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कविता

*’ कभी सोचा है ‘*

(साहित्य वही उत्तम होता है जो समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करने की क्षमता रखता हो। नये ओज और नए तेज से भरने की क्षमता रखता हो। माना कि श्रृंगार रस भी जीवन के लिए आवश्यक है, परंतु युवा पीढ़ी को केवल उसी के मृगजाल में लपेटकर मारने के लिए तैयार किया गया साहित्य साहित्य की श्रेणी में नहीं आता। उसे पथभ्रष्ट करने वाले विचारों का संपुंजन कहा जा सकता है। हम उसी को साहित्य मानते हैं जो पथभ्रष्ट, धर्म भ्रष्ट समाज को नई राह दिखा सके। यह कविता स्वनामधन्य डॉ कुसुमवीर जी के द्वारा रचित की गई है । निश्चय ही सत्साहित्य की अपेक्षाओं पर खरी उतरती यह कविता मानवता की धरोहर है। – संपादक )

कभी सोचा है !
कभी दूर तक़ फ़ैली थीं
सीमाएँ इस देश की
सिकुड़ते ही गए क्यों
इस देश में फिर आज हम ?

कभी सोचा है !
सोने की चिड़िया कहाता था
कभी सुन्दर यह देश
लुटते खजाने, मूढ़ बन कर
देखते क्यों रह गए हम ?

कभी सोचा है !
विश्व गुरु थे हम धरा पर
ज्ञान मण्डित सर्वदा
ग़ुलाम बरसों-बरस रह कर
अत्याचार सहते क्यों गए हम ?

कभी सोचा है !
पुष्पक विमान आसमां पर
थे उड़ाते हम कभी
मोहताज़ फिर क्यों हो गए
दूसरों के आज हम ?

कभी सोचा है !
आर्य पुत्र थे सभी हम
मातृभूमि पर यहाँ
जातियों में बंट गए क्यों
स्वत्व खोते ही गए हम ?

कभी सोचा है !
संग गीता श्लोक गूँजें
उत्सवों में शंखनाद
क्यों खा रहे पत्थर यहाँ

फिर रास्तों में आज हम ?

कुसुम वीर

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