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विशेष संपादकीय

हम उस देश के वासी हैं

भारत के गौरव पर प्रकाश डालते हुए मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया व्हाट कैन इज टीच अस’ में लिखा है-”यदि मैं विश्वभर में से उस देश को ढूंढने के लिए चारों दिशाओं में आंखें उठाकर देखूं जिस पर प्रकृति देवी ने अपना संपूर्ण वैभव, पराक्रम तथा सौंदर्य खुले हाथों लुटाकर उसे पृथ्वी का स्वर्ग बना दिया है तो मेरी अंगुली भारत की ओर उठेगी। यदि मुझसे पुन: पूछा जाए कि अंतरिक्ष के नीचे कौन सा वह स्थल है जहां मानव के मानस ने अपने अंतराल में निहित ईश्वर प्रदत्त अनन्यतम सदभावों को पूर्णरूप से विकसित किया है, गहराई में उतरकर जीवन की कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है, उनमें से अनेकों को इस प्रकार सुलझाया है जिसको जानकर प्लेटो तथा कांट का अध्ययन करने वाले मनीषी भी आश्चर्य चकित रह जाएं तो मेरी अंगुली पुन: भारत की ओर उठेगी और मैं, यदि स्वयं अपने आपसे पूंछू कि हम यूरोप के वासी जो अब तक केवल ग्रीक, रोमन तथा यहूदी विचारों में पलते रहे हैं, किस साहित्य से वह प्रेरणा ले सकते हैं, जो हमारे भीतरी जीवन का परिशोधन करे, उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करे, व्यापक बनाये, विश्वजनीन बनाये सही अर्थों में मानवीय बनाये, जिससे हमारे इस पार्थिव जीवन को ही नही हमारी सनातन आत्मा को प्रेरणा मिले तो फिर मेरी अंगुली भारत की ओर उठेगी।”
सचमुच हमारे लिए यह गौरव और गर्व की बात है कि हम आदिकाल से ज्ञान विज्ञान के उपासक होने के कारण ही सनातन धर्मी हैं। हमारा मूल वेद है जिसका शाब्दिक अर्थ ही ज्ञान है। इस मूल की शाखाएं भी गुण कर्म, स्वभाव में वैसी ही हैं जैसी कि होनी चाहिए। ये शाखाएं जैन (ज्ञान से बिगड?र जैन बना है) बौद्ध (बोध-ज्ञान का समानार्थक) और सिक्ख (शिष्य-ज्ञान और विद्या का अभिलाषी) है।
भारत की इस ज्ञान परंपरा पर कितने ही लोगों ने अपना सर्वस्व होम कर दिया। संसार की भौतिक सुख संपदा को भारत की इस आध्यात्मिक पूंजी के समक्ष तुच्छ समझा। औरंगजेब का भाई दाराशिकोह उपनिषदों के रस का रसिया हो गया, और छह माह तक निरंतर इन उपनिषदों की व्याख्या काशी के पंडितों से सुनता रहा। 1656 ई. में उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करा दिया। इसी काल में औरंगजेब सत्ता षडयंत्र रचता रहा और एक सात्विक वृत्ति के व्यक्ति को दारा के रूप में सत्ता से दूर करने में सफल हो गया, पर उस व्यक्ति ने तनिक भी इस बात का बुरा नही माना।
कपिल देव द्विवेदी लिखते हैं कि वेदों के विषय में मनु का यह कथन सारगर्भित है कि-”सर्वज्ञानमयो हि स:” (मनु 2-7) अर्थात वेदों में सभी विद्याओं के सूत्र विद्यमान हैं।
वेदों में जहां धर्म, आचारशिक्षा, नीतिशिक्षा, सामाजिक जीवन, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद आदि से संबद्घ पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है वहीं विज्ञान के विविध अंगों से संबद्घ सामग्री भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। वेदों में भौतिकी रसायन विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, जंतु विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि, गणित शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, वृष्टि विज्ञान, पर्यावरण एवं भूगर्भ विज्ञान से संबद्घ सामग्री भी बहुलता से प्राप्त है।
अब ऐसे ही ज्ञानोपासक भारत के लिए समाचार मिला है कि अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में मैथ्स के प्रोफेसर भारतीय मूल के मंजुल भार्गव (40 वर्ष) ने मैथमैटिक्स का नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला ‘फील्ड्स मेडल’ प्राप्त किया है। यह मेडल 1936 ई. से निरंतर दिया जा रहा है और श्री मंजुल इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले पहले भारतीय मूल के व्यक्ति हैं। मंजुल ने ज्यामिती में कुछ नये तरीके विकसित किये और इस क्षेत्र में उनके पुरूषार्थ और उद्यम को देखते हुए उन्हें यह पुरस्कार दिया गया है। उन्होंने संस्कृत की सहायता से दो सौ वर्ष पुराने नंबर थ्योरी लॉ को सरल करके दिखा दिया था। संस्कृत के प्रति इतना आकर्षण श्री मंजुल को मानो उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है। क्योंकि उनके पितामह राजस्थान में संस्कृत के प्रोफेसर रहे थे। मंजुल का कहना है कि अपने दादाजी के पास उन्होंने 628 ई. पू. की भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त की संस्कृत में लिखी पांडुलिपि देखी थी। जिसका संस्कार बालक मंजुल के मनमस्तिष्क पर पड़ा और वह सफलता के नये नये आयामों को छूने लगा। श्री मंजुल का कहना है कि उक्त पांडुलिपि में जर्मनी के गणितज्ञ कार्ल फ्रैंडरिच गॉस के जटिल नंबर थ्यौरी लॉ जैसे सिद्घांत को साधारण ढंग से समझाया गया है। इस लॉ के अनुसार दो परफेक्ट एक्वेयर्स के जोड़ से प्राप्त दो नंबरों को परस्पर गुणा किया जाए तो परिणाम भी दो परफेक्ट स्क्वेयर्स के जोड़ जितना ही होगा। भार्गव ने ब्रह्मगुप्त के संस्कृत में लिखे सिद्धांत को फेमस रयूबिक क्यूब पर लागू किया और 18वीं शताब्दी के गॉस के लॉ को अधिक सरल ढंग से समझाने में सफलता प्राप्त की।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब भारतीय मूल के लोगों ने अपनी ज्ञानोपासना के द्वारा विदेशों में भारत और भारतीयता का नाम उज्ज्वल किया है। मां भारती के लिए ये लोग गौरव और गर्व के योग्य होते हैं। अपने देश की महान विरासत को विश्व में प्रचारित प्रसारित करना और उससे शेष विश्व को लाभान्वित करना ही देश, समाज और विश्व की सच्ची सेवा है। इस क्षेत्र में यदि मंजुल ने उत्कृष्ट कार्य किया है और पुरस्कार प्राप्त किया है तो इस पर सभी देशवासियों को उन पर गर्व है। उन्होंने विश्व को बता दिया है कि संस्कृत एक मृत भाषा न होकर जीवंत और अमृत भाषा है, जिसमें सृष्टि का गूढ़तम ज्ञान अंतर्निहित है। इसके रहस्यों को जितना समझा जाएगा और सूत्रों की जितनी सहज, सरल और सरस व्याख्या की जाएगी, उतना ही समुद्रमंथन होगा और हमें अमृत मिलेगा।
उदाहरण के रूप में यजुर्वेद (18-24) और (18-25) में 1 से 33 तक की विषम संख्याएं और 4 से 48 तक की सम संख्याएं दी गयी हैं। अथर्ववेद (2-24-1) में हमें भाग देने का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार ऋग्वेद (1-140-2) में गुणा संबंधी उल्लेख मिलता है। हम यहां संकेत मात्र कर रहे हैं। केवल यह स्पष्ट करने के लिए कि गणित का गूढ़ ज्ञान भी किस प्रकार वेदों के मंत्रों में छिपा पड़ा है और यह भी कि विश्व का संपूर्ण ज्ञान विज्ञान भारत की भूमि का ऋणी है। आज हमारे ज्ञान विज्ञान पर उपेक्षा और उपहास का ताला जड़ दिया गया है, जिस कारण हमारी युवा पीढ़ी अपने गौरवपूर्ण अतीत से कट रही है। यह घोर आश्चर्य और दुख का विषय है कि जो लोग हमसे ज्ञान विज्ञान प्राप्त करने के लिए आया करते थे आज हमें उन्हीं की ओर देखना पड़ रहा है। परमुखापेक्षी होने की यह शिक्षा प्रणाली हमारा अहित करती ही जा रही है और हम हैं कि इसका पीछा नही छोड़ रहे हैं। श्री मंजुल हमारे आज के युवा वर्ग के लिए निश्चय ही प्रेरणा स्रोत बनेंगे।
मैगास्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में लिखा है कि सिकंदर जब आक्रमण करने के लिए भारत की ओर चला तो वह पहले अपने गुरू अरस्तू से आज्ञा प्राप्त करने गया। उसने अरस्तू से पूछा कि आपके लिए भारत से क्या लाऊं ?
तो उस पर अरस्तू ने कहा था कि मेरे लिए भारत से दो उपहार लेकर आना-एक गीता और दूसरा कोई तपा हुआ दार्शनिक ऋषि। सिकंदर जब भारत से लौटने लगा तो उसे उस समय गीता तो सहज रूप से उपलब्ध हो गयी, परंतु विश्व विजेता पराजित सिकंदर को कोई दार्शनिक ऋषि उपलब्ध नहीं हुआ, तब उसने अपने एक विश्वसनीय औनियोक्रोटस नामक व्यक्ति को कोई दार्शनिक ऋषि खोजने के लिए भेजा। बड़ी कठिनता से दो साधु उस व्यक्ति को मिले। जिनमें से एक का नाम उसने ‘डैंडीमीज’ (दंडी स्वामी) लिखा है। इस डैंडीमीज ने सिकंदर के साथ जाने से इन्कार कर दिया। वह दूसरा संत ही सिकंदर के साथ गया।
यह था भारत जिसके ऋषि भी दूसरे देशों के दार्शनिकों के लिए कौतूहल और जिज्ञासा का श्रद्धामयी केन्द्र हुआ करते थे। हर्बर्ट ने जिस ‘फाइव स्टैप्स ऑफ हर्बर्ट’ को देकर संसार में अपना नाम कमाया है, वह हमारी ही खोज थी। प्राचीन काल में शिक्षा शास्त्री ज्ञान तक पहुंचने के लिए पांच क्रम रखते थे-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन। छांदोग्योपनिषद में ऋषि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा-देखो, सामने वटवृक्ष है, उसका फल ले आओ। श्वेतकेतु कुछ ही क्षणों में फल लेकर आ जाता है। तब ऋषि ने कहा- श्वेतकेतु इस फल को तोड़ दो। श्वेतकेतु ने फल तोड़ दिया। ऋषि ने पूछा इसमें क्या देखते हो? कहा-भगवन मैं इसमें छोटे-छोटे बीज देखता हूं। कहा -इनमें से एक दाने को तोड़ दो। श्वेतकेतु ने एक बीज तोड़ दिया। कहा इसमें क्या देखते हो? उत्तर मिला भगवान कुछ भी नहीं। गुरू ने कहा-सोम्य! तू कुछ भी नही कह रहा है, जिसे अणु रूप में तू कुछ नहीं देख पा रहा है उसी से यह महान वृक्ष खड़ा हो जाता है।
यह थी हमारी शिक्षा प्रणाली। खेल खेल में शिक्षा नही ज्ञान परोसती थी। इसी रहस्य को समझने के लिए कि समस्त विश्व अणुवाद के सिद्घांत से संचालित हैं, आज के विश्व ने करोड़ों अरबों डालर खर्च किये और एक हमारा ऋषि था कि जिसने एक वट वृक्ष के बीज से ही श्वेतकेतु को समझा दिया कि अणुवाद क्या है? और यह कैसे समस्त चराचर जगत का मूल आधार है।
मंजुल का संस्कृत संस्कृत प्रेम और उससे बनी उसकी सफलता की कहानी बहुत कुछ कह रही है। इस ‘बहुत कुछ’ को दीवार पर लिखी इबारत की तरह पढऩे में भी अक्षम है, और हमारे ऋषि ने श्वेतकेतु के द्वारा बीज में ‘कुछ भी न देखने’ की बात सुनकर भी उसे पढ़ा दिया कि कुछ भी नही देखने का अर्थ क्या है? परायी शिक्षा पद्घति पर चलकर अपनी चाल को भूल जाना और मौलिक शिक्षा पद्घति के बीच का अंतर है ये। इसे पाटना आज की सबसे बड़ी प्राथमिकता होना चाहिए। यदि हम अपने मौलिक चिंतन से भटकने से नही तो सब कुछ खो बैठेंगे। जबकि भारत जैसे सत्य सनातन राष्ट्र के लिए खोना नही, सदा पाना ही श्रेयस्कर है। तभी इसके सनातन धर्म की सनातनता अक्षुण्ण रह सकती है। कहो! गर्व से हम उस देश के वासी हैं-ज्ज्जिस देश में (वेद) गंगा बहती है।

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