प्राण प्रतिष्ठा –एक विवेचन* भाग 2

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(इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है ,लेकिन इस विषय पर वैदिक विचार रखना भी जरुरी है )
डॉ डी के गर्ग
भाग-2
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योगदर्शन में मुख्य प्राण ५ बताए गए है जिनके नाम इस प्रकार है ,
१. प्राण ,
२. अपान,
३. समान,
४. उदान
५. व्यान

और उपप्राण भी पाँच बताये गए है ,
१. नाग
२. कुर्म
३. कृकल
४. देवदत
५. धनज्जय

मुख्य प्राण :-
१. प्राण :- इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है . नेत्र , श्रोत्र , मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है . यह सभी प्राणों का राजा है . जैसे राजा अपने अधिकारीयों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है , वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है .

२. अपान :- इसका स्थान नाभि से पाँव तक है , यह गुदा इन्द्रिय द्वारा मल व वायु को उपस्थ ( मुत्रेन्द्रिय) द्वारा मूत्र व वीर्य को योनी द्वारा रज व गर्भ का कार्य करता है .
३. समान :- इसका स्थान ह्रदय से नाभि तक बताया गया है . यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस , रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है.

४. उदान :- यह कण्ठ से सिर ( मस्तिष्क ) तक के अवयवों में रहेता है , शब्दों का उच्चारण , वमन ( उल्टी ) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक ( उत्तम योनि ) में , बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक ( अर्थात सूअर , कुत्ते आदि की योनि ) में तथा जिस आत्मा ने पाप – पुण्य बराबर किए हों , उसे मनुष्य लोक ( मानव योनि) में ले जाता है ।
५. व्यान :- यह सम्पूर्ण शरीर में रहेता है । ह्रदय से मुख्य १०१ नाड़ीयाँ निकलती है , प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ है तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ है । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा- उपशाखाओं में यह रहता है । समस्त शरीर में रक्त-संचार , प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।

उपप्राण :-
१. नाग :- यह कण्ठ से मुख तक रहता है । उदगार (डकार ) , हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते है ।

२. कूर्म :- इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है , यह नेत्रा गोलकों में रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ , ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की किया करता है । आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है ।

३. कूकल :- यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा ( जंभाई =उबासी ) , भूख , प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है ।

४. देवदत्त :- यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है । इसका कार्य छिंक , आलस्य , तन्द्रा , निद्रा आदि को लाने का है ।
५. धनज्जय :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है , इसका कार्य शरीर के अवयवों को खिचें रखना , माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है । शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है , फलतः इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है ।
जब शरीर विश्राम करता है , ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है , मन शांत हो जाता है । तब प्राण और जीवात्मा जागता है । प्राण के संयोग से जीवन और प्राण के वियोग से मृत्यु होती है ।
अतः स्पष्ट है की जीव का अंन्तिम साथी प्राण है ।

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