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महान शूरवीर योद्धा हरि सिंह नलवा ने जब पठानों को अपने शौर्य से रौंद डाला तो वह एक दिन अपनी मां से बोला – मां मेंने तेरे दूध को सफल कर दिया, मैं तेरे ऋण से उऋण हुआ।माँ मुस्कराई । हरि सिंह ने जब पुनः कहा- मां मेरे योग्य कोई सेवा बताइए तो मां बोली- बेटा और तो कुछ नहीं आज रात्रि को तुम मेरे साथ सो जाना जैसे तुम बचपन में सोते थे।

हरि सिंह को बड़ा अजीब लगा, पर मां की आज्ञा शिरोधार्य की। शीत ऋतु थी। मां ने हरी सिंह की तरफ का बिछौने का भाग पानी से भिगो दिया था। हरि सिंह ज्यों ही लेटने लगा कि चीख़ पड़ा- मां यह क्या शरारत है? मां हंस पड़ी बोली मेरे लाल बस, इसी बूते पर कहते थे की मां मैं तेरे ऋण से उऋण हुआ।

मेरे लाल ,न जाने कितनी बार तू यह शरारत करता रहा है। घोर शीत में जब तू यह शरारत करता था तो मैं स्वयं तुझे गीले में सोकर तुझे दूसरी ओर सुलाती । जब दूसरी ओर भी पेशाब कर देता था तो मैं तुझे छाती से लगाकर सुलाती थी। तू तब भी ‘शरारत’ कर देता था। बोल हरिया, तुमने मां का ऋण चुका दिया?’

हरि सिंह ने मां के पैर पकड़ लिये। रूधे कण्ठ से बोला- ‘मां क्षमा करो’। मां प्रसन्न हुई उसे कुछ अहसान नहीं जताना था, बेटे का अभिमान दूर करना था।

शांतिधर्मी दीपावली अंक 2023 साहित्यिक मासिक पत्रिका से साभार।

प्रस्तुति कर्ता आर्य सागर खारी✍

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