अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों के कारण बाबा रामदेव से दूरी बनायी गयी और संवैधानिक संस्थान व लोकतंत्र के पावन मंदिर संसद तक को भी अपशब्दों के तीरों से घायल किया गया। संवैधानिक मशीनरी को असंवैधानिक कृत्यों और शब्दों से रक्तरंजित करने का अनैतिक कार्य केजरीवाल एण्ड कंपनी करती रही, जिसे देश की जनता देखती रही और अंतत: उसने अपना स्पष्टï निर्णय दे दिया कि वह संवैधानिक उपायों से देश की अवस्था और व्यवस्था को सुधारने में ही अन्ना टीम के ऐसे वक्तव्यों से उसका कोई लेना देना नही है। लेकिन यहा यह भी सच है कि देश की जनता ने स्वयं को अन्ना से दूर नही किया है वह अन्ना का सम्मान करती है और उनके संघर्ष को नमन करती है, लेकिन उनका संघर्ष गलत हाथों में चला गया बस जनता के लिए यह स्थिति ही कष्टïप्रद रही। अब जनता को इस उदासीनता को देश की सत्तारूढ़ पार्टी के लोग और विशेषत: दिग्विजय सिंह जैसे लोग अपनी नीतियों का या कुशल रणनीति का परिणाम मान रहे हैं। वास्तव में यह उनकी भूल है। देश की जनता कांग्रेस के लिए सड़े टमाटर लेकर खड़ी है, कांग्रेस के लिए अच्छी बात ये है कि जनता के पास बेहतर विकल्प नही है। इसलिए सड़े टमाटर वह कांग्रेस के लिए फेंकती है और कांग्रेस की झोली में जाते जाते ये टमाटर वोट बन जाते हैं। यदि ऐसी स्थिति समाप्त हो जाए और कांग्रेस का कोई बेहतर विकल्प जनता को मिल जाए तो दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को अपनी औकात का तुरंत पता चल जाएगा। जनता अन्ना टीम से हटी है तो इसका अभिप्राय यह नही कि वह कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के लिए वंदनवार सजाये खड़ी है। जनता विकल्प खोज रही है और विकल्प हाथ में आने पर दिग्विजय सिंह और उनकी पार्टी अथवा गठबंधन का सम्मान करना चाहती है।
अन्ना के विषय में एक बात हम बार-बार लिखते रहे हैं कि अन्ना टीम का चिंतन एकांगी रहा है। उन्होंने जनलोकपाल को ही देश की सारी समस्याओं का समाधान मान लिया। जबकि देश में भ्रष्टाचार से आगे बढ़कर सरकारी आतंकवाद में बदल चुका है, इससे पूर्व सरकारी कार्यालयों में इसने एक अनिवार्यता का रूप ग्रहण किया। भ्रष्टाचार तो यह तब था जब लोग रिश्वत लेने में शर्म अनुभव करते थे। उस शर्म के काल में साहब के लिए कमीशन या रिश्वत का जुगाड़ उनके कुछ मुंह लगे अधीनस्थ कर्मचारी किया करते थे। बाद में इस स्थिति में परिवर्तन आया। साहब की चिक उठाकर हर आदमी ने उनके ऑफिस में अंदर जाना आरंभ कर दिया। परिणाम निकला कि सारा ऑफिस समझ गया इस अंदर जाने के राज को। इसलिए भ्रष्टाचार की अगली परत खुली तो नीचे बैठ बाबू ने कहना आरंभ कर दिया कि मुझे तो मेरे काम के इतने दे जाओ, साहब को जानो आप।
यहां भ्रष्टाचार एक अनिवार्यता बन गया है। चपरासी तक भी आम आदमी से पानी पिलाने का खर्चा पानी मांगने लगा। अब भ्रष्टïाचार की अनिवार्यता से भी अगली अवस्था सरकारी आंतकवाद की अवस्था में जी रहे हैं। अन्ना का जनलोकपाल पहली शर्म वाली अवस्था का उपचार करता सा लगता है, लेकिन वह अस्त व्यस्त हुई सारी व्यवस्था का उपचार नही कर सकता। सरकारी आतंकवाद की तीसरी अवस्था में आपको हड़का कर अधिकार के साथ रिश्वत ली जाती है और हर आदमी लेता है। किसी स्टेज से भी आप अपना कागज बिना पहिये (रिश्वत) लगाये आगे नही दौड़ा सकते। रिश्वत पहिया हो गयी है और हमने सबने एक एक स्टैपनी खरीद ली है। कहीं भी पंचर होने पर तुरंत स्टैपनी लगाने के लिए हम तैयार रहते हैं। ऐसे कोढ़ का उपचार जन लोकपाल भी नही कर पाएगा। इसके लिए देश की परिस्थितियों को समझना बड़ा आवश्यक है। देश की परिस्थितियों को समझने के लिए तथा शीर्षासन की हुई व्यवस्था को ठीक करने के लिए यह आवश्यक है कि देश की राजनीति को सही दिशा दी जाए। इसलिए यदि अन्ना एक राजनीतिक विकल्प बनकर देश की राजनीति में उतरकर कांग्रेस को गंभीरता से घेरना चाहते हैं, तो यह बात स्वागत योग्य माननी चाहिए। देश की संसद संविधान के अनुसार चले और देश की व्यवस्था संविधान के अनुसार चले इस पर किसी को कोई आपत्ति नही है। लेकिन अन्ना के पास उसके लिए राजनीतिक शक्ति का होना आवश्यक है जो उन्हें राजनीति में आकर तथा अपने सांसद एवं विधायक बनाकर ही मिल सकती है। अन्ना को यह बात भी समझनी होगी कि 1947 में जब देश आजाद हुआ तो 1952 में पहली बार देश में चुनाव हुए थे। तब जो भी सांसद या विधायक बने थे वो लोग एक तरह से हमारे जनलोकपाल ही थे। हम अधिनायक वादी शासन से मुक्त हुए थे और अपने जनलोकपालों से हम आशा करते थे कि वो हमें प्रत्येक पुकार के सरकारी गैर सरकारी भ्रष्टïाचार से मुक्त कराएंगे। जनता की अपेक्षा थी कि देश में पारदर्शी और स्वच्छ शासन व्यवस्था कायम होगी इसलिए ये संसद और विधायक जनप्रतिनिधि कहलाए। लेकिन इस जनप्रतिनिधियों को धन प्रतिनिधि बनने में देर नही लगी, आज लगभग 800 सांसद और 4120 विधायक देश में हैं। उपवादों को नमन करते हुए हम कहना चाहेंगे कि झांसे से अधिकांश धनप्रतिनिधि बन गये हैं। तब अन्ना का कथित जनलोकपाल धनलोकपाल नही बनेगा इस बात की क्याा गारंटी है। जहां हजारों लोग नंगे होकर हमाम में कूद रहे हों, वहां एक आदमी के पास कपड़े कितनी देर रह सकते हैं। इसलिए अन्ना के लिए उचित यही होगा कि वो राजनीति को सही दिशा दें। सही व्यक्तित्व दें और वैश्या बनी राजनीति को उसका परिव्रत धर्म समझायें मरे हुए जनलोकपालों को जीवन दान दें उनका धर्म समझाकर। जनता की अपेक्षा यही है यदि उनहोंने इसे समझ लिया तो देश पर उनका बहुत बड़ा उपकार होगा। सत्ता प्राप्ति के लिए गठबंधनों की सरल प्रक्रिया और सामान विचार धारा वाले दलों को खोजना एकदल गलत है, यह सस्ती प्रक्रिया है, जिसे कई बार अपनाया गया है और यह फेल हो गयी है। यदि फिर इसे अपनाया गया तो अन्ना फेल हो जाएंगे। वह अपने आंदोलन की पक्की नींव रखें, सत्ता मिले या ना मिले इसकी परवाह न करें। यदि वह संसार से चले भी गये तो आंदोलन के शुभ परिणाम उनहें बाद में भी जीवित रखेंगे। उनके पास समय कम हो सकता है, लेकिन उनके अमरत्व को समय की निर्धारित नही करता है उसे चिंतन की व्यापकता ही आयाम मिला करते हैं।