हम संसार में देखते हैं कि “जब व्यक्ति अनपढ़ होता है, तो उसमें अभिमान कम होता है। जब वह कुछ पढ़ लिखकर विद्वान बन जाता है, तो उसमें अभिमान भी बढ़ जाता है।” “यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, कि कुछ शास्त्रों को पढ़कर व्यक्ति में अभिमान आता ही है।” परंतु इस अभिमान से बचने का उपाय भी है।
यदि व्यक्ति ऐसे विचार करे, कि “मुझे जो भी ज्ञान मिला है, वह ईश्वर की कृपा, माता-पिता और गुरुजनों के आशीर्वाद एवं सहयोग से मिला है। इसमें मेरा परिश्रम तो बहुत थोड़ा है।” यह सत्य भी है। “ऐसा विचार करने पर व्यक्ति में अभिमान नहीं आएगा। वह अभिमान से बच सकता है।” “परंतु प्रायः लोग ऐसा नहीं सोचते, और उस प्राप्त हुए ज्ञान का सारा श्रेय स्वयं ही ले लेते हैं।” इसी कारण से उनमें अभिमान उत्पन्न होता है। ऐसा करना अनुचित है।
अब जो लोग इस प्रकार से थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करके अभिमानी हो जाते हैं, वे उस ज्ञान के अभिमान के नशे में चूर होकर दूसरों के साथ अन्याय और अनेक प्रकार के दुर्व्यवहार करते हैं। क्योंकि अभिमान की स्थिति में बुद्धि ठीक प्रकार से काम नहीं करती। “ऐसे लोगों से तो वे अनपढ़ लोग अधिक अच्छे हैं, जो दूसरों के साथ इतना अन्याय शोषण और धोखेबाजी नहीं करते। वे संसार को इतना दुख नहीं देते, जितना कि ये तथाकथित पढ़े-लिखे दुरभिमानी लोग।” “ऐसे लोगों को ईश्वर इस जन्म में भी और अगले जन्मों में भी भयंकर दंड देता है।” इस प्रकार से यह ज्ञान का अभिमान उनका विनाश कर देता है।
परंतु जो लोग ऊपर बताई प्रक्रिया के अनुसार ठीक ढंग से चिंतन करते हैं, और ईश्वर की कृपा माता-पिता एवं गुरुजनों के आशीर्वाद तथा सहयोग से प्राप्त हुए ज्ञान में अपना पुरुषार्थ कम मानते हैं, उनको अधिक श्रेय देते हैं। “ऐसे लोगों में अभिमान उत्पन्न नहीं होता, और उनका ज्ञान उनमें सेवा नम्रता परोपकार दान दया इत्यादि बहुत उत्तम उत्तम गुणों को उत्पन्न करता है। ऐसे लोगों का ज्ञान अमृत के समान उनका कल्याण करता है।”
“अब दोनों रास्ते आपके सामने हैं, विनाश का भी और कल्याण का भी। जो आपको अच्छा लगे, उस पर चलें।”
—- “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।”
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