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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -19 ख बालक चीखते रहे और वे काटते रहे

  हम कई बालक उस समय ऐसे थे जो राक्षस बने उन हत्यारे मुसलमानों के पैरों तले पड़े चीत्कार कर रहे थे, परन्तु उन्होंने लगातार कत्लेआम जारी रखा। हमारी चीख-पुकार या रोने धोने का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे निर्भय होकर पूरी बर्बरता के साथ अपना काम करते रहे। ऐसे लोगों के बारे में किसी शायर ने ठीक ही तो कहा है: - 

एक ही अनुभव हुआ है आदमी की जात से।
जिंदगी काटे नहीं कटती महज जज्बात से।।
आह भरने से नहीं सैयाद पर होता असर ,
टूटता पाषाण है, पाषाण के आघात से।।

हमारे में से कुछ लोग चुपके से विद्यालय के कक्ष में जा छुपे। वे कक्ष बहुत ही छोटे थे।अतः हम सबने चुपचाप एक दूसरे के ऊपर बैठकर पूरी रात बिताई। अगले दिन भारतीय सेना के वीर हमें रेलगाड़ी से भारत ले आये। उस काल की दुर्दशा कैसे बताऊं ? कुछ समय बाद न जाने कैसे हमारी दादी जी हमसे मिलने आईं ।उन्होंने बताया – भारी संख्या में मुस्लिम चन्योट स्थित घर में आ घुसे और उन्होंने मेरे कानों में पड़ी बालियों को झपट लिया, मैं बेहोश हो गई। उन्होंने मुझे मरा हुआ मान लिया। तेरे पिताजी व दादाजी की हत्या कर दी । तेरी बुआ की युवा पुत्री को उठाकर ले गए। दादी जी बताती जा रही थीं और हम सबके आंसू बहते जा रहे थे। सारा परिवार बर्बाद हुआ। जो बचे थे, उनके पास बर्बादी की कहानी पर आंसू बहाने के सिवाय और कुछ नहीं था। बर्बाद परिवार की जिंदा कहानी को सुनकर रोंगटे खड़े हो रहे थे। एक हंसता खेलता परिवार जब उजड़ जाता है तो उसके उजड़ने की दास्तान कितनी गमगीन होती है ? – यह बात उस दिन दादी जी के मुंह से टपकते उन शब्दों को सुनकर एक दुखद अनुभूति के साथ प्रकट होती जा रही थी।
जब-जब भी दादी जी के बताए हुए उस विवरण की याद आती है तो शरीर सिहर उठता है। आंखों से अश्रुधारा बहने लगती है । अतीत की ऐसी भयावह यादें विरासत बनकर जिंदगी भर रुलाती रहेंगी – यह बात बचपन के उन दिनों में कभी सोची भी नहीं थी। पर आज देखती हूं कि आंसुओं की विरासत की एक लम्बी कहानी कलेजा में एक दर्द बनकर बैठी है।

लड़कियों की छाती पर लिखा था पाकिस्तान जिंदाबाद

हम लोग हिसार में रहने लगे। मैं प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिका बन गई। साथ में पढ़ाई भी करती रही। बाद में मैं हिसार के कॉलेज में प्रोफेसर बन गई। अनुज सतपाल को मैंने पढ़ा कर अध्यापक बना दिया ।विभाजन के उस काल में 600 हिंदू लड़कियों को भारत लाया गया। उन सबकी छातियों पर किसी नुकीले धारदार सुएं से मांस को चीर कर लिख दिया गया था “पाकिस्तान जिंदाबाद”।
उन बहनों में से जिससे भी मिली , उसने ही अपनी ऐसी दर्द भरी कहानी को बयां किया, जिसे यहां लिखा भी नहीं जा सकता। उन्होंने खून के आंसू रोते हुए अपनी दर्दभरी कहानी को मुझे बताया था। उनके गहरे दर्द को सुनकर मैं भी उनके साथ रोने लगी थी। उन सभी बहनों ने मुसलमानों के अत्याचारों को देखा ही नहीं था झेला भी था। उस देखने और झेलने की प्रक्रिया में वे कैसे जीवित रहीं ? यह बात मेरे लिए आज भी एक पहेली बनी हुई है।

सावरकर जी के बारे में

सावरकर जी के बारे में उस समय तो मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं थी। पर बाद में जब उनके बारे में जानने और समझने का अवसर मिला तो पता चला कि वह बहुत ही व्यवहारिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे। उस समय का कांग्रेसी नेतृत्व जहां अपने दोगले चरित्र के कारण हम हिंदुओं की रक्षा करने में पूर्णतया असफल रहा था, वहीं सावरकर जी जैसे लोग खतरे के प्रति पूर्णतया सजग थे। हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं के माध्यम से वे लोग उस समय हिंदुओं के बचाव के लिए बहुत बड़ा काम कर रहे थे। वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। यदि उनकी बात को समय रहते सुना जाता तो निश्चित रूप से 1947 में देश का बंटवारा नहीं होता। इसके साथ-साथ हमारे जैसे अनेक अभागे लोगों के साथ वे अत्याचार भी नहीं होते जो अब इतिहास का एक काला पृष्ठ बन चुके हैं। जिन कांग्रेसियों ने आलीशान अर्थात सभी सुख सुविधाओं से संपन्न जेलों में रहकर तथाकथित जेलें काटीं , वे आज इतिहास में सम्मान पाते हैं और जिन लोगों ने अनेक प्रकार के अत्याचारों को झेला, उनकी वह दर्दभरी कहानी भी इतिहास के कूड़ेदान की वस्तु बन गई। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि यदि आज भी सावरकर जी के विचारों के अनुसार कार्य किया जाए तो प्रत्येक प्रकार की सांप्रदायिकता का विनाश हो सकता है। सावरकर जी ने समय रहते मुस्लिमों की बढ़ती जनसंख्या पर प्रश्न चिन्ह लगाया था । उन बातों पर आज चर्चा होती है तो कई लोग अपने आपको सावरकरवादी कहने में गौरव की अनुभूति करते हैं। काश ! यह बात 1947 में देश के नेतृत्व की समझ में आ जाती तो कितना अच्छा रहता ?

देश के बारे में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि 1947 में मुसलमानों की कुल जनसंख्या भारत की जनसंख्या की 35% के लगभग थी। आजादी के शताब्दी समारोहों के समय यदि यह संख्या फिर 35% तक पहुंच गई तो ये 1947 को फिर दोहरा सकते हैं। मैं देश के लोगों से अपील करना चाहूंगी कि हम 2047 की प्रतीक्षा किए बिना और यह सोचे बिना कि उस समय हमें फिर कोई सावरकर आकर जगाएगा, अपने आप सावरकर वादी बनकर सजग और सावधान होकर आगे बढ़ें।
प्रसिद्ध लेखक सच्चिदानंद ने कहा कि अंडमान की यातनाओं के कारण कुछ कैदियों ने आत्महत्या की, तो कुछ पागल हो गए। लेकिन ये सभी कठोर यातनाएं सहकर वीर सावरकर ने राष्ट्रहित में हजारों पृष्ठों का साहित्य लिखा। धर्म का स्थान हृदय में बताते हुए कारावास में धर्मांतरित हिन्दुओं का शुद्धीकरण किया।
इस बात के दृष्टिगत हमें सावरकर जी को इतिहास में सम्मान को स्थान देना ही चाहिए।

  • श्रीमती राजकुमारी कपूर
    राजा पार्क ,शकूरबस्ती ,नई दिल्ली

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    ( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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