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धर्म-अध्यात्म

ईश्वर-प्राप्ति का उपाय यम और नियम

प्रियांशु सेठ

भाग 1

हमारी उपासना-विधि क्या हो? उपासना का अर्थ है समीपस्थ होना अथवा आत्मा का परमात्मा से मेल होना।महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्गयोग के आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च सानु-शिखर पर चढ़ने के लिए आठ सीढ़ियाँ हैं।उनके नाम हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

यहां प्रत्येक का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जाता है-

१– यम पाँच हैं-

(१)अहिंसा- अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन,वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना,किसी को हानि न पहुंचाना और किसी के प्रति वैरभाव न रखना अहिंसा है।उपासक को चाहिए कि किसी से वैर न रखे,सबसे प्रेम करे।उसकी आँखों में सबके लिए स्नेह और वाणी में माधुर्य हो।पशुओं को मारकर अथवा मरवाकर उनके मांस से अपने उदर को भरनेवाले तीन काल में भी योगी नहीं बन सकते।साधक को प्रत्येक स्थान में,प्रत्येक समय और प्रत्येक परिस्थिति में अहिंसाव्रती होना चाहिए।’अहिंसा परमो धर्म:’अहिंसा परम धर्म है।अहिंसा का उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई उग्र, क्रूर और पाशविक वृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकना।जब मन में हिंसा की छाया तक न दिख पड़े,तब समझना चाहिए कि अहिंसा की सिद्धि हो गई, अहिंसा का फल क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग:।
-योगदर्शन साधन० ३५
हृदय में अहिंसा के प्रतिष्ठित होने पर अहिंसक के समीप सांप,बाघ आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव का परित्याग कर देते हैं।
अहिंसा की सिद्धि के बिना अन्य यमों की सिद्धि नहीं हो सकती,इसलिए यमों में इसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
(२)सत्य- सत्य द्वितीय यम है।साधक मन,वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने,सत्य बोले और सत्य ही लिखे,मिथ्या-असत्य न बोले,न मिथ्या व्यवहार ही करे।सत्यस्वरूप परमेश्वर को पाने के लिए साधक को सर्वथा सत्यनिष्ठ बनना होगा।सत्यस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए उपासक को सत्य में ही जीना होगा,सत्यस्वरूप ही बनना होगा और सत्य के प्रति आंशिक नहीं सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि लगाव रखना होगा।साधना की नींव रखने के लिए सत्यव्रती बनना अत्यावश्यक है।सत्य सबसे बड़ा व्रत है।
उपासक कहता है-
अहमनृतात्सत्यमुपैमि। -यजु० १/५
मैं असत्य को त्याग कर जीवन में सत्य को ग्रहण करता हूँ।
वेदादिशास्त्र सत्य की महिमा से भरे पड़े हैं।
उपनिषदों में कहा है-
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। -मुण्डको० ३/१/५
परमात्मा सत्य और तप से ही प्राप्त होता है।
सत्यमेव जयते नानृतम्। -मुण्डको० ३/१/६
सत्य की ही विजय होती है,असत्य की नहीं।
महाभारत में कहा गया है-
सत्यं स्वर्गस्य सोपानम्। -महा० उद्यो० ३३/४७
सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है।
महर्षि मनु का कथन है-
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। -मनु० ८/८२
सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है।
सत्यभाषण का फल बताते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
-यो० द० साधन० ३६
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति वाक्सिद्ध हो जाता है।
सत्य के महत्त्व को समझकर जीवन में सत्य को धारण करो।सत्य में निवास करो।सत्य में मूर्त्तरूप बन जाओ।मन,वाणी और कर्म से सच्चे रहो।
(३)अस्तेय- यमों में तीसरा यम है अस्तेय।स्तेय का अर्थ है चोरी करना,अस्तेय का अर्थ है मन,वचन और कर्म से चोरी न करना।साधक चोरी न करे,सत्य व्यवहार करे।स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ को न उठाये।
स्तेयरूपी अवगुण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक है उससे अधिक पर अधिकार करने के लिए जो भी कार्य किया जाता है वह नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चोरी ही है।आवश्यकता से अधिक खाना भी चोरी है।बस या रेल में टिकट न लेना और मेरे पास पास(Pass)अथवा ‘सीजनल टिकट’है,ऐसा कहकर निकल जाना चोरी है।खोटा सिक्का चलाना अथवा दुकानदार द्वारा अज्ञान के कारण दिए गए अधिक धन को जेब में रख लेना भी चोरी है।उत्कोच(घूस)देकर काम बना लेना भी चोरी है।
मनुष्य चोरी क्यों करता है?चोरी का वास्तविक कारण मनुष्य की अनगिनत इच्छाएं और अनियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं।चोरी से बचने के लिए साधक को अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, इन्द्रियों को अनुशासित और मन को वश में करना होगा।
अस्तेय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।।
-यो० द० साधन० ३७
मनुष्य के हृदय में अस्तेय की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके सामने संसार के सब रत्न स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् अस्तेय में प्रतिष्ठित व्यक्ति को कभी धन-रत्न का अभाव नहीं रहता।
(४)ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है-ब्रह्म और चर्य।ब्रह्म का अर्थ है ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य।चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण।इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा-साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे, वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।
ब्रह्म में विचरण के लिए मन का विषय-वांसनाओं से सर्वथा मुक्त होना अत्यावश्यक है।विषय-वासनाओं में कामवासना सबसे प्रबल और घातक है,अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रमुख रूप से वीर्यरक्षण किया जाता है।साधक जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो।
ब्रह्मचर्य का उद्देश्य है- खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में परिवर्तित कर देना है।ब्रह्मचर्य का अर्थ है- मनुष्य में विद्यमान पाशविक शक्तियों को संयमित करना, उनका संरक्षण करना, उन्हें उच्च स्तर की ओर उन्मुख करना और खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में रूपान्तरित कर देना।
ब्रह्मचर्य की महिमा महान् है।उपनिषदों में कहा गया है-
नाअयमात्मा बलहीनेन लभ्य:। -मुण्डको० ३/२/४
ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता।
साधक के लिए ब्रह्मचर्य उसी प्रकार आवश्यक है,जैसे विद्युत से चलनेवाली गाड़ी के लिए विद्युत्।इसके बिना साधक योगमार्ग में उन्नति नहीं कर सकता।ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही चंचल इन्द्रियों और कुटिल मन पर विजय पाई जा सकती है।वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है-
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
-अथर्व० ११/५/१९
ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मौत को भी मार भगाते हैं।
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः। -यो० द० साधन० ३८
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्यलाभ होता है।अर्थात् ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठित व्यक्ति के देह में परमेश्वर की विमल ज्योति प्रकाशित होती है।
उपस्थेन्द्रीय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण रखना चाहिए।आंखों के रूप में जाने से,कानों को शब्दों की ओर दौड़ लगाने से,नासिका को गन्ध की ओर भागने से,जिह्व को रसपान से,त्वचा को स्पर्श-आनन्द में मग्न होने से रोको।सभी इन्द्रियों का निरोधरूपी ब्रह्मचर्य साधक को ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाएगा।
(५)अपरिग्रह- अपरिग्रह का अर्थ है-आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना।साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं।किसी भी वस्तु को क्रय करने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो।यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो।पदार्थों के अधिक संग्रह से आज मानव दुःख पा रहा है।
विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय(नाश), सङ्ग(उपभोग), हिंसा(संग्रह में पर-पीड़ा) आदि दोषों को देखकर उनको स्वीकार न करना,उन्हें त्याग देना अपरिग्रह है।
अपरिग्रह का एक अर्थ अभिमान न करना भी है।साधक विनम्र बने।वह निरभिमानी हो,अभिमान कभी न करे।विद्या, धन, जल, बल आदि जिन बातों पर मनुष्य अभिमान करता है,उनमें से एक भी ऐसी नहीं है,जिस पर अभिमान किया जा सके।
अपरिग्रह का फल क्या है?
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोध:।
-यो० द० साधन० ३९
अपरिग्रह में प्रतिष्ठा-दृढ़ता होने पर पूर्वजन्म के कारणों का बोध होता है।
ये पांच यम मिलकर उपासना-योग का प्रथम अङ्ग है।

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