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संपादकीय

क्षेत्रीय दल और राष्ट्रीयता

हमारे यहां पर क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की भांति हैं। ये दल वर्ग संघर्ष,  प्रांतवाद और भाषावाद के जनक हैं। कुछ दल वर्ग संघर्ष को तो कुछ दल प्रांतवाद और भाषावाद को प्रोत्साहित करने वाले बन गये हैं।
इनकी तर्ज पर जो भी दल कार्य कर रहे हैं उनकी ओर एक विशेष वर्ग के लोग आकर्षित हो रहे हैं, इन वर्गों को ये राजनैतिक दल अपना ‘वोट बैंक’ मानते हैं। इस ‘वोट बैंक’ को और भी सुदृढ़ करने के लिए ये दल किस सीमा तक जा सकते हैं-कुछ कहा नहीं जा सकता।
देश के सामाजिक परिवेश में आग लगती हो तो लगे, संविधान की व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ती हों तो वे भी उड़ें, राष्ट्र के मूल्य उजड़ते हों तो उजड़ें-इन्हें चाहिए केवल वोट। इनकी इस नीति का परिणाम यह हुआ है कि भाषा, प्रांत और वर्ग की अथवा संप्रदाय की राजनीति करने वालों के पक्ष में पिछले बीस वर्षों में बड़ी शीघ्रता से जन साधारण का ध्रुवीकरण हुआ है। भाषा, प्रांत और वर्ग की कट्टरता के कीटाणु लोगों के रक्त में चढ़ चुके हैं, फैल चुके हैं और इस भांति रम चुके हैं कि जनसाधारण रक्तिम होली इन बातों को लेकर कब खेलना आरंभ कर दे-कुछ नहीं कहा जा सकता।
देश के परिवेश का आकलन किया जाए तो ज्ञात होता है कि देश के ज्वालामुखी के कगार पर बैठा है। इस बात का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि नेता जब अपने -अपने प्रदेशों में भ्रष्टाचार की खुली लूट मचाते हैं, तो उस समय भी इनके समर्थक उस लूट को लूट मानने को उद्यत नहीं होते, अपितु इसके विपरीत लडऩे झगडऩे पर उतारू हो जाते हैं। इसी से राष्ट्र की दिशा और दशा का सही-सही आंकलन हो जाता है कि क्षेत्रीय दलों की कृपा से हम अवन्नति के कितने गहन गहवर में जा फंसे हैं?
आने वाले कल में क्या होगा?
जब गत बीस वर्षों में हमने पतन की इस अवस्था तक छलांग लगाई है तो अगले बीस वर्षों में हम कहां पहुंचेंगे? निश्चित रूप से चांद पर नहीं। परिणाम यह होगा कि भारत में राजनीतिक दलों का नामकरण सीधे-सीधे जाति, वर्ग, प्रांत भाषा और मतों के नामों पर होगा। जातीय संगठन जो आज उभर रहे हैं, वे स्पष्ट कर रहे हैं कि हम बढ़ रहे हैं-भयंकर वर्ग संघर्ष की ओर इसे और भी स्पष्ट कहें तो-एक गृहयुद्घ की ओर। ऐसी परिस्थिति में इतना अवश्य है कि भारत नाम के राष्ट्र की स्वतंत्रता अवश्य संकटों में फंस जाएगी। राष्ट्र के भीतर स्वतंत्र वर्गों की निजी सेनाएं किसके लिए तैयार की जा रही हैं? ये किसके मान सम्मान की लड़ाईयां लडऩे को दण्ड बैठक लगा रही हैं? किसके लिए फरसे भांज रही हैं?
जो क्षेत्रीय दल और संगठन आज इनके जनक हैं। कल ये ही इनके निशाने पर होंगे-इसमें दो मत नहीं। क्योंकि एक दल दूसरे के लिए सेना तैयार कर रहा है और दूसरा पहले के लिए तैयार कर रहा है। परिणाम भी वह भुगतेंगे किंतु विनाश किसका होगा। राष्ट्र का!! राष्ट्रीयता का!! राष्ट्रवाद का !!
जातीय दलों के पास राष्ट्र के लिए केवल विनाश परोसने के अतिरिक्त और क्या है? गठबंधन की राजनीति इस क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ की गंदी और घृणित मनोवृत्ति पर अंकुश लगा सकेगी, इसमें संदेह है। राजनीति में जब हिस्सा मांगा जाने लगे, अपने समर्थन का मूल्य मांगा जाने लगे-तो ऐसी विकृत मानसिकता विखण्डन की मानसिकता होती है। इसका परिणाम बड़े-बड़े और सुदृढ़ राष्ट्रों को भी विखंडित कर दिया करता है।
सोवियत रूस का उदाहरण हमारे सामने है। निस्संदेह वह कुछ राष्ट्र राज्यों का संघ था, िकंतु यह संघ भी एक राष्ट्र राज्य बन जाता यदि सभी राष्ट्र राज्यों की सोच विखंडित न रही होती। इसीलिए सोच का स्वस्थ होना नितांत आवश्यक है। भारत एक राष्ट्र है, किंतु यदि विखंडित मानसिकता की उपरोक्त वर्णित मनोवृत्ति की दुष्ट छाया हम पर बनी रही तो यह राष्ट्र विभिन्न राष्ट्र राज्यों का समूह बना दिया जाएगा। अन्य सैकड़ों संगठन  ऐसे हैं जो राज्य स्तर पर या क्षेत्रीय स्तर पर ‘अपनी-अपनी ढपली’ और ‘अपना-अपना राग’ अलाप रहे हैं, उनका विस्तार पूर्वोत्तर के उन छोटे-छोटे राज्यों में अधिक है-जिनकी जनसंख्या कुछ लाखों में ही सिमटी हुई है और जहां पर भारत विरोधी ईसाई मिशनरी अपना जाल फैला चुकी है। ऐसा क्यों हो रहा है? इस ओर हमारी केन्द्र सरकार का ध्यान नहीं है। स्वायत्तता की मां इधर से ही क्यों उठ रही है? और इस स्वायत्ता का ऊंट अंतत: किस करवट बैठेगा इस विषय पर विचारने का समय हमारे नीरो (किसी भी प्रधानमंत्री) के पास नहीं है। यह स्थिति भयावह है।
राज्य स्तर का हर दल सामान्यत: राष्ट्र के एक टुकड़े अथवा भाग की चिंता कर रहा है। उसे राष्ट्र की चिंता नहीं है। यह स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी कभी देशी रियासतों के राजाओं की हुआ करती थी। इतिहास का वह भयावह भूत आज तक उसी भयावहता के साथ हमारा पीछा कर रहा है। गठबंधन की राजनीति करने वालों के पास लगता है-इस विषय पर विचार करने के लिए समय ही नहीं है।
जब वर्गों की सत्ता में भागीदारी होगी
अपने देश में एक समय ऐसा भी आ सकता है- कि जब यहां गठबंधन जाति-वर्ग और संप्रदायों के आधार पर हुआ करेंगे। एक वर्ग कहेेगा कि मेरी दस सीटें, आपकी पांच सीटें, और अमुक की बारह सीटें- इस प्रकार सौ में से कुल 55 सीट का आकलन बनाकर तब गठबंधन होगा और उसका आधार जातिवर्ग अथवा संप्रदाय होगा तो केन्द्र में अथवा प्रांतों में सरकारों के गठबंधन जातीय स्वरूप ले जाएंगे। तब मंत्रालय भी जातिगत आधार पर मिलेंगे। हमें इस स्वरूप की परिणति और कार्य पद्घति पर विचार कर उसमें आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। संवैधानिक व्यवस्था करनी होगी कि गठबंधन धर्म के नियम और कत्र्तव्य क्या हैं? उनकी अवहेलना करने को अपराध माना जाएगा।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715

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