र में कहीं खो गया है । मैं जब तक उस मूल्यवान मोती को ढूंढ नहीं लूंगा तब तक अपने इस उद्यम को बंद नहीं करूंगा । ऐसा सुनकर प्रेत ने कहा कि यह समुद्र है और तुम जानते हो कि इसके पानी को तुम कभी भी समाप्त नहीं कर पाओगे ?
तब उस सनकी व्यक्ति ने और भी गंभीरता के साथ प्रेत की ओर देखते हुए कहा कि :– ” जब तक समुद्र नहीं सूख जाएगा , तब तक मेरी बाल्टी इसको यूं ही सुखाने का काम करती रहेगी ? ” उसके आत्मबल और आत्मविश्वास को देखकर प्रेत भयभीत हो गया। उसने तत्काल समुद्र में गोता लगाया और उस सनकी व्यक्ति को समुद्री जल के भीतर से बहुत सारे मोती ला कर दिए। वास्तव में संसार के सफल संकल्पशील व्यक्ति बड़ी से बड़ी चुनौती के आगे भी अविचलित खड़े रहते हैं और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निश्चल भाव से आगे बढ़ते रहते हैं । ऐसे व्यक्तियों के लिए सफलता स्वयं ही उनकी चरण वंदना करने के लिए दौड़ी चली आती है । जबकि दुर्बल व्यक्तियों के साथ ऐसा नहीं होता ।
इसमें कोई दो मत नहीं कि हमारे चरितनायक बंदा वीर बैरागी के भीतर संकल्प की प्रबल शक्ति थी , परंतु उसके संकल्प की कीली तब ढीली हो उठती थी जब वह अपने राज को स्वयं संभालने के लिए आगे न आकर किसी दूसरे व्यक्ति को यह कार्य सौंप देता था। संकल्प की कीली ढीली पड़ती थी और वह जिस महान पुरुषार्थ को करके अभी – अभी हटता था , वह कुछ समय पश्चात ही पुनः शिथिलता का शिकार हो जाता था। क्या ही अच्छा होता कि वह किसी अन्य ‘चंद्रगुप्त ‘ को न पकड़कर स्वयं ही ‘ चंद्रगुप्त ‘ बनता और उस महान कार्य को संपादित करता जिसके लिए उसने संकल्प ले लिया था अर्थात हिन्दू राज्य की स्थापना का संकल्प ।
संघर्ष तुम्हारा नारा है संघर्ष तुम्हारा आदर्श सदा।
संघर्ष तुम्हारा जीवन है संघर्ष तुम्हारा ध्येय सदा ।।संघर्ष से जन्मे संघर्ष किए संघर्ष को शस्त्र बना पूजा। संघर्ष के हित समर्पित हो इससे भिन्न कुछ नहीं दूजा।।
इसके उपरांत भी हमें बंदा वीर बैरागी के व्यक्तित्व को कम करके आंकने का कोई अधिकार नहीं है। उसके बारे में यह सत्य है कि उसने जिस महान पुरुषार्थ को उस समय किया उसने हमारे अस्तित्व को उस समय बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
फारस देश का बादशाह नौशेरवां अपनी न्यायप्रियता के लिए विख्यात था । एक दिन वह अपने मंत्रियों के साथ भ्रमण पर निकला । उसने देखा कि एक बगीचे में एक वृद्ध माली अखरोट का पौधा लगा रहा था। बादशाह जिज्ञासावश उस माली के निकट गया और उससे पूछने लगा कि – ” तुम यहां नौकरी करते हो या यह बगीचा तुम्हारा ही है ? ”
इस पर उस माली ने बादशाह की ओर देखते हुए कहा कि :– ” मान्यवर मैं यहां पर नौकरी नहीं करता , यह बगीचा मेरे पूर्वजों ने लगाया था । मैं इसी की देखभाल करता हूं और इसी से अपना जीविकोपार्जन करता हूँ । ” बाद शाह ने उस माली से फिर पूछा : – ” तुम अखरोट के पेड़ लगा रहे हो , क्या तुम जानते हो कि इनके फल खाने के लिए तुम जीवित भी नहीं रहोगे । बादशाह ने ऐसा कहकर उस माली को यह संकेत दिया था यदि पेड़ ही लगाने हैं तो ऐसे लगाओ , जिनके फल खाने का आनंद तुम भी अपने इसी जीवन काल में ले सको । वह माली को समझा देना चाहता था कि अखरोट के पेड़ लगाने का अभिप्राय है कि अब से 20 वर्ष पश्चात इसके फलों का रसास्वादन लिया जाएगा और तब तक तुम रहो या ना रहो , इस बात का कोई भरोसा नहीं।
इस पर उस वृद्ध माली ने बादशाह को जो उत्तर दिया वह बहुत ही सुंदर है जो हमारे इस चरितनायक के जीवन के उद्देश्य को और उसके उस अंतर्भाव को प्रकट करने में सहायक हो सकता है जिसके वशीभूत होकर वह भी अखरोट के पौधे उस समय लगा रहा था । उस माली ने बादशाह से कहा कि : – ” मैं अब तक दूसरों के लगाए पेड़ों के बहुत सारे फल खा चुका हूं, संसार को छोड़ने से पहले मुझे भी दूसरों के लिए कुछ पेड़ लगाने चाहिए । स्वयं फल खाने की आशा से ही पेड़ लगाना तो स्वार्थपरता है। ”
बादशाह उस वृद्ध माली का प्रत्युत्तर सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ । बादशाह माली को दो अशर्फी पुरस्कार स्वरूप प्रदान कर आगे बढ़ गया ।
यदि हम अपने चरित्र नायक बंदा वीर बैरागी के जीवन की समीक्षा करें तो उसका भी प्रत्येक कार्य उस वृद्ध माली की भांति ही था जो दूसरों के लिए अखरोट के पौधे लगा रहा था । यदि बंदा वीर बैरागी अपने जीवन काल में ‘अखरोट ‘ के पेड़ ना लगाता तो निश्चय ही आज हम भी न होते या बहुत बड़ी क्षति हमें उसके न होने से उठानी पड़ जाती । हम को यह समझना चाहिए कि यदि आज हम हिंदुत्व की ध्वजा को उठाकर चल रहे हैं तो यह तभी संभव हो पाया है जब आज हम बंदा वीर बैरागी के द्वारा रोपित किए गए ‘अखरोट ‘ के पेड़ के फल खा रहे हैं । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में :–
वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे ।
वे स्वार्थ रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।।संसार के उपकार हित जब जन्म लेते थे सभी ।
निश्चिंत होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत