साबरमती के संत का कमाल यही है कि उसकी नीतियों के सहारे लोग आज देश पर शासन करने में सफल हो रहे हैं। यह वास्तव में जनता की भावनाओं से किया गया खिलवाड़ है, जो हर बार और हर स्तर के चुनाव में किया जाता है।
केवल भारत ही एक ऐसा देश है-जिसमें चुनाव को ‘भावना प्रधान’ बना दिया जाता है। जनता को उपलब्धियां नहीं गिनायी जातीं, अपितु पक्ष-विपक्ष उसमें भावनात्मक उत्तेजना उत्पन्न करने के प्रयास करते हैं। इसलिए हमारे यहां चुनाव अच्छे और बुरे के मध्य नही हो पाता क्योंकि अच्छा तो चुनाव से दूर ही रहता है। चुनाव होता है ‘बुरों में से कम बुरे को चुनने को मिला’ या ‘कम बुरा’ भी वही मान लिया जाता है जो चुनाव में धनबल, बाहुबल और हर प्रकार के उचित-अनुचित हथकंडों का समुचित और पर्याप्त प्रयोग कर सके। परिणामस्वरूप संसद और राज्यों की विधानसभाएं बुरों से भरती जा रही हैं। लोकतंत्र के लिए यह भारी अपशकुन है क्योंकि लोकतंत्र उत्कृष्टतम की खोज करने वाली एक सर्वोत्तम शासन प्रणाली है । इन लोगों ने इस सर्वोत्तम शासन प्रणाली की उत्कृष्टतम की खोज को बाधित किया है, उन्होंने न केवल इस शासन प्रणाली के साथ अन्याय किया है-अपितु देश के अच्छे लोगों के साथ भी अन्याय किया है।
अब आप ही बताइये कि स्वतंत्रता को खतरा किन लोगों से है? उनसे जो स्वतंत्रता के प्रहरी संस्थानों में जाकर ऐश्वर्य का जीवन जी रहे हैं और अनुत्तरदायित्वपूर्ण राष्ट्रबोध से हीन आचरण कर रहे हैं या किसी अन्य से? आतंकवादी या बाह्य शक्तियों से राष्ट्र की शक्ति को और स्वतंत्रता को उतना खतरा नहीं है, जितना इन घर में छुपे हुए छद्म आतंकवादियों से है। क्योंकि इन्हें न तो आत्मबोध है, न कत्र्तव्यबोध है न धर्मबोध है, और न ही राष्ट्रबोध है। आज हिंदू समाज में उद्घोष हो और पूरी आत्मीयता के साथ उद्घोष हो कि ‘स्वतंत्रता खतरे में है’ यह उद्घोष स्वयं जनता करे, नेता नहीं। क्योंकि संकट उधर से नहीं है जिधर हमारा ध्यान हटाकर भंग किया जाता है, अपितु संकट के सूत्र हमारे घर में हैं। ये सूत्र वहां हैं जहां से-
सिमी जैसे संगठनों को दूध मिल रहा है।
चकश्मीरी आतंकवादी संगठनों को देश के भीतर से ही प्रोत्साहन और सहयोग मिल रहा है। जब ये सूत्र ढूंढ लिये जाएंगे तो ‘स्वतंत्रता को खतरा’ के नारे का रहस्य समझ में आ जाएगा।
स्वाधीनता का दायित्व बोध
हमें सत्ता के परिवर्तन को ही स्वतंत्रता प्राप्ति बताया गया है। जबकि सत्ता परिवर्तन का नाम स्वतंत्रता नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ लोगों का आचरण और व्यवहार अत्यंत उच्छ्रंखल हो गया है। हम देख रहे हैं कि आचरण की इस उच्छ्रंखलता ने कितने लोगों को समाज में भयभीत किया हुआ है। बहुत से लोगों के घर में किसी अज्ञात भय के कारण आज भी रोशनी नहीं हो पा रही है। इसलिए आज हम देखें कि-
शोषण कल भी था-शोषण आज भी है।
अत्याचार कल भी था -अत्याचार आज भी है।
अनाचार कल भी था- अनाचार आज भी है।
छल-कपट कल भी थे- और आज भी हैं।
वर्गभेद, भाषा वेद कल भी थे और आज भी हैं।
साम्प्रदायिकता कल भी भयंकर थी और आज भी भयंकर है।
जातिवाद कल भी था और आज भी है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमारे राष्ट्रीय संस्कारों पर दुष्प्रभाव डालने वाले सारे कारक आज भी उसी अवस्था में उपलब्ध हैं जितने स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व उपलब्ध थे।
अंग्रेजीराज की छाया
भारत के समाज पर इन और इन जैसी बुराईयों का शिकंजा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कसता ही जा रहा है। अंग्रेज चला गया किंतु अंग्रेज के भूत का राज तो अभी भी हमारे मन मस्तिष्क पर जारी है। यह हमारी स्वतंत्रता एक अधूरी स्वतंत्रता है जब तक कि अंग्रेज का यह भूत हमारे वर्तमान नेतागण यहां पर जीवित रखेंगे। स्वतंत्रता पर संकट के वास्तविक बादल ये हैं न कि कोई अन्य संगठन या बाहरी शक्तियां।
हर राजनीतिक दल के लिए अनिवार्यत: यह बताया जाना सुनिश्चित हो कि उसने स्वतंत्रता को इन बुराईयों से मुक्त करने के लिए कौन सी राजनीति, कार्यनीति और व्यवहारनीति अपनायी है, या बनाई है वह कैसे इन शत्रुओं से लड़ेगा? उसकी सोच, सिद्घांत और मानदण्ड स्वतंत्रता के इन शत्रुओं से लडऩे के लिए या उनके समूलोच्छेदन के लिए क्या हैं? क्रमश:
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715
मुख्य संपादक, उगता भारत