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धर्म का तार्किक स्वरूप और सत्यार्थ प्रकाश

धर्म को तार्किक रूप से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश पढ़ें। वेद में क्या है यह समझने के लिए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़िए।
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ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका का एक अंश-

सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।

देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥1॥

-ऋ॰ अ॰ 8। अ॰ 8। व॰ 49। मं॰ 2॥

अब वेदों की रीति से धर्म के लक्षणों का वर्णन किया जाता है- (सं गच्छध्वं) देखो, परमेश्वर हम सभी के लिये धर्म का उपदेश करता है कि, हे मनुष्य लोगो! जो पक्षपातरहित न्याय सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो, उस से विपरीत कभी मत चलो, किन्तु उसी की प्राप्ति के लिए विरोध को छोड़ के परस्पर सम्मति में रहो, जिस से तुम्हारा उत्तम सुख सब दिन बढ़ता जाय और किसी प्रकार का दुःख न हो (संवदध्वं॰) तुम लोग विरुद्ध वाद को छोड़ के परस्पर अर्थात् आपस में प्रीति के साथ पढ़ना पढ़ाना, प्रश्न उत्तर सहित संवाद करो, जिस से तुम्हारी सत्यविद्या नित्य बढ़ती रहे (सं वो मनांसि जानताम्) तुम लोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढ़ाते रहो, जिस से तुम्हारा मन प्रकाशयुक्त होकर पुरुषार्थ को नित्य बढ़ावे, जिस से तुम लोग ज्ञानी होके नित्य आनन्द में बने रहो और तुम लोगों को धर्म का ही सेवन करना चाहिए, अधर्म का नहीं। (देवा भागं यथा॰) जैसे पक्षपातरहित धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदरीति से सत्यधर्म का आचरण करते हैं, उसी प्रकार से तुम भी करो। क्योंकि धर्म का ज्ञान तीन प्रकार से होता है- एक तो धर्मात्मा विद्वानों की शिक्षा, दूसरा आत्मा की शुद्धि तथा सत्य को जानने की इच्छा, और तीसरा परमेश्वर की कही वेदविद्या को जानने से ही मनुष्यों को सत्य असत्य का यथावत् बोध होता है।


सत्यार्थ प्रकाश का एक अंश
सत्यार्थ प्रकाश का एक अंश-
(प्रश्न) ईश्वर सर्वशक्तिमान् है वा नहीं?
(उत्तर) है। परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान् शब्द का अर्थ जानते हो वैसा नहीं। किन्तु सर्वशक्तिमान् शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किञ्चित् भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।
(प्रश्न) हम तो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर चाहै सो करे क्योंकि उसके ऊपर दूसरा कोई नहीं है।
(उत्तर) वह क्या चाहता है? जो तुम कहो कि सब कुछ चाहता और कर सकता है तो हम तुम से पूछते हैं कि परमेश्वर अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयम् अविद्वान्, चोरी, व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुःखी भी हो सकता है? जैसे ये काम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से विरुद्ध हैं तो जो तुम्हारा कहना कि वह सब कुछ कर सकता है, यह कभी नहीं घट सकता। इसीलिए सर्वशक्तिमान् शब्द का अर्थ जो हम ने कहा वही ठीक है।

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