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पर्व – त्यौहार

नवरात्र और एकादशी का रहस्य

देवेंद्र सिंह आर्य चेयरमैन उगता भारत।
प्रथम किस्त।
क्या आप भी नवरात्र के अथवा कोई अन्य व्रत रखते हैं?
क्या आप व्रत के संबंध में जानते हैं?
क्या आप देवी गौरी,चंद्रघंटा, स्कंद माता ,संतोषी माता, दुर्गा माता वैष्णो, कुष्मांडा, कात्यायनी आदि के पूजक एवं उपासक हैं?
क्या पाषाण पूजा अथवा मूर्ति पूजा वेदसम्मत है? यदि हां तो कौन से वेद में मूर्ति पूजा का प्रावधान किया गया है?
क्या मूर्ति पूजा अथवा रूढ व्रत करना पाप है?
अष्टभुजा वाली दुर्गा, शेरांवाली मां क्या है?
ऐसे अथवा इससे मिलते जुलते अन्य कई प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं।

संवत 2081 प्रारंभ हुआ है। चैत्र मास चल रहा है। चारों ओर देवी का व्रत एवं मूर्ति पूजा का बोलबाला है।
चैत्र मास की अमावस्या की प्रतिपदा को सृष्टि सृजन का कार्य प्रारंभ हुआ और पहले 9 दिन 9 रात बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें ईश्वरीय अथवा दैवी शक्ति का प्रकाशन एवं प्रकटन हुआ। जिसको सही अर्थों में न लेकर के अज्ञानता के आधार पर भोली भाली जनता को गुमराह किया गया । गुमराह उन्होंने किया जो स्वयं ईश्वर की शक्ति के विषय में नहीं जानते।
ऐसे परिवेश में आवश्यक हो जाता है कि इस पर विचार किया जाए कि व्रत क्या है?
व्रत पर विचार करने के लिए हमको यजुर्वेद के 34 वे अध्याय के प्रथम 6 मंत्रों का भी ज्ञान होना चाहिए। जिन मंत्रों में शिव संकल्प अपने मन के अंदर होने चाहिए।
प्रश्न उठता है कि संकल्प क्या है? कैसा संकल्प लेना है?
संकल्प कहते किसको हैं ?

उक्त 6 मंत्रों की बहुत ही सुंदर व्याख्या स्वामी विष्वंग जी रोजड, गुजरात द्वारा की गई है। जो बताते हैं कि
संकल्प व्रत, प्रतिज्ञा अथवा शपथ को कहा जाता है। आगे अधिक स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी महाराज ने व्रत अथवा संकल्प का एक वास्तविक अर्थ और किया है जो बहुत ही सरल है। संकल्प को उन्होंने’ इच्छा ‘ बताया ।
अर्थात इच्छा को ही व्रत, प्रतिज्ञा और शपथ कहा है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी महाराज ने यह भी कहा है की इच्छा कैसी होनी चाहिए?
यजुर्वेद कहता है शिव संकल्प होना चाहिए। शिव का अर्थ होता है कल्याण , अर्थात जिसमें कल्याण ही कल्याण हो। मेरा भी कल्याण और आपके भी कल्याण की इच्छा रखता हो ।जब ऐसी इच्छा करते हैं ,जब ऐसा व्रत लेते हैं, जब ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं, जब ऐसी शपथ लेते हैं तो उसी से कल्याण संभव होता है ।
अब प्रश्न उठता है कि
कल्याण क्या है ?
कल्याण को परिभाषित करते हुए बताते हैं कि कल्याण तृप्ति को कहते हैं ,जिसमें मनुष्य पूर्ण रूपेण तृप्त हो जाए ।
कल्याण संतुष्टि को भी कहते हैं। जिसमें मनुष्य संतुष्ट रहना चाहिए।
कल्याण शांत रहने के लिए भी कहते हैं,
कल्याण निर्भीक रहने को भी कहते हैं ।
कल्याण स्वतंत्र होना भी कहा जाता है
और ये सब मन के माध्यम से प्राप्त होते है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में संतुष्ट, शांत,तृप्त, स्वतंत्र रहने की इच्छा रखता है। यह सभी वस्तुएं हमको अपने मन से प्राप्त हो सकती हैं।
क्योंकि मन शरीर में रहते हुए बाहर विषयों में जाता है। यह मन विषयों के विषय में शरीर में बैठा बैठा दूर-दूर वस्तुओं की इच्छा या विचार करता रहता है।
वह मेरा मन शिव संकल्प वाला हो। मेरी इच्छा कल्याणकारी हो। संसार का वैभव प्राप्त करने में भी कल्याण परंतु दूसरा कल्याण मुक्ति, मोक्ष ,अपवर्ग की प्राप्ति है। एक ओर जब बुद्धि पूर्वक ईश्वर में स्थिर हो जाए तब कल्याण होता है।
लेकिन जब ‌उक्त‌‌ दोनों प्रकार का कल्याण अपने हाथों में होगा तब शांति ही शांति ,तृप्ति ही तृप्ति होती है।
इसके अलावा महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी महाराज ने यह भी कहा है कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करना, विद्वानों की संगति में रहना। जब व्यक्ति ऐसा करेगा तब वह शिव संकल्प वाला होगा और यह सब व्यक्ति के पुरुषार्थ पर यह निर्भर करता है।
संक्षेप में कहें तो अपने मन में उठने वाली इच्छाओं को व्यष्टि और समष्टि के कल्याण के लिए करना ही व्रत है।

तप ।

तैत्तिरीय उपनिषद में मंत्र है कि
ऋतं तप: सत्यम तपो दमस्तप: स्वाध्यायस्तप:।
जिस का भावार्थ है कि हमको यथार्थ सद्भाव रखना, सत्य मानना, सत्य बोलना ,सत्य करना, मन को बुराइयों की ओर न जाने देना ,शरीर इंद्रियां और मन से शुभ कामों का करना, वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना पढ़ाना, वेद अनुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कार्यों का नाम तप है। धूनी लगाकर ‌ शरीर को सेंकने का नाम तप नहीं है। संसार में ऐसा आपने प्रायः देखा होगा कि तप के नाम पर अकारण ही बहुत से मनुष्य अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। ऐसी सभी क्रियाएं न तो तप है, ना धर्म है। अपितु पाप और हिंसा है ।बहकावा और छलावा है।
(आर्य मान्यताएं लेखक श्री कृष्ण चंद्र गर्ग )

व्रत को और स्पष्ट करें।

ओम अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम ।
इदमहमनृतात सत्यमुपैमि ( यजुर्वेद)
भावार्थ ‌‌ ‌‌ ‌ हे सत्य धर्म के उपदेशक ,वृत्तो के पालक प्रभु !मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा व्रत सिद्ध हो,अर्थात मैं अपने व्रत पर पूरा खरा उतरूं।
इस प्रकार व्रत करने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए विशेष दिन अन्नजल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है ।पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सदव्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना ही व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना ही व्रत है ।काम, क्रोध ,लोभ ,अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उसका पालन करना व्रत कहलाता है।
(आर्य मान्यताएं पृष्ठ 35 -36 लेखक श्री कृष्ण चंद्र गर्ग)

सार-संक्षिप्त

पांच ज्ञानेंद्रियां पांच कर्मेंद्रियां और एक मन, अर्थात कुल 11 हमारी इंद्रियां कहीं जाती है।
इनमें 10 बाह्य इंद्रियां तथा एक मन अतींद्रिय है।
इन 11 का समुच्चय एकादशी कहा जाता है। हमें अपने इंद्रियों से संकल्प विशेष करना चाहिए। हाथों से किसी का गला नहीं काटू, पैर यदि मेरे उठे तो सही दिशा की तरफ चलें, अगर मैं देखूं आंखों से तो सद्भाव से देखूं, मैं बोलूं तो मेरी वाणी में मधुरता होनी चाहिए, मेरे मन में भी पाप नहीं होना चाहिए। ऐसा संकल्प ही व्रत कहा जाता है। इसलिए ऐसे एकादशी के व्रत को बहुत उज्जवल एवं पवित्र माना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि अन्न को त्यागना नहीं चाहिए। अन्न या जल को अथवा दोनों को त्यागना एकादशी का व्रत अथवा अन्य प्रकार का व्रत नहीं है। इसलिए एकादशी के व्रत का अभिप्राय है है कि पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां , तथा 11 वां मन ये सभी पवित्र संकल्प से बंधे होने चाहिए। हां यदि अन्न में किसी प्रकार का विषधर है तो अन्न को त्याग देना चाहिए। उदर विकार है तो अन्न को त्याग देना चाहिए
इसलिए व्रत नाम तो संकल्प का है। एकादशी का अभिप्राय यह है कि हम मन ,वचन, कर्म से ही अपनी इंद्रियों को संयम में रखें। पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियों उनके साथ में लगा हुआ मन है। इसी को इसलिए एकादशी कहते हैं ।यही मन इंद्रियों का प्रतीक माना गया है। यही मन इंद्रियों का राजा माना गया। यही मन इंद्रियों का अधिष्ठाता माना गया।क्योंकि बिना मन के इंद्रियों का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता । जैसे मानव के शरीर में जो भी इंद्रियां हैं उसमें मन ही विराजमान रहता है। प्रत्येक इंद्री से जो मनुष्य काम लेता है तो उसमें मन उस इंद्री के साथ रहता है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र
ग्रेटर नोएडा
9811 838 317

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