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आज का चिंतन भारतीय संस्कृति

16 संस्कार और भारतीय संस्कृति : भाग 5

9 . कर्णवेध संस्कार

  कर्णवेध संस्कार को आज की युवा पीढ़ी ने अपनाने से इंकार कर दिया है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से इस संस्कार को अंग्रेजीपरस्त लोगों ने हमारे लिए अनुपयोगी सिद्ध करने का प्रयास किया । प्रचलित शिक्षा प्रणाली में हमारे भीतर कुछ इस प्रकार के अवगुण भरने का प्रयास किया गया जिससे भारत के लोगों की अपने सांस्कृतिक मूल्यों और संस्कारों के प्रति उपेक्षावृत्ति स्पष्ट होने लगी । इस उपेक्षावृत्ति की सबसे खतरनाक गाज कर्णवेध जैसे पवित्र संस्कारों पर पड़ी । जिसका परिणाम यह हुआ कि आज यह संस्कार लगभग समाप्त हो गया है। 
कर्णवेध संस्कार को पश्चिम के लोगों ने तो हमें अवैज्ञानिक और बुद्धि के विरुद्ध बताया , परंतु सच यह है कि कर्णवेध संस्कार पूर्णतया वैज्ञानिक परम्परा पर आधारित संस्कार है ।शारीरिक व्याधियों से बालक की रक्षा करना इस संस्कार का प्रमुख उद्देश्य है । कान वास्तव में ही हमारे शरीर में बहुत महत्वपूर्ण अंग हैं । इनसे हम बाहरी जगत की प्रत्येक बात को सुनते हैं । जैसा सुनते हैं वैसा ही देखने का प्रयास करते हैं और देखे व सुने को फिर हमारी बुद्धि किसी निर्णय – निश्चय तक पहुंचाने का काम करती है । इस प्रकार कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्णवेधन  संस्कार के द्वारा बालक के कान छेदे जाते हैं जिससे व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इस संस्कार के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों का रक्त प्रवाह अच्छा बना रहता है । जिससे श्रवण शक्ति में बढ़ोतरी होती है । साथ ही कई प्रकार के रोगों को भी होने से रोका जा सकता है । कई लोग कानों के छिद्रों को बनाए रखने के लिए उनमें आभूषण भी पहन लिया करते हैं। 
सुश्रुत में लिखा है- ”रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते“ अर्थात् बालक के कान दो उदेश्य से बींधे जाते हैं। बालक की रक्षा तथा उसके कानों में आभूषण डाल देना। देश के जिन अंचलों या क्षेत्रों में इस संस्कार को कराए जाने की परंपरा सौभाग्यवश अभी बनी और बची हुई है , वहां पर इस संस्कार को कोई भी सुनार या कोई भी ऐसा व्यक्ति कर देता है जो छिद्र करने में कुशल हो। परन्तु सुश्रुत में लिखा है ”भिषक् वामहस्तेनाकृष्य कर्णं दैवकृते छिद्रे आदित्यकरावभास्विते शनैः शनैः ऋजु विद्धयेत्“- अर्थात् वैद्य अपने बाएं हाथ से कान को खींचकर देखे, जहां सूर्य की किरणें चमकें वहां-वहां दैवकृत छिद्र में धीरे-धीरे सीधे बींधे। इसका अभिप्राय है कि कर्ण छेदन संस्कार बहुत ही वैज्ञानिक रीति से संपन्न किया जाना चाहिए । इसका उद्देश्य केवल कान को छेदना मात्र नहीं है , अपितु इसका एक स्थान विशेष है , जहां से इसको छेदना चाहिए । क्योंकि उसी स्थान पर छेदने से इसके वैज्ञानिक लाभ मिलने संभावित हैं ।

  1. यज्ञोपवीत संस्कार

 यज्ञोपवीत संस्कार का भी भारत के समाज में विशेष महत्व है । इस संस्कार को हम आज भी अपनाए हुए हैं ।अधिकांश वैदिक परंपरा को मानने वाले परिवारों में इस संस्कार को अभी भी कराया जाता है । इस संस्कार का भी अन्य संस्कारों की भांति एक वैज्ञानिक महत्व है । यज्ञोपवीत के तीनों धागे हमें बहुत कुछ गहरा संदेश देते हैं । देवऋण , ऋषिऋण और पितृऋण इन तीनों से उऋण होने की हमारी संकल्प शक्ति में वृद्धि करते हैं । साथ ही हमें कई प्रकार के रोगों से भी बचाते हैं । यज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन संस्कार भी कहा जाता है । यज्ञोपवीत सूत से बना वह पवित्र धागा है जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर और दाईं भुजा के नीचे पहनता है।  उपनयन का अर्थ है पास ले जाना अर्थात जिस संस्कार के माध्यम से हम गुरु के पास जाते हैं , गुरु का सान्निध्य और सामीप्य पाकर अपने जीवन को उन्नत करने लगते हैं और हमारा गुरु हमारे समाजीकरण और देवत्वीकरण की प्रक्रिया को प्रारंभ कर हमें उन्नत करने लगता है उस संस्कार को हम उपनयन संस्कार के नाम से जानते हैं। 
इस संस्कार के माध्यम से हम गुरु के तेज को प्राप्त कर परमपिता परमेश्वर के तेज को धारण करने की शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त करने लगते हैं। इससे हमारा आत्मिक , मानसिक और शारीरिक विकास होने लगता है । तेज को धारण करने का अभिप्राय है कि आत्मस्वरूप को जानकर परमात्मस्वरुप को समझने की ओर चल पड़ना।
विद्वानों का मानना है कि आचार्य तथा बच्चा सम-हृदय, सम-चित्त, एकाग्र-मन, सम-अर्थ-सेवी हो। लेकिन इस सब में आचार्य आचार्य हो तथा शिष्य शिष्य हो। आचार्य परिष्कृत बचपन द्वारा बालक के सहज बचपन का परिष्कार करे। यह महत्वपूर्ण शर्त है। आचार्य बच्चे के विकास के विषय में सोचते समय अपनी बचपनी अवस्था का ध्यान अवश्य ही रखे। इस संस्कार के द्वारा आचार्य तथा बालक शिक्षा देने-लेने हेतु एक दूसरे का सम-वरण करते हैं। यह बिल्कुल उसी प्रकार होता है जैसे मां गर्भ में अपने शिशु का और शिशु अपनी मां का वरण करता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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