Categories
धर्म-अध्यात्म

अंत:करण चतुष्टय और बाह्यकरण किसे कहते हैं

तन्मात्रा किसे कहते हैं?
अंतःकरण चतुष्टय अथवा कितने होते हैं?
बाहृय करण क्या होते हैं?

प्रकृति के तीन तत्व( पदार्थ, द्रव्य, चीज, वस्तु) सत ,रजस तमस होते हैं।

प्रकृति से इन तत्वों को लेकर परमात्मा ने सर्वप्रथम महतत्व अर्थात बुद्धि का निर्माण किया।
दूसरे नंबर पर अहंकार को बनाया।
तीसरे नंबर पर पांच ज्ञानेंद्रियां ,पांच कर्मेंद्रियां( पांच ज्ञानेंद्रिय तथा पांच कर्मेंद्रियां ही बाह्य करण है )और 11वीं इंद्री मन को बनाया।
इस प्रकार 11 जमा 2 (बुद्धि, अहंकार,) कुल 13 तत्व हो गए।
इसके बाद ( रूप, रस ,गंध, शब्द, और स्पर्श )पांच सक्षम भूत जिनको तन्मात्राएं भी कहते हैं।
इन पांच सूक्ष्म भूतों में रूप से अग्नि, रस से जल ,गंध से पृथ्वी, शब्द से आकाश और स्पर्श से वायु पंचमहा भूतों का निर्माण होता है।
पांच सूक्ष्म भूतों से पंच महाभूत, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु को बनाया।
किस प्रकार अब तक उपरोक्त
ये कुल 23 तत्व हो गए।
लेकिन यहां से आगे भी जानने का प्रयत्न करेंगे।
24 वां तत्व मूल प्रकृति होती है।
परंतु यह भी ध्यान देने योग्य विषय है कि यहां तक के जितने भी 24 तत्व हैं। इनमें से प्रकृति को छोड़कर सब नश्वर हैं ,नाशवान हैं।
25 वां तत्व पुरुष है। जो नाशवान नहीं है।
सांख्य दर्शन में 25 वां तत्व पुरुष बताया।
पुरुष के भी दो भेद होते हैं। पुरुष आत्मा को भी कहते हैं और पुरुष परमात्मा को भी कहते हैं।
त्रेतवाद क्या है?
आर्य समाज के लोग ईश्वर ,जीव एवं प्रकृति तीन को अजर अमर मानते हैं।
लेकिन प्रकृति और पुरुष केवल दो को मानने वाले द्वैतवाद के लोग हैं।जो आत्मा और परमात्मा को एक ही मानते हैं। जो अहम ब्रह्मस्मि का नारा देते हैं। जबकि
आर्य समाज के लोग आत्मा परमात्मा और प्रकृति तीनों को मानते हैं। तीनों की पृथक -पृथक सत्ता को स्वीकार करते हैं ।तीनों को अजर और अमर मानते हैं। इसलिए आर्य समाज के लोग द्वैतवाद के विपरीत हैं। निश्चित रूप से आत्मा और परमात्मा एक नहीं हो सकते।अहम् ब्रह्मास्मि का नारा केवल भ्रांति है।
आत्मा अल्पज्ञ है। परमात्मा सर्वज्ञ है।आत्मा में जो ज्ञान है वह स्वाभाविक नहीं ,वह भी परमात्मा से प्राप्त होने के कारण नैमित्तिक है। लेकिन आत्मा में जो स्वयं का ज्ञान है वह स्वाभाविक और जो परमात्मा से प्राप्त होता है वह नैमित्तिक कहा जाता है। इसलिए आत्मा में दोनों प्रकार का ज्ञान है स्वाभाविक भी और नैमित्तिक भी।
इसको स्पष्ट करने के लिए यह समझना आवश्यक है कि
25 वां तत्व आत्मा है।
और 26 वां तत्व परमात्मा है।
जिनको सांख्य दर्शन में 25 वां पुरुष कहने से और उसको सही संदर्भ में न लेने से द्वैतवाद की भ्रांति संसार में चली।
अब एक दूसरा विषय ले लें जो प्रसंग के अनुकूल ही है
आर्य समाज के मंच से मैंने बहुत से विद्वानों को सुना है जो कि सूक्ष्म शरीर में 17 तत्वों का उल्लेख करते हैं। जैसा कि सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में वर्णन आता है
परंतु मैं यहां पर स्पष्ट करना चाहूंगा कि सूक्ष्म शरीर के तत्व 18 ही होते हैं। 17 नहीं होते।
तो फिर 17 क्यों बताए जाते हैं?
यह शंका उत्पन्न होती है।
आर्य समाज के लोग तो शंकाओं का समाधान करने के लिए बने हैं। आर्य समाज के लोगों को तो वह वैशिष्ट्य प्राप्त है। आर्य समाज के लोगों का बौद्धिक स्तर तो उच्च कोटि का होता है । वो तो शंकाओं को निर्मूल करने के लिए बने हैं।
17 का उल्लेख पंडित भीमसेन इटावा वालों ने महर्षि दयानंद कृत अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में प्रक्षेप लगा कर किया है। जिसका अनुसरण बहुत सारे वैदिक विद्वान बिना विचार किये, बिना उचित संदर्भ को समझे, ‌करते हैं।
जिससे यह भ्रांति उत्पन्न होती है।
आर्य समाज के लोगों को सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्धत रहना चाहिए महर्षि दयानंद ने आर्य समाज के 10 नियमों में ऐसा एक नियम बनाया है। तो 18 तत्वों को स्वीकार करें ,जो सत्य है।
सृष्टि के प्रारंभ में मिला हुआ सूक्ष्म शरीर 18 तत्वों का जब तक सृष्टि रहती है, बार-बार प्रत्येक जन्म में हमको मिलता रहता है। आत्मा के साथ ही 18 तत्व रहते हैं ।आत्मा इन 18 तत्वों से आवेष्टित रहती है ।प्रलय होने के पश्चात नई सृष्टि बनने पर दूसरा सूक्ष्म शरीर मिलता है। इसलिए पिछले अनेक जन्मों में पड़े हुए आत्मा और चित्त पर संस्कार बार-बार स्मृति में ज्ञान के रूप में आते रहते हैं।
अतः यहां यह भी स्पष्ट हुआ कि
संस्कार भी आत्मा और चित्त दोनों पर ही पड़ते हैं।
एक भ्रांति निवारण और करना चाहूंगा कि अंतरण चतुष्टय की बात बहुत से विद्वान करते हैं। लेकिन अंतःकरण चार नहीं होते जो विद्वान मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार को चार अंतःकरण कहते हैं वे भी गलती करते हैं। क्योंकि योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ने इस बात को स्पष्ट किया है तथा योग दर्शन के भाष्यकार महर्षि वेदव्यास जी ने भी इस विषय में लिखा है कि मन और चित्त एक ही हैं।मन उसको जब कहते हैं जब वह संकल्प करता तथा विकल्प करता है। और चित्त उसको जब कहते हैं जब वह पुरानी स्मृतियों को लेकर के आता है ।इसलिए मन और चित्त एक ही वस्तु के दो नाम है। जैसा कि सांख्य दर्शन में उल्लेख है।
महर्षि दयानंद ने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में में स्पष्ट किया है कि
शरीर तीन प्रकार के स्थूल जो दिखने वाला है, सूक्ष्म जिसमें 18 तत्व होते हैं, और कारण तीसरे प्रकार का शरीर है जिसमें सुषुप्ति आदि होती है।
सूक्ष्म शरीर भी दो प्रकार का होता है भौतिक एवं आभौतिक।
भौतिक सूक्ष्म शरीर वह शरीर जो सूक्ष्म भूतों से बना। जिनका उल्लेख ऊपर आ चुका है।यह भौतिक शरीर मुक्ति में साथ नहीं रहता।
अभौतिक शरीर जीव के स्वाभाविक गुणों को मुक्ति में साथ लेकर के जाता है। इसलिए यह भौतिक शरीर को स्वाभाविक शरीर भी कहते हैं।
मुक्ति में बल ,पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा ,गति, भाषण ,विवेचन, क्रिया, उत्साह ,स्मरण ,निश्चय, इच्छा, प्रेम ,द्वेष ,संयोग ,विभाग, संयोजक,विभाजक,श्रवण ,स्पर्शन, दर्शन, स्वादन ,गंध ग्रहण ,ज्ञान 24 गुण साथ रहते हैं। इन्हीं से मुक्ति में जीव आनंद भोगता है। ये जीवन और मरण दोनों में साथ रहते हैं।
बड़ी सूक्ष्म विवेचना है हमारे ऋषियों के द्वारा की गई है।
नवसस्येष्ठी पर्व की शुभकामनाओं के साथ
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र ग्रेटर नोएडा।
चलभाष 9811 838317

Comment:Cancel reply

Exit mobile version