Categories
बिखरे मोती

चंद लम्हों की जिंदगी, बन जाए उसहार

बिखरे मोती-भाग 170

गतांक से आगे….
यह जीभ की  लड़ाई घनिष्ठतम रक्तसंबंधों को भी छिन्न-भिन्न कर देती है। जैसा कि रामायण में मंथरा ने चुगली करके केकैयी को भडक़ाया था, जिसका दुष्परिणाम आज सबके सामने है। इसके अतिरिक्त महाभारत के तीन पात्र शकुनि, दुर्योधन तथा द्रोपदी ऐसे हैं, जिनकी वाणी ने विनाश कराया था। जीभ पर भगवान का नाम बस जाए तो वाणी तारक सिद्घ होती है और यदि जीभ पर वाणी के उद्वेग बस जाएं तो वाणी मारक सिद्घ होती है। संस्कृत में कहावत है-‘वाणी की दरिद्रता’ अरे वाणी में भी क्या कंजूसी? यदि बोलना ही है तो हृदय शीतल करने वाली वाणी बोलो, अन्यथा मौन रहो। ध्यान रहे ‘मूर्ख व्यक्ति का दिल उसकी जुबान पर होता है जबकि विवेकशील व्यक्ति की जुबान उसके दिल में होती है।’ विवेकशील व्यक्ति सर्वदा नपा-तुला बोलता है, हितकारी बोलता है, अन्यथा मौन रहता है। ऐसे बोलने से क्या लाभ जिससे रिश्ते तार-तार हो जाएं? इससे बेहतर तो व्यक्ति का मौन रहना अच्छा है। मौन से मन और वाणी के दोषों का पता चलता है तथा दोषों की निवृत्ति भी होती है। इसलिए वाणी को वाक बनाना है, तो मौन रहिए। वाक से अभिप्राय है-जिस वाणी के धारण करने से मनुष्य की संसार में यश-प्रतिष्ठा होती है, और जिससे मनुष्य विद्वान पंडित कहलाता है, उसे वाक कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वाणी का परिष्कृत रूप ही वाक कहलाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने इसे भी अपनी विभूति बताया है। मौन हमारा आत्मकल्याण करता है और व्यर्थ के विवादों से भी रक्षा करता है। इसलिए मौन का अभ्यास कीजिए।
ऐसे जीओ जगत में,
याद करै संसार।
चंद लम्हों की जिंदगी,
बन जाए उपहार ।। 1098 ।।
व्याख्या :-
इस नश्वर  संसार में आवागमन का क्रम आदि काल से अनवरत रूप से चल रहा है। न जाने कितने प्राणी रोज जन्मते हैं और रोज मर जाते हैं। हे मनुष्य! तू विधाता की श्रेष्ठतम और सुंदरतम कृति है। तू आनंदलोक से आया है और तेरा गंतव्य भी आनंदलोक ही है। इसलिए इस संसार से जाने से पहले ऐसे सत्कर्म (पुण्य) कर जिनकी अमिट छाप लोगों के दिलों में सदा-सदा के लिए अंकित हो जाए। यह जीवन क्षणभंगुर है, नश्वर है, पत्ते पर ओस की बूंद की तरह है। महर्षि पतंजलि ने जीवन की परिभाषा देते हुए कहा है-”आदिकाल से अनंतकाल तक प्रवाहित होने वाली समय की धारा के सीमित कालखण्ड को जीवन कहते हैं। ऋग्वेद का ऋषि जीवन जीने के प्रति सतर्क करता हुआ कहता है-हे प्रभु! हमारा जीवन सुकृत्यों से ओत-प्रोत हो। हमारा धन भी  ऐसा हो, जो हमें धन्य कर दे, हम ऐसे धन के स्वामी न हों जो हमारा निधन कर दे अर्थात हमारा नाश कर दे।”
उपरोक्त उद्घरण इस बात के प्रेरक हैं कि जीवन सीमित है जो हमें सालों में नही सांसों में मिला है। हम प्रभु प्रदत्त इस जीवन को सफल ही नहीं, अपितु सार्थक बनायें। पुण्य कर्मों को कल के लिए न सरकायें अपितु पुण्यरत हो जाएं। यह जीवन पृथ्वी पर भार नहीं, अपितु परमपिता परमात्मा का अमूल्य उपहार बन जाए खुदा का नायाब तोहफा बन जाए।
सूरज उगता न डूबता,
भ्रांति में संसार।
जनम-मरण से दूर मैं
प्रकृति करतार। 
व्याख्या:-
जिस प्रकार न तो कभी सूर्योदय होता है और न ही कभी सूर्यास्त होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त तो ऐसे शब्द हैं जो सांसारिक व्यवहार को चलाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं जबकि सच्चाई ये है कि सूर्य हमेशा दीप्तिमान है, पृथ्वी अपने अक्ष पर 66 अंश के कोण पर झुकी हुई और सूर्य के चारों तरफ 365  1/4 दिन में एक चक्कर पूरा करती है। यह उसकी वार्षिक गति है जबकि पृथ्वी अपने अक्ष पर चौबीस घंटों में एक चक्कर लगाती है, जो इसकी दैनिक गति कहलाती है। इस दैनिक गति के कारण ही दिन और रात बनते हैं। 
क्रमश:

Comment:Cancel reply

Exit mobile version