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संपादकीय

प्रधानमंत्री के सिर पर ईनाम

पश्चिमी बंगाल में इस समय ममता बैनर्जी का शासन है। जब से इन्होंने पश्चिमी बंगाल में शासन सत्ता अपने हाथों में संभाली है, तब से वहां आतंकी घटनाएं बढ़ गयीं हैं, कई लोगों के हौसले बढ़ गये हैं और अब वहां की एक मस्जिद के इमाम ने देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सिर कलम करने वाले को 30 लाख का पुरस्कार देने की घोषणा की है। इस व्यक्ति का कहना है कि श्री मोदी हत्यारे हैं जिनके कारण गुजरात दंगों के समय बहुत से लोग मरे थे और अब ‘नोटबंदी’ के कारण भी कई लोग मर गये हैं।
देश के प्रधानमंत्री के लिए ऐसा सुनकर कई ‘जयचंदों’ को अच्छा लगा होगा। तभी तो किसी व्यक्ति के द्वारा देश के प्रधानमंत्री के लिए ऐसे अशोभनीय और हिंसा भरे शब्दों को सुनकर किसी भी अहिंसावादी गांधीवादी ने इसकी निंदा नही की है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1994 से 2000 के मध्य 21180 नागरिकों को आतंकवादी घटनाओं में अपने प्राण गंवाने पड़े हैं और आतंकियों से लोहा लेते हुए हमारे अनेकों सैनिक शहीद हो गये हैं। आतंकवाद की पीड़ा को सर्वाधिक मुंबई ने झेला है। जहां 1993 से 2008 के मध्य 46 बम विस्फोट हुए अर्थात हर वर्ष तीन विस्फोट मुंबई को झेलने पड़े हैं। इस दौरान पूरे देश में 50 से अधिक आतंकी संगठन खड़े हो गये थे। 
अब जो लोग एक साफ नीयत से काम करने वाले प्रधानमंत्री के ‘नोटबंदी’ के निर्णय से उत्पन्न हुई प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण मरे कुछ लोगों को भी मोदी के कातिल होने का प्रमाण मानते हैं, उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि देश में 1994 से 2008 के मध्य हुए इतने बड़े ‘नरसंहार’ को वह क्या कहेंगे? उनके कातिलों को या दोषियों को वह कौन सा दण्ड नियत करेंगे? नोटबंदी से जिन लोगों के प्राण गये हमारी उनके प्रति भी सहानुभूति है और उनकी मृत्यु पर गहन संवेदना भी हम व्यक्त करते हैं, पर उसके लिए अकेले मोदी जिम्मेदार नही हैं, उसमें प्रशासन और बैंक कर्मियों, मैनेजरों व समाज के वे दबंग लोग जिन्होंने कई लोगों को लाइन में लगने के लिए मजबूर किया और उनके लिए जान बूझकर ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कीं कि उन्हें पैसा लेने ही नहीं दिया-भी जिम्मेदार हैं।
अब यदि यह कहा जाता है कि नोटबंदी के समय बैंकों के बाहर लगी लंबी लंबी लाइनों में अंतत: शासन की लापरवाही ही जिम्मेदार थी और इसलिए मोदी को ही उनकी मृत्यु के लिए जिम्मेदार माना जाएगा तो ऐसे लोगों को फिर यह भी मानना पड़ेगा कि 1994 से लेकर 2008 के मध्य पैदा हुए आतंकी संगठनों के लिए भी तत्कालीन सरकारें ही जिम्मेदार थीं।
हम कुछ समय से यह बात राजनीतिज्ञों के मुंह से सुनते चले आ रहे हैं कि आतंकवाद का कोई ‘मजहब’ नही होता। हम भी मानते हैं कि आतंकवाद का कोई मजहब नही होता, पर बात यह है कि आतंकवादी किसी एक मजहब से ही संबंध क्यों रखते हैं, और क्यों कुछ लोग उसी मजहब में से निकलकर इन आतंकियों का पक्ष लेने लगते हैं? अंतत: वे आतंकवादी इन मजहब वालों के लगते क्या हैं?
ममता बैनर्जी के रहते पश्चिम बंगाल में हिंदुओं के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसका अब अधिकतर देशवासियों को पता चल गया है। वहां पर हिंदुओं के साथ अत्याचार अपने चरम पर हैं, परंतु मोदी पर ईनाम बोलने वालों को उन आतंकी घटनाओं में कोई आतंक नहीं दिखाई देता और ना ही उन आतंकी घटनाओं को करने वाले लोग उन्हें आतंकी दिखाई देते हैं। ये दोहरे मानदण्ड देश में इसलिए चल रहे हैं कि कुछ ‘जयचंद’ आज भी देश की राजनीति में छिपे बैठे हैं जो अपने ही ‘पृथ्वीराज’ को अपने लिए सबसे अधिक खतरनाक मान रहे हैं और इसलिए वे उसे समाप्त करा देने पर उतारू हैं। इन जयचंदों की इस मौन स्वीकृति से ही उन लोगों की मानसिकता को दाना पानी मिलता है, जो पीएम मोदी के सिर पर ईनाम बोल देते हैं।
इस समय देश में आतंकवाद के विरूद्घ अश्वमेध यज्ञ करने की आवश्यकता है और हमारे सैन्यबल ऐसा कर भी रहे हैं। परंतु उनके प्रयासों की राजनीतिक दल कभी प्रशंसा नही करते हैं। हमारे 7800 जवानों ने अपना रक्त बहाकर लगभग 26 हजार आतंकियों का सफाया किया है, इतनी बड़ी सफलता के उपरांत भी देश आतंकवाद की छाया में जी रहा है और अपने सैनिकों या सुरक्षा बलों के रूप में तैनात कर्मियों का कोई न कोई बलिदान होते देखने के लिए अभिशप्त है। ऐसे में होना तो यह चाहिए कि हम अपने सुरक्षा घेरे को मजबूत करने के लिए तथा अपने सैनिकों व निर्दोष नागरिकों के बलिदानों से मुक्ति पाने के लिए एक साफ सुथरी राष्ट्रीय नीति बनायें, पर हम ऐसा न करके आतंकवाद की प्रचण्ड लपटों में मोदी सरकार को घेर कर मारने की घटिया हरकतें करते कुछ राजनीतिज्ञों को देख रहे हैं। ये वही लोग हैं जो सत्ता के बिना असहिष्णु हो उठे हंै, और वह सत्ता प्राप्ति के लिए सदा लालायित रहते हैं। यदि ये लोग देशहित में अपने स्वार्थों को तिलांजलि देना सीख लें तो यहां किसी भी व्यक्ति का इतना साहस नही होगा कि वह देश के प्रधानमंत्री के सिर पर ही ईनाम बोल दे। पर जो नेता देश की संसद को न चलने दें, उनसे देश को चलने देने की अपेक्षा करना भी निरर्थक है।

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