एक बार एक राजा अपने सहचरों के साथ शिकार खेलने जंगल में गए। वहाँ शिकार खलते-खेलते एक दूसरे से बिछड़ गये। राजा कहीं ओर, सिपाही दूसरी ओर। एक दूसरे को खोजते हुये राजा एक नेत्रहीन संत की कुटिया में पहुँचे। राजा ने उन्हें प्रणाम कहा और अपने बिछड़े हुये साथियों के बारे में पूछा।

नेत्र हीन संत ने कहा, “महाराज, सबसे पहले आपके सिपाही यहाँ से गुजरे, बाद में आपके मंत्री गये, अब आप स्वयं पधारे हैं। इसी रास्ते से आप आगे जायें तो मुलाकात हो जायगी।”

संत के बताये हुये रास्ते पर राजा ने घोड़ा दौड़ाया और जल्दी ही अपने सहयोगियों से जा मिले और नेत्रहीन संत के कथनानुसार ही एक दूसरे से आगे पीछे पहुँचे थे।

राजा के मन में यह विचार चल रहा था कि नेत्रहीन संत को कैसे पता चला कि कौन किस ओहदे वाला जा रहा है। लौटते समय राजा अपने अनुचरों को साथ लेकर संत की कुटिया में गये और संत से प्रश्न किया कि “आप नेत्रविहीन होते हुये कैसे जान पाए कि कौन जा रहा है, कौन आ रहा है?”

राजा की बात सुन कर नेत्रहीन संत ने कहा, “महाराज आदमी की हैसियत का ज्ञान नेत्रों से नहीं उसकी बातचीत से होता है! सबसे पहले जब आपके सिपाही मेरे पास से गुजरे तब उन्होंने मुझसे पूछा कि, “ऐ अंधे, इधर से किसी के जाते हुये की आहट सुनाई दी क्या?” तो मैं समझ गया कि इनकी भाषा इतनी सभ्य नहीं है और ये संस्कारों में अपरिष्कृत प्रतीत होते हैं, अर्थात्‌ ये छोटी पदवी वाले सिपाही ही होंगे।

जब आपके मंत्री जी आये तब उन्होंने पूछा, “बाबा जी, इधर से किसी को जाते हुये…” तो मैं समझ गया कि यह किसी उच्च ओहदे वाला है, क्योंकि बिना संस्कारित व्यक्ति किसी बड़े पद पर आसीन नहीं होता। इसलिये मैंने आपसे कहा कि सिपाहियों के पीछे मंत्री जी गये हैं।

जब आप स्वयं आये तो आपने कहा “प्रणाम सूरदास जी महाराज, आपको इधर से निकल कर जाने वालों की आहट तो नहीं मिली” उसी क्षण मैं समझ गया कि आप राजा ही हो सकते हैं। क्योंकि आपकी वाणी में आदर सूचक शब्दों का समावेश था और दूसरे का आदर वही कर सकता है, जिसे दूसरों से आदर प्राप्त होता है। क्योंकि जिसे कभी कोई चीज नहीं मिलती तो वह उस वस्तु के गुणों को कैसे जान सकता है!

दूसरी बात, यह संसार एक वृक्ष स्वरूप है-जैसे वृक्ष में डालियाँ तो बहुत होती हैं, पर जिस डाली पर ज़्यादा फल लगते हैं, वही झुकती है। इसी अनुभव के आधार पर मैं नेत्रहीन होते हुये भी सिपाहियों, मंत्री और आपको पहचान पाया।”

संत कबीर जी ने लिखा है-

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

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“सारी तीक्ष्णता हटा दें ताकि आपकी वाणी में किसी प्रकार का वजन न रहे, शांत हवा की बयार के समान। इसे कोमल, सुसंस्कृत, शांत और संतुलित बनायें। वह व्यक्ति जिसकी वाणी सुसंस्कृत और विनम्र होती है उसका ह्रदय शुद्ध और कोमल होता है।”

आचार्य ज्ञान प्रकाश वैदिक

वैदिक सदन आर्य समाज के निकट सहतवार बलिया उत्तर प्रदेश

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