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आज का चिंतन

नागा साधु*

नागा साधु

डॉ डी के गर्ग
भाग-१
प्रचलित मान्यताये : नागा साधु हिन्दू धर्मावलम्बी साधु हैं जो कि नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होने के लिये प्रसिद्ध हैं। ये विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं जिनकी परम्परा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गयी थी ।आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।
आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सु- ढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें ४० हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।
अधिसंख्य नागा साधु पुरुष ही होते हैं, कुछ महिलायें भी नागा साधु हैं पर वे सार्वजनिक रूप से सामान्यतः नग्न नहीं रहती अपितु एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं।
बाल नागा
कुछ परिवार 10 से 12 महीने की उम्र में बच्चों को भेंट के तौर पर अखाड़ों में छोड़ जाते हैं. इसके बाद इन बच्चों का लालन पालन और शिक्षा आदि सब कुछ अखाड़ों में ही होता है. इन बच्चों को जीवन में अपने माता, पिता या परिवार के बारे में कुछ नहीं पता होता. इनके लिए सब कुछ इनके गुरु ही होते हैं. ये बच्चे अखाड़े के नियमानुसार स्कूल भी जा सकते हैं, लेकिन इनके जीवन का लक्ष्य साधु बनना ही होता है.
महिलाएं भी बनती है नाग साधू :-
वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है। इनमे विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है। फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं।
नागाओं का श्रंगार :-
नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं।
भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।
फूल- कईं नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं।
तिलक- नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं।
रुद्राक्ष- भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है।
लंगोट- आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे।
हथियार- नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते
चिमटा – नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है। चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है।
रत्न- कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं।
जटा- जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।
दाढ़ी- जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं।
पोषाक चर्म- कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है.
नागा साधुओं के इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-
1. श्री निरंजनी अखाड़ा,:- यह अखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
2. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है।
3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं।
4. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
5. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है।
6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।
8.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866 में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।
9. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था।
10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:- इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।
11. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।
12. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा: 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।
13. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं।
अखाड़े में दीक्षा के नियम : वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते है।
1- ब्रह्मचर्य का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है तो उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है।
2- सेवा कार्य- दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है।
3-खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना है । इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।
4- वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र । नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है।
5- भस्म और रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है।नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। सिर पर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है।
6- एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है।
7- केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं।
8-मंत्र में आस्था- दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है।
9-अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना, केवल सन्यासी को ही करना और न किसी की निंदा करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करने पड़ते हैं।

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