वैदिक सम्पत्ति – 300 वेदमंत्रों के उपदेश

[यह लेखमाला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।]
प्रस्तुति:-देवेंद्र सिंह आर्य
(अध्यक्ष ‘उगता भारत’)

गतांक से आगे…

हवनीय हविष को सैकड़ों गुरणदायक और आयु बढ़ानेवाली औषधियों को डालकर तैयार किया है, इसलिए हे यज्ञपति इन्द्र ! आप इस संसार में फैले हुए रोग को हटाकर इस बीमार को सौ वर्ष की आयु प्रदान करें ।

इन मन्त्रों में अनेकों औषधियों का हवन करके अज्ञात और सर्वत्र फैले हुए चेपी और मारक रोगों को हटाने का उपदेश है । ऐसे यज्ञों का माहात्म्य वर्णन करते हुए वेद उपदेश करते हैं कि

उतिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवान् यज्ञेन बोधय ।
आयुः प्राणं प्रजां पशून कीत्ति यजमानं च वर्धय || (अथर्व० १६६३।१)

अर्थात् हे ब्रह्मणस्पते ! उठो और यज्ञों से देवताओं को जगा दो, जिससे आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति और
राजा की उन्नति हो । यश का इस प्रकार माहात्म्य बताकर यज्ञ में सबसे प्रधान वस्तु अग्नि का वर्णन करते हैं। यजुर्वेद में लिखा है कि-

दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परि जातवेदाः ।
तृतीयमप्सु नृमणा अजस्त्रमिन्धान एवं जरते स्वाधीः ।। (यजु० १२।१८)

अर्थात् पहिला अग्नि-सूर्य-द्यौ से पैदा हुआ, दूसरा जातवेद हमसे ( पृथिवी पर ) पैदा हुआ और तीसरा (विद्युत) अन्तरिक्ष के जलों से पैदा हुआ। इस मन्त्र में अग्नि के तीन रूप तीन स्थानों में बतलाये गये हैं। इसके आगे अग्नि को देवताओं तक हुत द्रव्यों के पहुँचाने वाला दूत कहा गया है। यजुर्वेद में लिखा है कि-

अग्नि दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रु वे।
देवां २ मा सादयादिह । (यजु० २२/१७)
अर्थात् पूर्व ही अग्निदूत को धारण किया गया है और यह हव्य पदार्थों का ढोनेवाला कहा गया है। यह देवता तक पदार्थों को पहुंचाता है, अतः यज्ञ के लिए इस अग्नि की स्थापना इस प्रकार बतलाई गई है कि

भूर्भुवः स्वयोरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे ।। (यजु० ३।५)

अर्थात जिस प्रकार आकाश में स्थित महान् सूर्य इस विस्तृत पृथिवी के ऊपर देवयज्ञ कर रहा है, उसी प्रकार भोज्य पदार्थों के लिए मैं भी इस अग्नि की स्थापना करता हूँ। इसके आगे अग्नि को प्रदीप्त करने के लिए लिखा है कि-

उद्बुध्यस्वान्ने प्रति जागृहि स्वमिष्ठापूर्ते स सृजेथामयं च ।

अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्व देवा यजमानश्च सीबत ।। (यजु० १५।५४)

अर्थात् हे अग्नि ! तू प्रदीप्त हो और हमको सतेज कर तथा तू और हम मिलकर इष्ट सुख की मुक्ति और प्राप्ति करें, जिससे यहाँ हम और अन्य यजमान तथा दूसरे विद्वान् भी यज्ञ किया करें। इसके आगे समिधा में घी डालने की विधि बतलाते हैं ।

समिति दुवस्यतर्तर्बोधयतातिथिम् । अस्मिन् हव्या जुहोतन ।। (यजु० १२।३०)

अर्थात् समिधा से अग्नि को प्रदीत करो, घृतादि से उसे प्रज्वलित करो, उस प्रदीप्त हुए अग्नि में हवन करो। इसके आगे यह बतलाते हैं कि हवन किये गये पदार्थ किस प्रकार वायु की मलिनता को दूर करते हैं।

तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन दर्शयामसि । बृहच्छोचा यविष्ठय || (यजु० ३।३)

हे अंगारो ! बढ़ी हुई अग्निओ ! तुम सब पदार्थों को (विप्लव) छेदन-भेदन करके (बृहत्-सोचः) महान् शुद्धि करनेवाले हो । इसीलिए समिधाओं और घृत से हम तुम्हें बढ़ाते हैं । इन मन्त्रों में अग्नि को जलाने, प्रदीप्त करने और उसके द्वारा पदार्थों के छेदन-भेदन की क्रिया को बतलाकर अब यह बतलाते हैं कि यह अग्नि वायु को छूत पदार्थ देता है। ऋग्वेद में लिखा है कि-

आत्मा देवानां भुवनस्य गर्भो यथावशं चरति देव एषः ।
घोषा इदस्य वि
श्रृण्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥ ( ऋ० १० १६६४)

अर्थात् देवताओं का आत्मा और भुवन का गर्भ यह वायु अपनी इच्छा से चलता है । यद्यपि इसका शब्द ही सुनाई पड़ता है, रूप देखने को नहीं मिलता, तथापि हम उसके लिए हविष देते हैं।

देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित । मनसस्पत इमं देव यज्ञ स्वाहा बाते घाः (यजु० ८।२१)

अर्थात् हे हमारे मन के पति ! इस यज्ञ को सुहुत बनाकर हुत द्रव्यों को वायु पर स्थापित करो और मार्ग की खोज लगानेवाले हुत ‘द्रव्यों से कहो कि वे अपने मार्ग से जायें। इस मन्त्र में यज्ञ के हुत पदार्थों को वायु में जाने देने का उपदेश किया गया है।
क्रमशः

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