बिनु रुके, थके बिनु, बिनु हारे जीवन के जटिल जंक्शन पर जब उचित राह ना समझ सको मत अड़े रहो, मत खड़े रहो चल दो फौरन बस किसी ओर शायद उस पर ही मंजिल है…. यदि उस पर मंजिल नहीं मिले मत हो उदास, मत हो निराश उस पथ पर लिख दो- लक्ष्य हीन, मंजिल […]
श्रेणी: कविता
आदमी क्या है भूख लगना आदमी की प्रकृति है , छीन खाना आदमी की विकृति है। अपने अतिथि को प्रेम से जो खिलाए, बांट खाना ही आदमी की संस्कृति है।। हिलादे सारे सागर को, उसे तूफान कहते हैं, तोड़ दे तट के बंधन को, उसे उफा़न कहते हैं। इससे भी आगे की सोच लो जरा, […]
हाय! जननी जन्मभूमि छोड़कर जाते हैं हम | वश नहीं चलता है रह-रह कर पछताते हैं हम || स्वर्ग के सुख से भी ज्यादा सुख मिला हमको यहां| इसलिए तजते इसे हर बार शरमाते हैं हम || ऐ नदी, नालों, दरख्तो , ये मेरा कसूर , माफ करना जोड़ ,कर ,तुमसे फरमाते हैं हम| मातृभूमि! […]
विचार लो कि मृत्य हो न मृत्यु से डरो कभी । मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी । हुई न यूं सुमृत्यु तो वृथा मरे वृथा जिए। मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे वही मनुष्य है कि जो… उसी उदार […]
ऐ आसमां ! बता दे तेरी ऊंचाई क्या है? विस्तार क्या है तेरा तेरी खुदाई क्या है? मैं पूछती हूं तुझसे क्यों मौन तू खड़ा है? अपना पता बता दे तेरी सच्चाई क्या है? छू के रहूंगी एक दिन तेरी ऊंचाई को मैं। विस्तार खोज लूंगी तेरी सच्चाई को मैं।। दादा की मैं दुआ हूं […]
ए खुदा एक बात तो तू आज जरूर बता। इंसान की क्या खता, नहीं तेरा सही पता।। सुना है तू हर दिलो-दिमाग में धड़कता है। सुना है तू हर फन में फनकार फड़कता है।। जब तेरा ही जलजला है यहां वहां हर कहीं। तेरी रहमत सब पर आकर समझा तो सही।। फिर क्यों सताता है […]
हे सत्ता के गलियारों में, दुम हिलाने वालों। हे दरबारी सुविधाओं की, जूठन खाने वालों।। तेरे ही पूर्वज दुश्मन को, कलम बेचकर खाए। तेरे ही पूर्वज सदियों से, वतन बेचते आए।। कलम बिकी तब गोरी के साथी, जयचंद कहाए। कलम बिकी तब राणा साँगा, बाबर को बुलवाए।। बिकती कलमों ने पद्मिनियों को, कामातुर देखा। बिकती […]
नए साल के पँख पर बीत गया ये साल तो, देकर सुख-दुःख मीत ! क्या पता? क्या है बुना ? नई भोर ने गीत !! माफ़ करे सब गलतियां, होकर मन के मीत ! मिटे सभी की वेदना, जुड़े प्यार की रीत !! जो खोया वो सोचकर, होना नहीं उदास ! जब तक साँसे हैं […]
112- प्राची का पट खोल, बाल सूरज मुस्काया। भ्रमर कली खग ओस बिंदु को अतिशय भाया।। जागी प्रकृति तुरन्त, हुए गायब सब तारे। पुनः हुए तैयार, विगत में जो थे हारे।। उठे बालगण खाट छोड़ माँ – माँ – माँ रटने। माँ दौड़ी सब काम छोड़ लख आँचल फटने।। काँधे पर ले स्वप्न, सूर्य सँग […]
सुप्रभातम। शुभ दिवस। योग की संक्षिप्त में कविता के रूप में प्रस्तुति । कविता। आप सदैव संपन्न ,प्रसन्न ,स्वस्थ रहें। ईश्वर से हम एक दूजे के लिए ऐसा कहें। हम सदैव ईश्वर की शरण में रहें कर्मफल मानकर सुख -दुख को सहैं। हताशा निराशा का ना हो बोझ। अवसाद का भी ना हो कहीं खोज। […]