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विश्वगुरू के रूप में भारत

भारत के ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 7 बिजली के बल्ब के आविष्कारक महर्षि अगस्त्य

महर्षि अगस्त्य रामायण काल के एक महान ऋषि थे। लाखों वर्ष पूर्व इस महान ऋषि ने भारत की मनीषा और वेदों की ज्ञान विज्ञान की शैली का सारे संसार में डंका बजाया था। उनकी वैज्ञानिक बुद्धि ने बिजली का आविष्कार करके तत्कालीन संसार को चमत्कृत कर दिया था। उनकी मेधा शक्ति को संपूर्ण संसार आज भी नमन करता है।
माना जाता है कि ऋषि अगस्त वशिष्ठ ऋषि के भाई थे। उनकी धर्मपत्नी लोपामुद्रा भी महान विदुषी और वेदों की ज्ञाता थीं। इध्मवाहन नाम का इनका एक पुत्र था। इनकी वैज्ञानिक बुद्धि और विद्वता से प्रेरित होकर महाराजा दशरथ ने इन्हें अपना राजगुरु भी बनाया था। उस समय राजगुरु के पद पर किसी दिव्य विभूति को ही स्थान दिया जाता था। जिससे संसार के कल्याण के लिए उत्कृष्ट से उत्कृष्ट चिन्तन ऐसे विद्वानों से मिलता था। उस समय ऐसे ऋषियों को बड़ी कठिनता से ही इस प्रकार के महान दायित्व का निर्वाह करने हेतु प्रसन्न किया जाता था। क्योंकि उनके भीतर किसी प्रकार की लोकैषणा का भाव नहीं होता था। हर प्रकार की ऐषणा से ऊपर उठकर वे जनहित में सोचते थे। यदि कोई वशिष्ठ जैसा ऋषि राजगुरु के पद को सुशोभित करने की अनुमति स्वीकृति प्रदान कर देता था तो इसे राजा अपना सौभाग्य मानता था। वेद के मंत्र दृष्टा ऋषि के रूप में भी महर्षि अगस्त्य को मान्यता प्राप्त है।

मारना लात हर पद को ऋषि का स्वभाव होता है,
बन्धु! उनकी आत्मा में ऐषणा का अभाव होता है।
ऋजु गामी, सरल ह्रदय विनम्रता का भाव होता है,
उनकी महानता का हर देशवासी पर प्रभाव होता है।।

 अगस्त्य ऋषि अपने समय के एक महान अभियंता भी थे। कहा जाता है कि उन्होंने ही विंध्यांचल की पहाड़ी में से दक्षिण भारत में पहुंचने का सुगम मार्ग बनाया था। पुरुषोत्तम श्री राम जी अपने वनवास काल में महर्षि अगस्त्य के आश्रम में रुके थे।

अगस्त्य शब्द के अर्थ के बारे में विद्वानों का कहना है कि यह अगस अर्थात दोषों को नष्ट करने वाला, लोगों की आधि – व्याधियों को दूर करने वाला होता है।
हमारे ऋषियों के नाम उनके गुण, कर्म ,स्वभाव के आधार पर ही रखे जाते थे।महर्षि अगस्त्य के आश्रम में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण और सहधर्मिणी सीता जी के साथ पधारे थे। तब महर्षि अगस्त्य भली-भांति यह जानते थे कि रामचंद्र जी अपने जीवन में किस प्रकार राक्षस संहार का संकल्प ले चुके हैं? ऐसे में उनके जीवन को भयानक संकट है। इसके अतिरिक्त वह यह भी भली प्रकार जानते थे कि राक्षस शक्ति के संहार के लिए कितने बड़े स्तर पर अस्त्र शस्त्रों की आवश्यकता होती है ? महर्षि अगस्त्य दिव्य अस्त्रों के निर्माता थे या कहिए कि उन्हें दिव्य अस्त्र बनाने का पूर्ण ज्ञान था। राक्षस शक्ति के संहार के लिए वह भी किसी उचित पात्र को ही ढूंढ रहे थे। यह एक संयोग ही था कि आज ऐसा उचित पात्र श्री राम जी के रूप में उनके समक्ष खड़ा हुआ था। यही कारण था कि उन्होंने श्री राम के निज आश्रम में पधारने के अवसर पर उनको अनेक दिव्य अस्त्र प्रदान किए।
महर्षि ने दिव्य अस्त्र प्रदान करते हुए श्री रामचंद्र जी से कहा कि विश्वकर्मा द्वारा निर्मित स्वर्ण और रत्नों से विभूषित यह दिव्य तथा विशाल ‘वैष्णव’ नामक धनुष है।
उन्होंने सूर्य के समान दैदीप्यमान और अमोघ (जो कभी खाली न जाए ) बाण भी श्री रामचंद्र जी को दिया । जो कि ऋषि अगस्त को ब्रह्मा जी ने दिया था। ऋषि ने श्रीराम को बताया कि यह बाण इंद्र द्वारा प्रदत्त है। जिनके बाण कभी समाप्त नहीं होते । इन तरकशों में अग्नि के समान ज्वाला वमन करने वाले तीव्र बाण भरे हुए रहते हैं। यह स्वर्ण से विभूषित तलवार है। जिसका म्यान भी सोने का बना हुआ है। हे सम्मान योग्य राम ! इस धनुष ,तरकश, बाण तथा तलवार को संग्राम में अपनी विजय के लिए ऐसे ही धारण करो जैसे इंद्र ने वज्र को धारण किया था।”

विजय मिले संग्राम में और शत्रु का हो अंत।
ऋषियों का आशीष है , सहमत सारे संत।।

इससे पता चलता है कि महर्षि अगस्त दिव्य अस्त्रों के निर्माता के रूप में जग विख्यात थे। उन्हें दिव्य अस्त्रों का निर्माता कहने का हमारा अभिप्राय यह नहीं है की महर्षि अगस्त्य जैसे लोगों के पास उस समय अस्त्र निर्माण कंपनी थी और उसके मुखिया के रूप में वह काम कर रहे थे। हमें ध्यान रखना कि वह व्यापारी नहीं थे और ना ही विनाशकारी हथियारों की कोई बड़ी फैक्ट्री लगाकर मानव जाति के विनाश की योजना बनाने वाले आधुनिक हथियार निर्माता थे। उस समय भारत के ऋषियों के पास ही ऐसा विशिष्ट चिंतन हुआ करता था जिसका वह वैज्ञानिक लाभ उठाया करते थे। ऋषि अगस्त्य के पास ऐसे विशिष्ट वैज्ञानिक चिंतन के होने का परिणाम यह हुआ कि उन्होंने अपने दिव्य अस्त्र श्री राम जी को ही दिए । जिनसे उन्हें यह पूर्ण अपेक्षा थी कि वे इन दिव्यास्त्रों का प्रयोग मानव जाति के विनाश के लिए नहीं करेंगे।
प्राचीन काल में भारत के ऋषि वायुयान कला में पूर्ण निष्णात थे। उनकी वैज्ञानिक बुद्धि के कारण ही ऊंचे उड़ने वाले गुब्बारे, पैराशूट, बिजली और बैटरी जैसे कई उपकरण भारत में प्राचीन काल में भी उपलब्ध थे। हमारे ऋषियों ने आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ विज्ञान का भी विकास किया था। उस काल में वायुयान के साथ साथ बिजली भी होती थी। भारत की सांस्कृतिक धरोहर को भारत के धार्मिक मानवीय मूल्यों ने अधिक प्रभावित किया है। यहां तक कि विनाशकारी हथियारों के निर्माण में भी इसके वे धार्मिक और नैतिक मूल्य ही पथ प्रदर्शक का काम करते दिखाई देते हैं, जिनको अपनाकर कभी भी निरपराध लोगों को मारने का विचार तक हमारे क्षत्रियों के मस्तिष्क में नहीं आया।
वैज्ञानिक ऋषियों के क्रम में महर्षि अगस्त्य का सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा बिजली के बल्ब का आविष्कार करना था। वर्तमान में उनके द्वारा किए गए बिजली के आविष्कार का श्रेय
माइकल फैराडे को दे दिया गया है। निश्चय ही भारत को अपने आप को स्थापित करने के लिए अपने आपको समझना पड़ेगा और भारत के इतिहास पर पड़ी भारत द्वेषी इतिहासकारों के काले कारनामों की उस काली छाया को अपने आप ही मिटाना होगा जिसके रहते हमारे महान ऋषियों के आविष्कारों का श्रेय भी पश्चिम के लोगों को निरंतर दिया जाता रहा है। बल्ब के आविष्कारक थॉमस एडिसन ने भारत के ऋषियों के महान वैज्ञानिक चिंतन का लाभ उठाने की ओर संकेत करते हुए अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया, जिससे मुझे बल्ब बनाने में बहुत सहायता मिली।
ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसमें वह स्वयं लिखते हैं :-

 संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥

दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥ -अगस्त्य संहिता

 अर्थात : “एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।”
भारत के इस महान आविष्कारक ऋषि वैज्ञानिक के इस चिंतन पर आजकल के वैज्ञानिक भी चर्चा करते हैं। इस प्रकार उनकी ‘अगस्त्य संहिता’ आज के वैज्ञानिकों के लिए भी पथ प्रदर्शिका है। उनके विषय में आज के अनुसंधानकर्ताओं का यह भी निष्कर्ष है कि अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) भी कहते हैं।

अनने जलभंगोस्ति प्राणोदानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥-अगस्त्य संहिता

 महर्षि अगस्त्य कहते हैं- “सौ कुंभों (उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े गए सौ सेलों) की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदलकर प्राणवायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।”

कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते।
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥

आच्छादयति तत्ताम्रं स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ -5 (अगस्त्य संहिता)

 अर्थात- कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल (तेजाब का घोल) इसका सान्निध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है। (इसका उल्लेख शुक्र नीति में भी है। – साभार)
आधुनिक नौकाचालन और विद्युतवाहन, संदेशवाहन आदि के लिए जो अनेक बारीक तारों की बनी मोटी केबल या डोर बनती है इस संबंध में भी ऋषि अगस्त्य ने विशेष जानकारी सांझा की है। उन्होंने इन तारों को रज्जु कहा है। अगस्त्य मुनि ने गुब्बारों को आकाश में उड़ाने और विमान को संचालित करने की तकनीक का भी उल्लेख किया है। उनका कहना है कि हाइड्रोजन को वायु प्रतिबंधक वस्त्र में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है। कहने का अभिप्राय है कि वस्त्र में हाइड्रोजन पक्का बांध दिया जाए तो उससे आकाश में उड़ा जा सकता है।
हमें अपनी मूल संस्कृति और संस्कृत भाषा से जुड़ने की आवश्यकता है। जब हम अपनी संस्कृति और अपनी भाषा संस्कृत से जुड़ेंगे तो निश्चय ही ‘अगस्त्य संहिता’ की ओर हमारा ध्यान जाएगा। विदेशी भाषा से जुड़े रहने से विदेशी लेखकों और तथाकथित वैज्ञानिकों की पुस्तकों और उसी भाषा में लिखे ग्रंथों की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। जिसमें भारत के ऋषि वैज्ञानिकों की पूर्णतया उपेक्षा की गई है। सचमुच भारत को समझने के लिए बहुत गहराई में जाने की आवश्यकता है।
महर्षि अगस्त्य के काल को कुछ लोगों ने अबसे 3000 वर्ष पूर्व का माना है। उनकी ऐसी धारणा पूर्णतया निराधार है। वास्तविकता यह है कि इस महर्षि का काल उतना ही पुराना है जितना रामायण काल है और रामायण काल के बारे में हम सब जानते हैं कि यह अबसे लगभग पौने दस लाख वर्ष पूर्व का काल है। अतः महर्षि अगस्त का काल भी इतना ही पुराना माना जाना चाहिए।
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारतवर्ष ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में सृष्टि प्रारंभ अथवा मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक चरण से ही संसार का मार्गदर्शन करता आया है।महर्षि अगस्त्य ने अपने समय के वृहत्तर भारत अर्थात जंबूद्वीप या आर्यावर्त में दूर-दूर तक वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार किया था। जावा द्वीप में उनकी एक प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो अब से लगभग 1000 वर्ष पुरानी है। इससे पता चलता है कि महर्षि अगस्त्य ने द्वीपांतरों में आर्य संस्कृति का प्रसार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

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