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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

जब बन गया था भारत का भाल शत्रुसाल अर्थात छत्रसाल

जिस समय भारत की स्वतंत्रता को नोंच-नोंचकर खाने वाले विदेशी गिद्घों के झुण्ड के झुण्ड भारत भूमि पर टूट-टूटकर पड़ रहे थे और उन्हें यहां से उड़ाकर बाहर करने के लिए भारत की तलवार अपना पूर्ण शौर्य और पराक्रम दिखा रही थी, उस समय उन गिद्घों के लिए किसी शत्रुसाल की आवश्यकता थी। इस शत्रुसाल के विषय में हम पूर्व में प्रसंगवश प्रकाश डाल भी चुके हैं, वास्तव में यह शत्रुसाल ही छत्रसाल थे, जबकि राजा चंपावत राय-अथवा चंपतराय और रानी सारंधा के सुपुत्र थे। 
राजा चंपावतराय भारतीय स्वातंत्र्य समर के दिव्य-दिवाकर हैं, जिनकी रानी सारंधा और जिनके स्वयं के बलिदान पर हम पूर्व में प्रकाश डाल चुके हैं।

शत्रुसाल के जन्मकाल की परिस्थितियां
इसी चंपावतराय जैसे योग्य स्वातंत्र्य प्रेमी पिता का स्वतंत्रता प्रेमी पुत्र शत्रुसाल था। पिता ने जैसा नाम रखा वैसा ही पुत्र ने काम किया। बालक शत्रुसाल ही बड़ा होकर छत्रसाल के नाम से विख्यात हुआ। इसका जन्म 4 मई 1649 ई. को हुआ माना गया है। यह वह समय था-जब चंपतराय मुगल शासन के विरूद्घ लोहा ले रहे थे और निजी स्वतंत्रता की रक्षार्थ कठोर कष्ट झेल रहे थे। मुगलवंश का शासक शाहजहां इस समय शासन कर रहा था। उस समय की परिस्थितियां ऐसी थीं कि बालक ”शत्रुसाल ने अपने जन्म के क्षणों से ही तोपों व बंदूकों की धांय-धांय व ठांय-ठांय के साथ तलवारों की छपछपाहट और तीरों की सनसनाहट सुनी थी। जिस बालक ने ‘धरो, पकड़ो, मारो, शत्रु है, छोड़ो मत’ के उच्चार सुने हों, मां विंध्यवासिनी की जय, महाकाली की जय और हर-हर महादेव के उच्चार व उद्घोष सुने हों, वह यदि जनमजात वीर योद्घा नही हो तो और क्या होगा?” (संदर्भ : शक्ति पुत्र छत्रसाल पृष्ठ 77-78)
‘बुंंदेलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास’ के लेखक श्री गोरेलाल तिवारी का कहना है कि-”छत्रसाल का विद्याध्ययन उनकी सात वर्ष की आयु से आरंभ हुआ था। विद्याध्ययन व भावनापूर्ण कथा-कहानियों के साथ-साथ उन्हें सैनिक शिक्षा-दीक्षा भी प्राप्त हो रही थी। इसलिए छत्रसाल एक कुशल सेनापति होने के साथ-साथ कुशल कवि भी बन सके। प्रकृति की गोद में जन्म लेने वाले छत्रसाल चित्रकार भी थे। अपने बाल्यकाल में वे हाथी, घोड़े, सवार, बंदूक और तोपों के ही चित्र बनाया करते थे। खून की बहती धारा को वे बड़े चाव से देखा करते थे। वीभत्सतम दृश्यों को देखकर डरने के स्थान पर वे उसके और समीप चले जाया करते थे। मंदिर में नियमपूर्वक जाकर प्रार्थना करना रामायण और महाभारत की कथाओं को सुनना वीर योद्घाओं के पराक्रमपूर्ण आख्यानों को सुनना छत्रसाल की अपनी विशेष रूचि थी। अपनी दस वर्ष की आयु में ही वे बरछी तलवार तथा अन्य शस्त्रों के संचालन की पूरी क्रिया समझ चुके थे तथा उसका कुशलता के साथ वे उपयोग भी कर सकते थे। आखेट की स्चि भी उनमें इसी अवस्था में निर्माण हो गयी थी। पुस्तकों के अध्ययन में भी इनका मत बहुत लगता था।”

दिया वीरता का परिचय
छत्रसाल अभी किशोर ही थे तो विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा था। तभी एक अज्ञात व्यक्ति को छत्रसाल ने मंदिर में अपने कुछ लोगों के साथ प्रवेश करते हुए देखा। बच्चे छत्रसाल ने सोचा कि ये भी कोई मंदिर का श्रद्घालु है। इसलिए पूछ लिया कि क्या आप भी पूजा करेंगे। उस अपरिचित व्यक्ति ने कहा-”क्यों? हम मूर्तिपूजक नही, हम तो मूत्र्तिभंजक हैं। बादशाह औरंगजेब के आदेश से हम यहां मूत्र्ति पूजा समाप्त कराने आये हैं, बताओ, यहां की मुख्य मूत्र्ति किधर है?”
बालक छत्रसाल ने उस मुगल सरदार को रोक लिया और युद्घ के लिए ललकारा। देखते ही देखते बालक छत्रसाल के बाल साथियों ने भी तलवारें भांजनी आरंभ कर दीं। संग्राम छिड़ गया। भीतर से छत्रसाल के पिता चंपतराय बाहरी शोर को सुनकर बाहर निकले तो उन्होंने वहां युद्घ होता पाया। पर कुछ ही क्षणों में युद्घ समाप्त हो गया। इससे पूर्व कि राजा चंपतराय घटना की वस्तुस्थिति को कुछ समझ पाते, उनकी दृष्टि इस युद्घ के नायक अपने पुत्र छत्रसाल पर पड़ी जो मुगलों के सरदार और उसके सैनिकों को शांत करके विजयी मुद्रा में अपने पिता की ओर बढ़े चले आ रहे थे। जब पिता ने अपने पुत्र को इस रूप में देखा और वस्तुस्थिति को समझा तो उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नही रहा।

पिता की वीरता का प्रभाव
छत्रसाल उस समय सहरा में थे-जिस समय उनके माता-पिता को वीरगति प्राप्त हुई थी। उनके माता -पिता ने उस समय जिस प्रकार वीरगति प्राप्त की थी उसकी कहानी उस समय के प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व और गौरव का विषय था। इसलिए छत्रसाल पर उनकी वीरता का प्रभाव पडऩा तो अवश्यम्भावी था। 
कहा जाता है कि वे अपने माता-पिता के बलिदान पर रोये नही थे, अपितु उन्होंने पिता के छोड़े हुए कार्यों को पूर्ण करने का संकल्प लिया, और आजीवन मां भारती की सेवा करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर दिया। 
इस प्रकार बालक छत्रसाल के जीवन में बालपन से ही एक ऐसा परिवर्तन आ गया जो उसे जीवन की कठिन साधना की ओर धकेलकर ले गया। यह अलग बात है कि इसी कठिन साधना ने ही उन्हें मां भारती का ऐसा सच्चा सपूत बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया जिससे छत्रसाल को भारतीय वीर परंपरा के गौरवान्वित इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया।

भाई से प्रेमपूर्ण मिलन
छत्रसाल के तीन अन्य बड़े भाई थे-अंगदराय, सनशाह और गोपाल। इनमें से अंगदराय सबसे बड़े थे। वह मुगलों के आधीन रहकर देवगढ़ के दुर्ग में नौकरी करते थे। परिस्थितियों का ऐसा प्रवाह बना रहा कि छत्रसाल अपने भाईयों से नही मिल पाये थे। यद्यपि उनके हृदय में पिता के चले जाने के उपरांत अपने भाईयों से मिलने की इच्छा बार-बार होती थी। अभी छत्रसाल अपने चाचा सुजानराय के पास रह रहे थे। एक दिन उनकी अनुमति प्राप्त कर वह अपने भाई अंगदराय के पास देवगढ़ पहुंच गये। 
‘शक्तिपुत्र छत्रसाल’ का लेखक लिखता है कि-”भाई-भाई जब मिले तो मानो प्रेम स्वयं अवतरित होकर धरती पर उतर आया। छत्रसाल भाई के पैर छूने को जा रहे थे और अंगदराय उन्हें छाती से लगाये चले जा रहे हैं। दोनों की आंखों से प्रेमाश्रु उमड़ पड़े थे। लगता है कि राम और भरत परस्पर मिल रहे हों और सुख उनके अंत:करण में न समा पाने के कारण आंसुओं के रूप में बाहर चला आ रहा हो।” 
अंगदराय और छत्रसाल का यह प्रेम मिलन वर्णनातीत है। भारतमाता के दो लालों के बीच इस प्रकार का प्रेम भाई-भाई के लिए अनुकरण का विषय है।
अंगदराय को अपने माता-पिता के स्वर्गवास की सूचना भी भाई छत्रसाल से ही हुई। जिस पर दोनों भाई गले मिलकर फूट -फूटकर रोने लगे। इसके पश्चात दोनों भाईयों ने किसी भी प्रकार से सैन्य-संगठन खड़ा करने की योजना पर चिंतन किया और स्वदेश की स्वतंत्रता का संकल्प लिया। पर जिन परिस्थितियों में इन दोनों भाईयों ने सैन्य-संगठन खड़ा करने का संकल्प लिया था-उन परिस्थितियों में सैन्य संगठन खड़ा करना बड़ा कठिन कार्य था। विशेषत: तब जबकि अपने पास फूटी कौड़ी भी ना हो। 

छत्रसाल का विवाह
इसी समय छत्रसाल का विवाह पंवारवंश की कन्या देवकुंवरि से हुआ। देवकुंवरि   या देवकुमारी सौंदर्य की प्रतिमा तो थी ही, वह इसी अनुपात में वीरांगना भी थी। इसलिए उसने अपने पति के उद्देश्य को समझकर उसी के साथ समन्वय स्थापित किया और उसे सदा ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित करती रही। देवकुंवरि स्वयं क्षत्राणी थी-इसलिए स्वयं भी अपने पति के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ी रहने लगी और देशभक्ति के रंग में दोनों पति-पत्नी ऐसे रंग गये कि उन्हें चौबीसों घंटे स्वतंत्रता के सपने ही आते रहते और इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता ही नही था। 
देशभक्ति की धुन थी जो कि इस युगल के वासना के सपनों को पीछे धकेल देती और उसके स्थान पर उनकी आंखों में मां भारती की स्वतंत्रता की तस्वीर उभार देती, वे अपनी आंखों से जब मां भारती की ऐसी तस्वीर देखते तो उनकी आंखों में चमक सी दिखाई देती-उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठता। जब देशभक्ति का ज्वर चढ़ता है तो संसार के अन्य सारे ‘ज्वर’ स्वयं ही क्षीण हो जाते हैं।

अर्थ की समस्या का खोजा समाधान
अपने लक्ष्य को बेधने के लिए छत्रसाल और उसके ज्येष्ठ भ्राता अंगदराय (अंगदराम) के समक्ष इस समय सबसे बड़ी समस्या अर्थ की थी। इसलिए इस समस्या पर पार पाने के लिए उन्होंने मुगलों की सेना में नौकरी करनी उचित समझी। यद्यपि छत्रसाल का निजी मत मुगलों की नौकरी करने के स्थान पर छत्रपति शिवाजी की सेना में जाने का था। परंतु इस निर्णय के लेते समय उनका एक जामशाह नाम का चाचा भी उनके साथ-साथ था-उसका परामर्श मुगलों की नौकरी करने का ही था। इसलिए लक्ष्य साधना के लिए मुगलों की नौकरी करना ही उचित माना गया।

मिर्जा राजा जयसिंह ले आया मुगल सेना में
मिर्जा राजा जयसिंह उन दिनों दक्षिण का सूबेदार बन कर दक्षिण के लिए जा रहा था। जब उसके आगमन का समाचार छत्रसाल को मिला तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि राजा जयसिंह एक हिंदू है और उन्हें हिंंदुत्व की शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए अपने साथ लाने का प्रयास करने का यह उत्तम अवसर है। इसलिए छत्रसाल अपने भाई अंगदराय और चाचा जामशाह को साथ लेकर मिर्जा राजा जयसिंह से मिलने के उद्देश्य से उसके सैन्य शिविर की ओर चल दिये। 
यह अप्रैल 1665 ई. का माह था, जिसमें छत्रसाल ने मिर्जा राजा जयसिंह से भेंट की थी। किशोर छत्रसाल के प्रस्तावों और उसके वात्र्तालाप के ढंग से मिर्जा राजा जयसिंह उससे बड़ा प्रभावित हुआ। उसने छत्रसाल व उनके भाई अंगदराय और चाचा जामशाह-तीनों को ही मुगल सेना में भर्ती कर लिया। छत्रसाल से राजा जयसिंह विशेष प्रेम दिखाते थे और उसे प्रोत्साहित करते कि यदि अच्छी वीरता का प्रदर्शन किया तो शीघ्र ही उसको पदोन्नत कर मुगल बादशाह से सम्मानित कराया जाएगा।
अंतत: पुरंदर का घेरा (1665 ई.) डालने के समय जब इन तीनों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया तो राजा जयसिंह ने उन तीनों को ही मनसबदारी दिलाने की संस्तुति औरंगजेब से की। जिसे बादशाह औरंगजेब ने स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात एक से बढक़र एक वीरतापूर्ण कृत्य छत्रसाल ने दिखाने आरंभ किये। जिससे राजा जयसिंह बड़े प्रभावित रहने लगे।

देवगढ़ का संघर्ष
उन दिनों छिन्दवाड़ा के देवगढ़ दुर्ग का शासक राजा कूरमकल्ल था। जिसका उपनाम कोकसिंह था। इस दुर्ग पर अधिकार स्थापित करने के लिए औरंगजेब ने दिलेर खां को भेजा। दिलेरखां इस हिंदू दुर्ग को विनष्ट करने के लिए एक विशेष सैन्य दल के साथ चला आ रहा था। राजा कूरमकल्ल एक स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी शासक था। जिसे औरंगजेब की पराधीनता में काम करना अच्छा नही लग रहा था। वह उसकी पराधीनता से व्याकुल था और जब यह व्याकुलता अधिक बढ़ी तो उस स्वतंत्रता प्रेमी शासक ने औरंगजेब को कर देना बंद कर स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। पर उसका दोष यह था कि वह अपनी जनता पर भी अत्याचार करने लगा। इसका अभिप्राय था कि उसकी स्वतंत्रता प्रेमी भावना तानाशाही प्रवृत्ति की थी। उसकी महत्वाकांक्षा तो थी पर वह शुद्घ राजतंत्रात्मक थी, जिसका लक्ष्य शक्ति संचय कर स्वयं को महिमामंडित कराना था।
दिलेर खां (बलीबहादुर खां) छत्रसाल के पिता चम्पतराय का घनिष्ठ मित्र था। उसने चम्पतराय से पगड़ी बदल ली थी। इसलिए पुरानी स्मृतियां उस समय नवीन हो गयीं जब उसने छत्रसाल व अंगदराय को अपने समक्ष खड़ा पाया। उसने मित्र के लडक़ों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया।

राजा कूरमकल्ल की वीरता
राजा कूरमकल्ल चाहे जैसा था-फिर भी उसने मुगल सेना का सामना करने के लिए लगभग 70,000 की सेना तैयार की। जब मुगल सेना ने देवगढ़ का घेरा डाला तो कूरमकल्ल तनिक भी नही घबराया। उसने बड़े साहस के साथ मुगलों की विशाल सेना का सामना किया।
सोमदत्त त्रिपाठी अपनी पुस्तक ‘शक्तिपुत्र छत्रसाल’ के पृष्ठ 92 पर लिखते हैं-”किले के भीतर राजा कूरमकल्ल ने भी अच्छी तैयारी की थी। कहते हैं उसके पास सत्तर हजार सैनिक थे। देवगढ़ के किले की मोर्चेबंदी उसने ऐसी की हुई थी कि मुगल सेना का आगे बढऩा कठिन हो गया था। देवगढ़ वाले बड़े ही पराक्रमी थे। शाही सेना का गोला बारूद उनका कुछ भी  बिगाड़ नही पा रहा था। वे मुगलों को गाजर मूली की भांति काट रहे थे। ‘अल्लाह तौबा’ -करती मुगल सेना को पीछे हट जाने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नही सूझ रहा था। देवगढ़ी तोपों के गोले चुन-चुन कर मुगलों को ठिकाने लगा रहे थे। औरंगजेब की बहादुर सेना पीछे हटने में अपनी पूरी बहादुरी दिखा रही थी, उसका मनोबल टूटता जा रहा था। वह हतोत्साहित और भयभीत होकर देवगढ़ वालों को अपनी पीठ दिखाने लगी थी। वली बहादुर ने जब देखा कि उसकी सेना का मनोबल टूट रहा है और वह भागने पर उतारू है तो वह भी निराश होकर पीछे लौटने लगा।”
राजा कूरममल्ल ने इस प्रकार उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना को परास्त करने में सफलता प्राप्त की। उसका यह कार्य प्रशंसनीय और इतिहास के लिए स्मरणीय बन गया।

राजा ने छत्रसाल के समक्ष किया समर्पण
छत्रसाल ने भी दिलेर खां को अपना समझा था-इसलिए आज उसे अपनेपन का पूर्ण परिचय देने का उचित अवसर आ गया था। अत: उसने टूटे हुए मनोबल से भागती हुई मुगल सेना का नेतृत्व संभाला। बहुत से राजपूत सैनिकों के साथ छत्रसाल पूरी मुगल सेना के नेतृत्व के लिए सामने आया। पर उसे अधिक विश्वास अपने राजपूत रणबांकुरों पर ही था। उसने उनके साथ रणनीति निर्धारित की और कूरमकल्ल की सेना पर तीव्र प्रहार कर दिया। 
आज छत्रसाल पूर्ण मनोयोग से युद्घ कर रहा था। उसके शरीर में जिन वीर माता-पिता का रक्त प्रवाहित हो रहा था-मानो उसकी गरमाहट आज उससे कुछ भी करा सकती थी। उसने अपने वीर सैनिकों में ऐसे उत्साह का संचार किया कि उन्हें अब शत्रु पक्ष की केवल गर्दनें ही दिखने लगीं। भागती हुई मुगल सेना के पैर क्या जमे कूरमकल्ल की सेना के लिए विपत्ति की सूनामी आ गयी। इस कार्य में अंगदराय और चाचा जामशाह ने भी छत्रसाल का पूर्ण सहयोग किया। 
वली बहादुर छत्रसाल की वीरता पर ‘वाह-वाह’ करने लगा। छत्रसाल के अदम्य साहस और शौर्य को देखकर वली बहादुर खां ने अपनी सेना को ललकारा और उसे छत्रसाल का पूर्ण मनोयोग से साथ देने के लिए प्रेरित किया।
छत्रसाल ने अपनी सेना का मनोबल बढ़ाया और देखते ही देखते वह परिस्थितियां बन गयीं कि राजा कूरमकल्ल को अपने सैनिकों सहित छत्रसाल के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ गया।
‘शक्तिपुत्र छत्रसाल’ में इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया गया है:-
”सिंहनाद गलगर्जि कै भंज उठयो भर भीर।
छत वीर उमंग में गनै न गोली तीर।।
गनै न गोली तीर छतारौ।
देखत देन अचम्भौ भारौ।।
एक वीर सहसन पर धावै।
हाथ और को उठ न पावै।।
सांग निमारि करी धन धानी।
समर भूमि शोषित सो सानी।।
नची छता की जो कृपानी।
उमगी किलकि कालिका रानी।।
अर्थात युद्घ करते-करते छत्रसाल आगे निकल गये थे। अंगदराय व जामशाह और उनके सैनिक पीछे ही छूट गये थे। वे अकेले ही अपनी तलवार घुमाते शत्रुओं के सिर काटकर काल की भेंट चढ़ाते और एक सिर काटकर दूसरे सिर पर अपनी तीक्ष्ण तलवार को फेर देते। ऐसा लगता था मानो स्वयं वीर रस ने छत्रसाल का रूप धारण कर लिया हो और राजा कूरमकल्ल की सेना को विदीर्ण कर रहा हो। उनके इस पराक्रम को सभी चमत्कार समझ रहे थे। राजा कूरमकल्ल की सेना ने अपने घुटने टेक दिये।”
(संदर्भ : ‘शक्तिपुत्र छत्रसाल’ पृष्ठ 93)

छत्रसाल हो गया गंभीर रूप से घायल
युद्घभूमि में कुछ भी होना संभव है। विशेषत: तब जबकि आप सारे यौद्घिक परिदृश्य के केन्द्र बिंदु बन जाएं तो उस समय सारे शत्रु-पक्ष की रणनीति में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाता है और सभी एक ही ‘अभिमन्यु’ को घेरने के लिए भाग पड़ते हैं। छत्रसाल भी अभी ‘अभिमन्यु’ ही था। 
उस दिन इस वीर बालक की वीरता का गुणगान दसों दिशाएं कर रही थीं, वायु भी मौन होकर उस दिन के युद्घ को देख रही थी और सायंकाल के ढलते सूर्यदेव को भी आज का रोमांचकारी युद्घ  बहुत ही मनोहर जान पड़ रहा था, पश्चिम दिशा की गोद सूर्य देव को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी पर सूर्य देव थे कि युद्घ के रोमांचकारी दृश्यों से हटना नही चाह रहे थे, चारों ओर छत्रसाल की जय-जयकार हो रही थी। तभी कूरमकल्ल की ओर से एक सैनिक टुकड़ी ने छत्रसाल पर प्रबल प्रहार किया। एक राजपूत सरदार ने अपनी तलवार से छत्रसाल की गर्दन पर तीक्ष्ण प्रहार किया जो उसे गंभीर रूप से घायल कर गया। मां भारती का यह साहसी सपूत अचेत होकर अपने घोड़े से नीचे गिर गया। राजपूत सैनिक छत्रसाल को मरा समझकर आगे बढ़ गये।

घोड़े ने की प्राण रक्षा
छत्रसाल का घोड़ा बहुत ही स्वामीभक्त था। वह अपने स्वामी के नीचे गिरते ही समझ गया कि स्वामी के लिए प्राण संकट है। इसलिए वह स्वामी भक्त घोड़ा युद्घभूमि से भागा नही, अपितु वहीं डटकर खड़ा हो गया। जो कोई भी वहां आता उसे घोड़ा दुलत्ती मारकर भगा देता। इस प्रकार सायंकाल होने पर जब अंधेरा होने लगा तो कई वन्य हिंसक जीव भी वहां आये, पर उन्हें घोड़े ने अपने स्वामी छत्रसाल को सूंघने तक नही दिया। कई मुगल सैनिकों व सरदारों ने घोड़े को देखा तो उन्होंने उसे पकडक़र अपने साथ लेकर चलना चाहा, पर घोड़ा था कि वह किसी के साथ चलने को तैयार नही था। उसे इस समय अपने स्वामी के प्राण संकट में दिख रहे थे और वह इस समय छत्रसाल की रक्षा करना चाहता था। इसलिए भागना उसके लिए संभव नही था।

सैनिकों में फैली व्याकुलता
जब चारों ओर छत्रसाल की जय-जयकार हो रही थी तो उसके हिंदू सैनिकों का मनोबल बढ़ता ही जा रहा था। अब युद्घ के जीतने के पश्चात ये लोग अपने नेता के दर्शन करना चाहते थे। पर वह उन्हें दिख नही रहा था। उन्हें कोई नही बता रहा था कि छत्रसाल है कहां? किसी को कुछ समझ नही आ रहा था कि अंतत: क्या घटना घटित हो गयी है?
तब एक मुगल सरदार ने शराब के नशे में बड़बड़ाते हुए किसी राजपूत के सामने कह दिया कि वहां एक घोड़ा है जिसके पास एक सुंदर नवयुवक की लाश पड़ी है, पर वह घोड़ा उसके पास किसी को जाने नही देता है। उस सैनिक ने उस मुगल की यह बात अपने साथियों को बतायी, तब सभी ने समझ लिया कि वह सुंदर नवयुवक उनका नेता छत्रसाल ही है। वे दौडक़र युद्घभूमि में जा पहुंचे। वहां देखा तो उनका नायक रक्त से लथपथ  पड़ा है। घोड़े ने भी समझ लिया कि ये उसके स्वामी के ही व्यक्ति हैं, इसलिए उसने उनसे कुछ नही कहा। उन्होंने अपने नायक को जैसे ही उठाने का प्रयास किया, उसकी मूच्र्छा टूट गयी और चेतना लौट आयी। उसके सैनिक उसे उठाकर वहां से अपने साथ लेकर पड़ाव में आ गये।

दिलेर खां की कृतघ्नता
दिलेरखां ने कूरमकल्ल को परास्त करने की सूचना औरंगजेब को एक पत्र के माध्यम से दी, जिसमें छत्रसाल का कहीं उल्लेख नही था। एक वीर की सारी वीरता पर पानी फेर दिया गया। उसका त्याग और स्वामीभक्ति सब व्यर्थ गये। सारे विजयोत्सव में सारे मुगल अपनी पीठ अपने आप थपथपा रहे थे, किसी ने भी छत्रसाल की प्रशंसा नही की।

हृदय को लगा आघात
अपने प्रति मुगलों का ऐसा व्यवहार देखकर छत्रसाल को गहरा आघात लगा। उसका हृदय टूट गया। उसके भीतर विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। उसे यह अच्छा नही लगा कि एक धर्म विनाशक को एक धर्मरक्षक अधिक सहयोग करे। इसलिए उसने धर्मविनाशक औरंगजेब को अब त्यागकर उसके विरूद्घ ही विद्रोह का बिगुल फूंकने का निर्णय ले लिया। वैसे भी उसे अपने पिता का प्रतिशोध लेना था, जिसके लिए मुगलों की चाटुकारिता करना उसके लिए उचित नही था। वह तो भारत का भाल था, इसलिए अब दूसरा रास्ता चुनना ही उसके लिए श्रेयस्कर था। क्रमश:

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