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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-11

यह अलग बात है कि उस पुष्टि को करने के पश्चात भी वे हमारे ऋषियों के चिकित्सा विज्ञान को सही अर्थों में समझने में असफल रहे हैं। भारत में 1947 तक भी भारत की परम्परागत देशी औषधियां ही लोगों का उपचार करती थीं। हमारे देशी वैद्य स्वयं लोगों के पास जाकर उनका उपचार करते थे। […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-9

हम यज्ञादि पर उद्घोष लगाया करते हैं कि-‘प्राणियों में सदभावना हो’ और-‘विश्व का कल्याण हो’-इनका अर्थ तभी सार्थक हो सकता है जब हम अपनी नेक कमाई में से अन्य प्राणियों के लिए भी कुछ निकालें और उसे हमारे पूर्वज वैद्य हम लोगों से कितने सुंदर और उत्तम ढंग से निकलवा लेते थे? तब सचमुच प्राणियों […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत-10

यद्यपि हाल ही के वर्षों में रोगी यूरोप भारत की योग पद्घति की ओर झुका अवश्य है, उसे कुछ-कुछ पता चला है कि निरे भौतिकवाद से भी काम नहीं चलने वाला और यह भी निरे भौतिकवाद ने उसकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है। तब हारा थका और भौतिकवाद से पराजित […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत-7

आज भी मुस्लिम जगत और ईसाई जगत के नाम पर विश्व दो खेमों में बंट चुका है, और हम देख रहे हैं कि ये दोनों खेमे विश्व को कलह-कटुता परोस रहे हैं। इसके बीच ना तो कोई वैदिक जगत है और ना ही कोई हिंदू जगत है। इसका न होने का कारण यही है कि […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत-8

भारत के आर्य लोगों का संदेश था कि हर व्यक्ति को स्वराज्य के सुराज्य का रसास्वादन लेने का पूर्ण अधिकार है। वेद कहता है कि- ‘सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्टï्रे दधातूत्तमे'(अथर्व 12/1 /8) इसका भावार्थ है कि हमारी मातृभूमि उत्तम राष्टï्र में कांति और शक्ति धारण करे, अर्थात हम लोग कांति और शक्ति धारण करने […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत-6

भारत में ‘कंस’ को निपटाने के लिए ‘कृष्ण’ उत्पन्न होते रहे हैं, और भारत की जनता ने ऐसे जननायक कृष्ण को ‘भगवान’ की श्रेणी में रखकर यह बताने का प्रयास किया है कि वह लोककल्याणकारी शासक को भगवान के समान इसलिए मानती है कि भगवान का कार्य भी लोककल्याण ही होता है। अत: यदि उसके […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-5

हमारे लिए युद्घ अंतिम विकल्प रहा भारत के चिंतन में किसी को कष्ट पहुंचाना या किसी देश की क्षेत्रीय अखण्डता को नष्ट करना या किसी देश पर हमला करके उसके नागरिकों का नरसंहार करना या उनके अधिकारों का हनन करना कभी नहीं रहा। यही कारण रहा कि युद्घ भारत के लिए किसी समस्या के समाधान […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-4

सामाजिक संघर्ष में लिप्त लोगों को सही मार्ग पर लाने के लिए कानून बनाया जाता है और उसके माध्यम से उन्हें दंडित किया जाता है। जबकि ‘धर्म में युद्घ’ की स्थिति में लिप्त लोगों को सही मार्ग पर लाने के लिए नीति और विधि का सहारा लिया जाता है। इस नीति में दण्ड की एक […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-3

ऐसी परिस्थितियों में उन अनेकों ‘फाहियानों,’ ‘हुवेनसांगों’ व ‘मैगास्थनीजों’ का गुणगान करना हम भूल गये जो यहां सृष्टि प्रारंभ से अपनी ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए आते रहे थे और जिन्होंने इस स्वर्गसम देश के लिए अपने संस्मरणों में बारम्बार यह लिखा कि मेरा अगला जन्म भारत की पवित्रभूमि पर होना चाहिए। जिससे कि […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-2

भारत की इस प्रवाहमानता के कारण भारत के चिंतन में कहीं कोई संकीर्णता नहीं है, कही कोई कुण्ठा नहीं है, कहीं किसी के अधिकार को छीनने की तुच्छ भावना नहीं है, और कहीं किसी प्रकार का कोई अंतर्विरोध नहीं है। सब कुछ सरल है, सहज है और निर्मल है। उसमें वाद है, संवाद है-विवाद नहीं […]

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