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भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 25 , सुदर्शनचक्रधारी श्रीकृष्ण

जिस समय श्री कृष्ण जी का जन्म हुआ उस समय कंस जैसा एक राक्षस इस धरती पर शासन कर रहा था। उसने अपनी बहन देवकी और उनके पति वसुदेव को ही कारागार में डाल रखा था। हम सभी जानते हैं कि कृष्ण जी के जन्म लेने से पूर्व वह कंस नाम का राक्षस कृष्ण जी के सात बहन भाइयों की हत्या कर चुका था। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात थी कि श्री कृष्ण जी के जन्म लेने से पूर्व तत्कालीन बड़े-बड़े राजाओं, वीर पुरुषों और क्षत्रियों को कंस के इस प्रकार के अत्याचार पूर्ण कृत्यों में किसी भी प्रकार का अधर्म दिखाई नहीं दिया। जबकि क्षत्रियों का जन्म धर्म की स्थापना के लिए ही होता है । जो लोग धर्म की हानि कर अधर्म के कार्यों में लगे रहते हैं, उनका विनाश करना क्षत्रियों का परम धर्म है।

परम धर्म है वीर पुत्र का, दुष्टों का संहार करे।
धर्मवीर बनकर के जग में रोशन कुल का नाम करे।।

इस प्रकार की परिस्थितियों से स्पष्ट है कि श्री कृष्ण जी के समय क्षत्रिय लोग अपने धर्म से पतित हो चुके थे। इन्हीं परिस्थितियों को धर्मानुकूल करने के लिए श्री कृष्ण जी ने अपने जीवन काल में महाभारत जैसा संग्राम रचवाया था। जब उन्होंने रण बीच खड़े होकर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और उससे कहा कि पार्थ ! तू क्षत्रियों को अपने सामने खड़ा देख तो रहा है पर वास्तविकता यह है कि ये सब जीवित होकर भी मरे पड़े हैं, तू अपने क्षत्रिय धर्म का निर्वाह कर और अधर्म के पक्ष में खड़े हुए इन अधर्मी क्षत्रियों का विनाश कर धरती पर धर्म की स्थापना करने में मेरा सहायक बन, तो इसका अभिप्राय था कि अपने क्षत्रिय धर्म का यथासमय पालन न करने के कारण वे सभी क्षत्रिय अधर्मी हो जाने के कारण मर चुके थे।

मिल अधर्मी से करे, अधरम के जो काम ।
मर जाए जीवित वह अपयश का लगे दाग।।

 कहने का अभिप्राय है कि उनका शरीर तो चाहे बना हुआ था पर वास्तविकता यह थी कि उनका यशरूपी शरीर समाप्त हो चुका था। इसी की ओर संकेत करते हुए श्री कृष्ण जी ने अधर्म का साथ दे रहे लोगों को जीवित होते हुए भी मृत ही कहा था।

श्री कृष्ण जी ने राक्षसों के संहार के लिए और धर्म की स्थापना के लिए वैज्ञानिक रीति से सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। उन्हें योगेश्वर श्रीकृष्ण के नाम से भी जाना जाता है। इसका कारण केवल एक ही है कि उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों का दुरुपयोग पूरे जीवन भर कहीं भी नहीं किया। अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग भी उन्होंने राक्षसों के संहार के लिए ही किया। अत्यंत विषम परिस्थितियों में ही उन्होंने अस्त्र शस्त्रों के प्रयोग की बात कही थी। उनका पूरा जीवन अपने इसी आदर्श के प्रति समर्पित रहा कि धर्म की स्थापना हो, सज्जनों का कल्याण हो और दुष्टों का संहार हो। अपने इसी जीवनादर्श की प्राप्ति के लिए उन्होंने उस समय सज्जन शक्ति के कल्याण में विश्वास रखने वाली शक्तियों का संगठनीकरण किया और जो शक्तियां सज्जनों के अधिकारों का हनन करने के प्रति मौन हो चुकी थीं, उनके विनाश के लिए जीवन समर्पित किया।

मर्यादा धर्म की स्थापित हो, समूल नाश हो दुष्टों का ।
सज्जन का कल्याण करो किया आवाहन मां के पुत्रों का।।

वास्तव में श्री कृष्ण जी के पास रहने वाला सुदर्शन चक्र आज की विमान भेदी मिसाइलों या ऐसे ही उन हथियारों के जैसा था जो अपने लक्ष्य को बींधने की क्षमता रखते हैं। श्री कृष्ण जी के सुदर्शन में इससे भी बढ़कर विशेषता थी कि वह अपने लक्ष्य पर निशाना साधकर और उसका विनाश करके ही लौटता था। जो भी लक्ष्य उसे श्री कृष्ण जी दिया करते थे, उसे नष्ट करके ही लौटता था। इस सुदर्शन चक्र की यह विशेषता थी कि यदि लक्ष्य किसी ऐसे व्यक्ति या वस्तु के बारे में निर्धारित किया जाता था जो अपनी चलायमान अवस्था में होता था तो भी वह उसे नष्ट करके ही दम लेता था। इसके उपरांत भी इतिहास में कहीं एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां श्री कृष्ण जी ने उत्तेजित होकर किसी व्यक्ति को अपेक्षा से अधिक दंड देने का निर्णय लिया हो और अपने सुदर्शन चक्र का दुरुपयोग किया हो। वास्तव में ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो शक्ति संपन्न होकर साधना संपन्न भी होता है।
जिसकी जितनी ऊंची साधना होती है वह उतना ही अधिक धीर, वीर, गंभीर होता है। शक्ति का दुरुपयोग न करना परमपिता परमेश्वर की न्यायप्रियता को प्राप्त कर लेना होता है। जैसे परमपिता परमेश्वर शक्ति संपन्न होकर भी किसी प्राणी को अनावश्यक दंड नहीं देते, वैसे ही धीर, वीर,गंभीर लोग भी छोटे-मोटे दुष्कृत्यों पर बड़ी सजा देने की बात तो छोड़िए उन्हें उनके किए का यथोचित दंड देने की परमपिता परमेश्वर की शक्ति को प्राप्त कर लेते हैं, इसीलिए लोग ऐसे महामानवों को भगवान कहने लगते हैं। श्री कृष्ण जी को भी हमारे देश में भगवान इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने जीवन भर वही कार्य किए जो ईश्वर ने वेदविहित कर्मों के अंतर्गत मानव मात्र के लिए नियत किए हैं। अपने सुदर्शन चक्र के प्रयोग से ही श्री कृष्ण जी ने शिशुपाल का वध किया था।
श्री कृष्ण जी के इस सुदर्शन चक्र की अद्भुत विशेषता थी कि वह देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बड़ा या छोटा हो जाता था।
श्री कृष्ण जी ने जयद्रथ वध के समय जब सूर्य को ढंकने का कार्य संपादित किया था, तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र के माध्यम से ही यह कार्य किया था। श्री कृष्ण जी ने यह कार्य पूर्णतया न्याय संगत ढंग से ही संपन्न किया था। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग अदृश्य रूप में किया और ऐसी अनुकूल परिस्थिति बनाने तक ही उसका उपयोग किया कि केवल जयद्रथ को मारने में अर्जुन सफल हो जाए। जयद्रथ के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति को चोट न पहुंचे, इसके प्रति श्री कृष्ण जी पूर्णतया सजग थे। इसके अतिरिक्त श्री कृष्ण जी के पास ऐसी दिव्य शक्तियां अर्थात विज्ञान भी था, जिसके आधार पर वह समय को रोकने की शक्ति रखते थे । ऐसी शक्ति भी विज्ञान द्वारा शोधित उनके इसी दिव्य सुदर्शन चक्र में निहित थी। इसकी ओर आज के वैज्ञानिकों का ध्यान नहीं गया है।
हमारे कुछ ऋषि मनीषियों का मानना है कि सुदर्शन चक्र कोई वास्तविक भौतिक शस्त्र नहीं होता ,अपितु यह एक ऐसा चक्र है जो अपने भीतर समय को बांधकर रख सकता है। योग भक्ति द्वारा ही इस प्रकार की शक्ति को कोई व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार यह अध्यात्म के द्वारा दिव्य शक्तियों के जागरण का प्रतीक है कहने का अभिप्राय है कि यह हमारी अध्यात्मिक शक्ति है जो समय को इस प्रकार बांध लेती है और बड़े-बड़े शत्रुओं को परास्त कराने में व्यक्ति की सहायता करती है। यद्यपि इस प्रकार की आध्यात्मिक विज्ञान से संपन्न शक्ति को प्राप्त करना हर किसी के वश की बात नहीं, इसे निश्चित रूप से कोई योगेश्वर श्रीकृष्ण ही प्राप्त कर सकता है। बस, अपने व्यक्तित्व की इसी अनोखी, अद्भुत और अविश्वसनीय योग्यता के कारण ही श्री कृष्ण जी हम सबके लिए प्रातः स्मरणीय है।
भारत के इस महान सपूत और आप्त पुरुष के अतिरिक्त इस शक्ति को प्राप्त करने की क्षमता संसार के किसी अन्य व्यक्ति के पास आज तक उपलब्ध नहीं हुई।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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