वैदिक सम्पत्ति 281 – कंपनी राज्यपाल और जातीयता
(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक सम्पत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )
प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन – ‘उगता भारत’ )
अर्थात् मित्रो ! आओ गौवों के बड़े बड़े गोष्ठ बनाने का उद्यम करें। वह उद्यम माता के समान है। इसी से मनुष्य शत्रुओं को जीत सकता है और इसी से उत्कष्ठावान् वणिक् हर प्रकार के रस को प्राप्त होते हैं। इस मन्त्र में गौवों के बड़े बड़े गोष्ठ बनाना ही उद्यम बतलाया है। गौ गोष्ठों में बड़े बड़े बैल तैयार होते हैं, जो लाखों मन अन्न वस्त्र एक दश से दूसरे देश में पहुँचाते हैं। इस प्रकार के पवित्र उद्देश्य से प्रेरित होकर केवल प्राणियों को अन्न पहुँचाने के लिए जो व्यापार किया जाता है, उसमें भी सोने चाँदी के सिक्के की आवश्यकता नहीं होती । व्यापार में सोने चांदी का पचड़ा लगाने से तो कभी उन देशों को अन्न मिल ही नहीं सकता, जिनके पास सोना चाँदी नहीं है। इस सिद्धान्तानुसार तो यदि अरवों के पास सोना न हो, तो उनको ईरानवाले अन्न देंगे ही नहीं, चाहे भले समस्त अरबस्तान भूख से मर जाय। परन्तु जो व्यापारी अरबों की प्राणरक्षा के लिए वहाँ अन्न भेजेगा, वह ऐसी शर्त न लगावेगा कि हमें सोना दो तभी हम अन्न देगें, प्रत्युत वह तो यदि वहाँ सूत ऊन अथवा इमारत की लकड़ी ही पावेगा, तो लौटते समय वही लेता आवेगा और उसी में विनिमय समझ लेगा। यदि यह भी न मिलेगा, तो अपना माल दूसरे साल के लिए खजूर के बयाने में उनकी साख पर दे आवेगा। इसलिए दूर देशों के व्यापार में भी सोने चांदी के सिक्के की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती ।
अब रही बात वर्तमान सम्पत्तिशास्त्रियों के तैयार किए हुए माल की। ये लोग कोई ऐसा माल तैयार नहीं करते, जो मनुष्य के लिए अत्यन्त आवश्यक हो। खाद्य पदार्थ ये तैयार करके भेजते ही नहीं। हाँ कपड़े भेजते हैं। परन्तु वे कपड़े शरीफ आदमियों के पहिनने के योग्य नहीं होते। उनसे शृङ्गार, विलास और व्यभिचार की दुर्गन्ध निकलती है। इसलिए वे उतने ही त्याग के योग्य हैं, जितना कि एक कुलवधू के लिए वेश्या की मैत्री का त्याग आवश्यक है। इन दो पदार्थों के सिवा मनुष्य के जीने के लिए संसार में और आवश्यकता ही किस वस्तु की है ? इसलिए इनका तैयार किया हुआ माल अर्थ नहीं कहला सकता। वह तो अनर्थ है और काम के बढ़ानेवाला, दूसरे देश का धन चूसनेवाला, और प्राणीमात्र को जीते ही जी जलानेवाला है। इसलिए महाराज मनु ने ऐसे शिल्पियों पर राजा को कड़ी निगाह रखने की आज्ञा दी है। वे कहते हैं कि –
असम्यक्कारिणश्चैव महामात्राश्चिकित्सकाः ।
शिल्पोपचारयुक्ताश्च निपुणाः पव्ययोषितः ।
एवमादीन्विजानीयात्य का शाल्लोककण्टकान् ।
निगूढच। रिणवान्याननार्थानायलिङ्गिनः ।। (मनु० 9/259-60)
अर्थात् बुरे कर्म करनेवाले, उच्च कर्मचारी, वैद्य, मारन मोहन करने वाले ठग, शिल्पी, वेश्यादिकों में रहनेवाले और आर्यरूप धारण किए हुए अनार्यों पर राजा निगाह रक्खे। यहाँ शिल्पियों की किस प्रकार के लोगों के साथ गिन्ती की गई है और चोरों की तरह उनकी निगरानी करने की आज्ञा दी गई है। इसका कारण यही है कि ‘श्रृगार बढ़ाने वाले विलासी पदार्थ तैयार न हों। कहने का मतलब यह कि पूंजी से सम्बन्ध रखनेवाली कम्पनी की सिक्का और शिल्पसम्बन्धी नीति नितान्त अशुद्ध है।
सम्पत्ति के उत्पन्न करमेवाले इस प्रधान साधन कम्पनी को राज्यबल की भी आवश्यकता रहती है। राज्य-बल में दो लाभ होते हैं। एक तो कम्पनियों को दूसरे देशों में माल खरीदने और बेचने में अपने राजा के सैनिक दब-दबे के कारण किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती और दूसरे अपने राजा की सहायता से यान्त्रिक कला और विज्ञान मैं उनति होती है, जिसके द्वारा शृङ्गार और विलास के बड़ा मेवाले पदार्थ सस्ते और शीघ्र तैयार होते हैं तथा युद्ध को सफल बनानेवाले नाना प्रकार के यन्त्र, गैस ओर यान भी तैयार होते हैं, जो दूसरे देशों को भयभीत किए रहते हैं। आजकल के शासन का प्रधान ध्येय यही है। इसलिए आजकल का अर्थशास्त्र राजनैतिक अर्थशास्त्र अर्थात पोलिटिकल एकॉनॉमी कहलाता है। इस राजनैतिक सम्पत्तिशास्त्र के द्वारा मनुष्यों के जीवन शृङ्गार और विलास-मय बनाये जाते हैं और कामुकता का प्रचार किया जाता है। जहाँ देखो वहीं नाना प्रकार की शराबों की दुकानें, चाय, गाँजा, अफीम और चण्डू की दुकानें, सिगरेट और तम्बाकू की दूकानें, वेश्याओं की दुकानें, जुए (सट्टे) की दूकानें और कामोद्दीपक तथा व्यभिचार के बढ़ानेवाले वस्त्रों, यन्त्रों और औषधियों की दूकानें सबकी आँखों के सामने लगी हैं। सबके सामने जीवित प्राणियों के अण्डे और मांस के ढेर बिक रहे हैं, पर कोई मना करनेवाला नहीं है। यह तो रोज देखने में आता है कि सादगी और समता का प्रचार करनेवाले जेलों में बन्द किये जा रहे हैं, पर यह देखने में नहीं आता कि जिन वेश्याओं ने अपने जहर (गर्मी, सूजाक) से लाखों मनुष्यों को सड़ाकर कोढ़ी बना दिया है अथवा जिन दुराचारी पुरुषों ने लाखों निरपराध गृहदेवियों को उसी जहर से सड़ा डाला है, उन पर एक रुपया जुर्माना भी हुआ हो। यह दशा किसी एक ही देश या जाति की नहीं है, प्रत्युत सारी पृथिवी की शासनप्रणाली आजकल प्रायः इसी ढंग की हो रही है। इसका कारण यही है कि आजकल शासन और व्यापार का उद्देश्य उत्तम मनुष्य बनाना और उन्हें भूख से बचाना नहीं है, किन्तु सबको विलासी बनाकर संसार का सुवर्ण अपने पास जमा करना है और दूसरों को गुलाम बनाना है।
क्रमशः

लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।
