वेद में परिवार में सब सदस्यों को सामान्य रूप से सहृदयता आदि का उपदेश किया गया है। वेद के माध्यम से भगवान गृहस्थ आश्रम में संतान के (पुत्र वा पुत्री) के अपने माता पिता के प्रति एवं माता पिता के अपने पुत्र (वा पुत्री) के प्रति क्या कर्तव्य हैं इस पर प्रकाश डालता है। माता पिता को सावधान करते हुए यह उपदेश है कि वे अपने उत्तम आचरण एवं व्यवहारों के द्वारा संतान के सम्मुख ऐसा चित्र एवं चरित्र प्रस्तुत करें कि संतान को जहां उन पर गर्व अनुभव हो सके, वहां वह उनसे पग पग पर प्रेरणा भी ग्रहण कर सकें। मंत्र इस प्रकार है—
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु सम्मना:।
जाया पत्ये मधुमती वाचं वदतु शन्तिवाम।।
अन्वयार्थ: वे गृहस्थो? तुम्हारे घर में पुत्र पिता का अनुवर्ती अनुकूल आचरण करने वाला हो आज्ञाकारी हो और माता पिता के साथ समान मन वाला होवे, पत्नी पति के लिए मधुमयी शांति देने वाली वाणी बोले।
मंत्र के पूर्वाद्र्घ में यह बताया गया है कि अनुव्रत: पितु: पुत्र: मात्रा भवतु सम्मना: पुत्र: पितु: अनुव्रत: मात्रा सम्मना: भवतु पुत्र पिता का अनुव्रती हो-अनुकूल आचरण करने वाला हो आज्ञाकारी हो और वह अपने माता पिता के साथ समान मन वाला, एक मन वाला होवे।
मंत्र के प्रथम चरण में केवल तीन शब्द हैं जो बड़े ही महत्व के हैं, जिनसे कई प्रश्नों का समाधान हो जाता है। प्रथम तो यह है कि जो यक एक नवजात बालक है यह पुत्र कहलाता है। इसका इस गृहस्थ में बहुत बड़ा स्थान है, इस गृहस्थ में जो पुरूष है, उसका इस बालक से पिता पुत्र का संबंध है। यदि पुरूष इसका जनक है, उत्पादक है उत्पन्न करने वाला है। अत: यह इस बालक का जनक पिता कहलाताा है। इस पिता का यह कर्तव्य है कि यह अपने इस पुत्र का भली भांति पालन पोषणा करे। यह इसको विद्या सुशिक्षा से अलंकृत कर जगत में एक अच्छा मानव बनाकर खड़ा करने का प्रयास करे। ऐसे ही यह जो पुत्र है इसका यह कर्तव्य है कि यह अपने जनक पिता को देव देवता समझ कर इसका मान सम्मान करे। अर्थात इसकी आज्ञाओं के अनुसार कार्य करे। ऐसा करने पर इस बालक का पिता प्रसन्न होगा और इसके दिल से बच्चे के लिए आर्शीवाद निकलेगा।
ऐसे ही मंत्र के पूर्वाद्र्घ के दूसरे चरण में भी तीन ही शब्द हैं जिनसे कई बातों का पता चलता है। प्रसंग से यह ज्ञात होता है कि यह जो नवजात शिशु है। बालक है यह पुत्र कहलाता है। यह इस घर का उजाला माना जाता है। इस गृहस्था में जो नारी है उसका इस बालक से माता पुत्र का संबंध है। यह नारी इसकी जननी है, उत्पादक है उत्पन्न करने वाली है। अत: यह इस बालक की जननी माता कहलाती है। इस जननी का इस माता का यह कर्तव्य है कि यह अपने इस पुत्र का भली भांति लालन पालन करे पालन पोषण करे। इसको जीवन के प्रभात से ही लोरियां के द्वारा वा छोटी कहानियों के द्वारा विद्या सुशिक्षा एवं उत्तमोत्तम गुण कर्म स्वभावों से यह अलंकृत करती हुई जगत में एक अच्छे मानव के रूप में खड़ा करने का हार्दिक प्रयास करे। ऐसे ही यह जो पुत्र है, इसे चाहिए कि यह अपनी इस जननी को अपनी इस माता को देवता समझ कर इसका मान सम्मान करे और इसके साथ समान मन वाला होकर, एक मन वाला होकर सब कार्यों को करे।
अर्थात सदा यह सोचकर कार्य करे कि मेरे इस कार्य से मां का मन दुखी होगा वा सुखी? यह विचार करके जब यह कर्म करेगा तो फिर सदा इसके हाथों से जो होगा, वह शुभ ही शुभ होगा और फिर उससे इसकी मां की आत्मा सदा तृत्प रहेगी तथा हृदय से इसको आशीर्वाद देगी।
अब जो दंपत्ति जो पति पत्नी, जो नर नारी अपनी संतान को सुसंतान बनाना चाहते हैं, जो अपनी प्रजा को सुप्रजा बनाना चाहते हैं, अपने वीरों को सुवीर बनाना चाहते हैं, उनके लिए वेद का वा वेद में भगवान का यह आदेश है, यह उपदेश है कि वे अपनी आने वाली पीढ़ी के सम्मुख अपना ऐसा चित्र और चरित्र प्रस्तुत करें जिससे कि अबाध गति से ऊपर ही ऊपर उठते रहें, आगे ही आगे बढते रहें, उन्नत ही उन्नत सदा होते रहें। इसके लिए मंत्र के उत्तरार्ध में वेद कहता है कि जाया पत्ये मधुमती शांन्तिवां वाचं वदतु। जाया पत्नी नारी पति के लिए माधुर्युक्त शांतिप्रद उत्तम वाणी बोले। अर्थात नारी पति के साथ मधुर प्रेमयुक्त सम्भाषण करे। ऐसे ही पति भी पत्नी के साथ मधुर प्रेमयुक्त भाषण करे।

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