डॉ डी के गर्ग

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पवित्रता, प्रेम, शांति, खुशी, इन्हें दैवीय संस्कार कहते हैं। और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये आसुरी संस्कार हैं। दोनों ही हर आत्मा में हैं। इसलिए आसुरी संस्कारों पर विजय भी हमें स्वयं ही प्राप्त करनी होगी। आत्मा शरीर के माध्यम से कर्म करती है।और शरीर के माध्यम से ही सुख और दुःख का अनुभव आत्मा को होता है। इसके लिए शरीर शुद्धि अति आवश्यक है। शरीर शुद्धि से प्राण शुद्धि,प्राण शुद्धि से विचार शुद्धि,विचार शुद्धि से आत्मशुद्धि यह क्रमशः प्रक्रिया है अध्यात्म के मार्ग की। इसमें कोई फेरबदल की संभावना नहीं है।

आप सभी जानते हैं की शरीर में ९ द्वार है ,जो ९ दुर्ग की भांति मजबूत है। जिनमें आँख , कान , नाक , मुँह ,गुदा आदि है। यद्यपि सभी दुर्ग आपस में एक दुसरे से जुड़े हुए है और एक दुसरे के सम्पर्क में होते हैं लेकिन एक दुसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते। अपना अपना काम करते हैं जैसे की कान से श्वास नहीं ले सकते , नासिका से श्वास लेते हैं लेकिन देख नहीं सकते ,मुँह से भोजन लेते हैं।लेकिन सुन नहीं सकते। इस प्रकार सभी ९ दुर्ग अपने अपने जगह किले की भांति मजबूती से कार्य करते हैं। इसी आलोक में मानव के शरीर को ९ द्वारों का पिंजड़ा कहा जाता है ।
ईश्वर ने ९ द्वार तो दिए हैं।लेकिन उनकी देखभाल की जिम्मेदारी भी दी है। ऐसा ना करने पर आप बीमारी को आमंत्रित कर रहे हैं। प्राकृतिक तरीके से शरीर शुद्धि को मानव का धर्म बताया गया है।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- ‘कुमारसम्भव’ में एक अनुपम बात लिखी- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ अर्थात् — इसका अर्थ है कि शरीर की सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है।

अब ये कैसे करना चाहिए ?
आप जानते है की वर्ष में दो बार मौसम बदलता है और दोनों बार नवरात्रि पर्व मनाया जाता है। इन ९ दिनों में अल्प भोजन ,उपवास करना , तामसिक भोजन नहीं करना और ईश्वर को याद करना शामिल है। ताकि दिन रात कार्य करने वाले ९ द्वार को विश्राम मिल सके और उपवास द्वारा इनकी शुद्धि की जा सके।
चूँकि शरीर का निर्माण माँ करती है ,ईश्वर को भी माँ कहा जाता है ,इसी अलोक में नव दूरः का भावार्थ अलंकार की भाषा में ९ दुर्ग वाली माँ कहा गया है।
माता -यो मिमीते मानयति सर्वाञ्जीवान् स माता’
जैसे पूर्णकृपायुक्त जननी अपने सन्तानों का सुख और उन्नति चाहती है, वैसे परमेश्वर भी सब जीवों की बढ़ती चाहता है, इस से परमेश्वर का नाम ‘माता’ है।मां अपने बच्चे की प्रथम गुरु होती है और अपने मार्गदर्शन से उसको पैरों पर खड़ा होकर चलने से लेकर विषम परिस्थितियों के दुर्ग से बाहर निकलने में समर्थ बनाने के लिए प्रशिक्षित करती है।इसलिए मां को से दुर्गा मां ,दुर्गा शक्ति की संज्ञा दी गई है।
शक्ति की उपाधि: (शक शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। ‘यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः’ जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’है। इस अलोक में इस चित्र के माध्यम से कहा है की महिला जो देवी है , जननी है और ईश्वर तुल्य है।और पूजनीय है ,सम्माननीय है क्योकि वह जन्म देने से लेकर ,पोषण करती है और संस्कार द्वारा संतान की पहली गुरु भी है ,ये शक्ति और आदर्श का प्रतीक है।
संक्षेप में इस चित्रण द्वारा एक अच्छा सन्देश देने का प्रयास किया है।

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