तलाक हमारा शब्द नहीं
ये विषमताएं भारत के समाज में विवाह, तलाक, विरासत या बच्चा गोद लेने जैसे कानूनों के संदर्भ में देखी गई। हम सभी जानते हैं कि भारत की वैदिक हिंदू समाज में प्राचीन काल से ही तलाक जैसा शब्द कहीं सुनने देखने को नहीं मिलता। इसका समानार्थक शब्द भी आर्ष साहित्य में नहीं है। तलाक या डायवोर्स शब्द मुस्लिम और अंग्रेज शासन की देन है। हमारे यहां विवाह को लेकर एक समरूपता थी कि विवाह के पश्चात तलाक जैसा अपवित्र शब्द घर के परिवेश में सुनने तक को नहीं मिलेगा।
इसका एक कारण यह भी था कि वैदिक हिंदू समाज में विवाह वासना की पूर्ति के लिए नहीं अपितु वंश वृद्धि के लिए किए जाते थे। जबकि इस्लाम और ईसाई समाज में विवाह एक कॉन्ट्रैक्ट है, संविदा है और यह कॉन्ट्रैक्ट या संविदा वासना की पूर्ति का एक माध्यम है। वंश वृद्धि उसमें बातों बातों में आ जुड़ती है। आज भारत समान नागरिक संहिता स्थापित करके विवाह, तलाक, विरासत या बच्चा गोद लेने जैसे कानूनों को समरूपता देने की अंगड़ाई ले रहा है।
जब देश आजाद हुआ तो अंग्रेजों और मुसलमानों की इस प्रकार की दोगली व्यवस्थाओं को देश के तत्कालीन नेतृत्व ने यथावत स्वीकार कर लिया। कहीं मुसलमानों का पर्सनल लॉ लागू रखने पर सहमति दी गई तो कहीं अंग्रेजी कानून को बड़े प्रभावी ढंग से यथावत लागू किया गया। तलाक या डाइवोर्स जैसी व्यवस्था को भारत में लागू करना सचमुच एक निंदनीय अपराध था । पर ऐसा किया गया। यदि समान नागरिक संहिता में विश्वास रखने वाले महर्षि दयानंद जी की नीतियों पर काम किया जाता तो विवाह , वैवाहिक संबंध और वैवाहिक स्थिति से संबंधित सभी विधि व्यवस्थाओं में समरूपता रखी जाती। उस समय आर्य समाज ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया और ऐसा कहीं कोई इतिहास नहीं मिलता जब आर्य समाज ने नेहरू की इस प्रकार की नीतियों को लेकर कोई बड़ा देशव्यापी आंदोलन चलाया हो।
हिंदू कोड बिल और नेहरू
इस संदर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल लाकर लैंगिक समानता को स्थापित करने का प्रयास किया था। उस समय उनके इस प्रयास का भरपूर विरोध हुआ था। उस विरोध के पर्याप्त कारण थे। सबसे पहली बात तो यह थी कि पंडित जवाहरलाल नेहरू भारतीय समाज में प्रचलित वैदिक मान्यताओं की प्राचीनता, उनकी पवित्रता और उनकी निष्पक्षता को लेकर सदा अस्पष्ट रहे। यदि वह स्पष्ट होते तो निश्चित रूप से भारत के तत्संबंधी प्राचीन विधिक प्राविधानों, स्मृतियों, वेद उपनिषद, रामायण ,महाभारत आदि की समीक्षा करवाते और फिर देश में हिंदू कोड बिल जैसा शब्द न लाकर उसी समय यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने का सत्प्रयास करते। वह साहस दिखाते कि देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वैदिक मान्यताओं में यदि हिंदू समाज के भीतर कहीं घुन लग गया है या जंग लग गई है तो हम उसको साफ करते हुए संपूर्ण भारतीय समाज के लिए एक जैसा कानून लाएंगे। पर उन्होंने ऐसा ना करके केवल हिंदू समाज के लिए कोड बिल लाने का काम किया।
इस हिंदू कोड बिल के माध्यम से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भारत के गैर हिंदुओं को ही नहीं बल्कि दुनिया भर के देशों को यह संदेश दिया कि हिंदू समाज की परंपराएं गली सड़ी हैं और हम इनमें व्यापक सुधार करने की क्षमता और साहस रखते हैं। नेहरू ही ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने हिंदू समाज में विवाह जैसी पवित्र संस्था को अपमानित करते हुए उसमें तलाक जैसा शब्द जोड़ा। ऐसा करके नेहरू जी ने भारत के वैदिक हिंदू समाज को इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों के निकट लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने ऐसा काम करते समय यह भी प्रचार किया कि वह ऐसा करके अपनी प्रगतिशील बुद्धि और बौद्धिक क्षमताओं का प्रदर्शन कर रहे हैं।
नेहरू की बौद्धिक क्षमताओं की प्रगतिशीलता का ही परिणाम है कि आज बहुत बड़ी संख्या में हमारी बहनें तलाक का शिकार हो चुकी हैं। तलाक नाम का यह हथियार हमारी सामाजिक परिस्थितियों और परंपराओं को बड़ी तेजी से काट छांट रहा है और उन्हें बोझिल व चोटिल करता जा रहा है।
नेहरू अपनी बात से पलटी खा गए
1930 में नेहरू समान नागरिक संहिता लाने की बात कर रहे थे और आजादी के एकदम बाद वह समान नागरिक संहिता के स्थान पर हिंदू कोड बिल की वकालत करने लगे। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 1949 में नेहरू के इस प्रयास का तीखा विरोध किया था। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति का कहना था कि इस समय देश की संसद देश के लोगों के द्वारा विधिवत चुनी गई संसद नहीं है। यदि आप हिंदू कोड बिल लाना चाहते हैं तो चुनी हुई संसद के माध्यम से ऐसा बिल लाया जाना उचित होगा। इसके अतिरिक्त उनका यह भी कहना था कि देश में हिंदू कोड बिल की नहीं बल्कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है। उनकी मान्यता थी कि हिंदू कोड बिल में जिस प्रकार मुसलमान ,ईसाई, यहूदी, पारसी आदि को अलग रखा गया है उसे देश की सामाजिक परिस्थितियों और एकता व अखंडता के दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। अच्छा होगा कि इस कोड बिल में देश के सभी लोगों को आज ही सम्मिलित कर लिया जाए।
यदि नेहरू तत्कालीन राष्ट्रपति की बात को मान लेते तो निश्चित रूप से यह बहुत ही अच्छा होता। पर उन्होंने इसे माना नहीं और 1956 में जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद पर भारी दबाव बनाकर इस बिल पर हस्ताक्षर करवा दिए।
आज आर्य समाज के लिए आवश्यक है कि वह भारत की वर्ण व्यवस्था ,16 संस्कारों की पवित्र व्यवस्था और चार आश्रमों की व्यवस्था को स्थापित करने के लिए तत्संबंधी वैदिक विधिक प्राविधानों को संकलित कर वर्तमान सरकार से उसे संपूर्ण देश में लागू कराने का कार्य संपादित करे।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में संविधानेत्तर रूप में मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड काम कर रहा है। इसे संसद ने नहीं बनाया और देश के संविधान ने ऐसे किसी पर्सनल ला बोर्ड की कहीं पर व्यवस्था नहीं की है। यह आजादी के बहुत पश्चात इंदिरा गांधी के शासनकाल में स्थापित किया गया बोर्ड है। हम यह भी जानते हैं कि इस बोर्ड ने देश में आग लगाने का काम किया है। आर्य समाज की सक्रिय भूमिका के चलते इस प्रकार के पर्सनल ला बोर्ड को समाप्त करवाया जाना समय की आवश्यकता है।
कई लोगों की उत्साही और मूर्खतापूर्ण मांग होती है कि यदि देश में मुस्लिम पर्सनल ला है बोर्ड है तो हिंदू लॉ बोर्ड भी होना चाहिए। इसे कुछ लोग वैदिक लॉ बोर्ड के नाम से कहना चाहेंगे। हमारा मानना है कि भारत में केवल भारतीयता की बातें की जाएं। यदि एक मूर्खता पहले मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड स्थापित करके की जा चुकी है तो दूसरी गलती करना समझदारी नहीं होगी। हम पहली गलती को सुधारने के लिए काम कर रहे हैं ना कि दूसरी गलती करने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में यह समाज के विद्वानों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इन लोगों ने सदा ही अपने तर्क और विवेक से विरोधियों को या विसंगतियों को परास्त किया है। आज भी इनसे अपेक्षा की जाती है कि यह संपूर्ण देश में विधिक व्यवस्थाओं के क्षेत्र में समरूपता स्थापित करने के लिए वैदिक और आर्ष ग्रंथों की समीक्षा प्रस्तुत कर उसे एक लघु ग्रंथ के रूप में सरकार को प्रस्तुत करे।
आर्य समाज को क्या करना चाहिए ?
यदि स्वामी दयानंद जी महाराज अपने समय में अकेले ही क्रांति का बिगुल फूंक सकते थे और दुनिया को नई राह दिखा सकने में सक्षम हो सकते थे तो आज के आर्य समाज के लाखों करोड़ों लोग ऐसी योजना क्यों नहीं बना सकते जो भारत की शासन व्यवस्था की सड़ी गली हुई व्यवस्थाओं को समाप्त करने में सहायक हो ? चुनौती भरी हुई व्यवस्था और परिस्थितियों के दृष्टिगत आर्य समाज को भारत की वैदिक मान्यताओं को भारत के वैदिक हिंदू समाज में यथावत लागू करने के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता है।
आज की न्याय व्यवस्था में बैठे न्यायाधीश भी जिस प्रकार भारत की वैदिक मान्यताओं का मखौल उड़ा रहे हैं वह चिंता का विषय है। आर्य समाज को चाहिए कि वैदिक मान्यताओं में विश्वास रखने वाले जनप्रतिनिधियों को शासन में भेजने के लिए लोगों को प्रेरित करे। शिक्षा नीति में व्यापक परिवर्तन करने के लिए सरकार पर दबाव बनाए। माना कि केंद्र की मोदी सरकार आर्य समाज के लिए बहुत कुछ अनुकूल परिवेश सृजित करने का काम कर रही है, पर इसके उपरांत भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। तलाक जैसी बीमारी जिस प्रकार समाज को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है, वह हम सबके लिए चिंता का बहुत बड़ा कारण है। आज की परिस्थितियों में माता-पिता उपेक्षित हो रहे हैं , अनेक माताएं बहू से उत्पीड़ित होकर न्यायालय की शरण में जा रही हैं । इन सब स्थिति परिस्थितियों को देखकर लगता है कि भारत को एक सुनियोजित षड़यंत्र के अंतर्गत उजाड़ने का काम किया जा रहा है। सामने खड़ी इस बहुत बड़ी चुनौती को आर्य समाज को समझना होगा। यदि भारत को बचाना है तो इस स्थिति का डटकर सामना करना ही होगा।
देश में समान नागरिक संहिता लागू होना समय की आवश्यकता है। पर इसे वैदिक समाज व्यवस्था के अनुसार लागू किया जाना उचित होगा। किसी भी संप्रदाय या समुदाय को उसके व्यक्तिगत कानूनों के आधार पर किसी भी प्रकार की छूट नहीं दी जानी चाहिए। यदि किसी संप्रदाय के निजी कानून को लागू करने की छूट दी गई तो असमान नागरिक संहिता का बीज धरती में कहीं छुपा रह जाएगा। जो कि आगे चलकर बहुत कष्टकारी होगा। आर्य समाज ऋषि के सपनों का समाज निर्माण करने के लिए कार्य करे।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने गुण ,कर्म, स्वभाव को वर्ण निर्धारण का मानदंड माना है। उन्होंने यास्काचार्य के ‘निरुक्त’ को इस संबंध में प्रमाण के रूप में भी प्रस्तुत किया है । डॉ प्रशांत वेदालंकार ने लिखा है कि ‘वर्ण व्यवस्था में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि जिसकी जो वृत्ति ( स्वभाव ) है, जिसकी जो योग्यता है, जो जितना परिश्रम करता है, उसको वही प्राप्त होना चाहिए।’
मनुष्य की प्रकृति के बारे में विद्वानों का मत है कि यह सत्व, रजस और तमस से निर्मित है । त्रिगुणात्मिका प्रकृति की इन तीनों अवस्थाओं से मनुष्य की प्रकृति के निर्मित होने के कारण त्रिगुण की मात्रा भेद से मनुष्यों के स्वभाव में भी भेद होता है।
स्वभाव के इस भेद के चलते ही मनुष्य के वर्ण का निर्धारण होता है। हमारे ऋषि चिंतकों ने बड़ी गहराई से चिंतन , मनन और गहन अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों के कारण तीन वर्णों या वर्गों में विभक्त है। डॉ प्रशांत वेदालंकार कहते हैं कि इनमें से एक वर्ग सम्मान का इच्छुक है, द्वितीय वर्ग प्रभुता, स्वामित्व और अधिकार का तथा तीसरा धन संपत्ति के अधिकाधिक अर्जन में पूर्ण सुख अनुभव करता है। सात्विक वृत्तियों की प्रधानता वाला व्यक्ति ब्राह्मण राजस प्रवृत्तियों की प्रधानता वाला व्यक्ति क्षत्रिय, सात्विक, राजस तथा तामस तीनों प्रवृत्तियों वाला व्यक्ति वैश्य और तामस प्रवृत्तियों की प्रधानता वाला व्यक्ति शूद्र होता है। संसार के सभी मनुष्य किसी भी देश, जाति और धर्म के हो सकते हैं। ब्राह्मण आदि की प्रवृत्तियों में से किसी न किसी एक प्रवृत्ति वाले अवश्य होंगे।’
हमने इस उद्धरण को यहां पर जानबूझकर लिया है । केवल इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि नैसर्गिक आधार पर अर्थात गुण ,कर्म, स्वभाव के आधार पर जो अंतर मनुष्य मनुष्य के भीतर दिखाई देता है, वह प्रारब्ध के आधार पर भी हो सकता है। परमपिता परमेश्वर की न्याय व्यवस्था में हम हस्तक्षेप करने वाले आखिर होते कौन हैं ? उसने जैसा जिसको बनाया है, उसे वैसा ही रहने देना हमारा कर्तव्य है। जब हम किसी के साथ शोषण की नीति पर उतर आते हैं तो वह परमपिता परमेश्वर की व्यवस्था में हस्तक्षेप करने के समान होता है। हम नैसर्गिक अंतर को मानव द्वारा निर्मित किए गए किसी काल्पनिक अंतर में परिवर्तित ना करें। बस, इसी बात को स्वामी दयानंद जी महाराज ने डंके की चोट हम सब के बीच उठाया और कहा कि मनुष्य मनुष्य का शोषण न करे। वह किसी पर अत्याचार न करे। किसी के अधिकारों का अतिक्रमण न करे। यदि मनुष्य ऐसी दुष्प्रवृत्तियों को अपनाता है तो वह संसार में असमानता पैदा करने का दोषी हो जाता है। यदि स्वामी दयानंद जी महाराज के इस दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो पता चलता है कि स्वामी जी महाराज व्यक्ति को आंतरिक रुप से स्वस्थ , पवित्र और एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव रखने वाला बनाकर समान नागरिक संहिता को आत्म शुद्धि से जोड़कर देखते थे।
आज आर्य समाज को इसी आत्मिक शुद्धि को समान नागरिक संहिता के संदर्भ में स्वाभाविक रूप से अपनाने के लिए लोगों को तैयार करने की आवश्यकता है।
(आर्य समाज एक क्रांतिकारी संगठन ना मक मेरी पुस्तक से)
मुख्य संपादक, उगता भारत