Categories
इतिहास के पन्नों से

मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 22 ( ख ) महाराणा प्रताप का पराक्रम

महाराणा प्रताप का पराक्रम

युद्ध में महाराणा प्रताप किस प्रकार अपने पराक्रम का प्रदर्शन कर रहे थे ? इसके बारे में कर्नल टॉड ने भी हमें बहुत कुछ बताया है। वह लिखता है कि – “अपने राजपूतों और भीलों के साथ मारकाट करता हुआ प्रताप आगे बढ़ने लगा। लेकिन मुगलों की विशाल सेना को पीछे हटाना और आगे बढ़ना अत्यंत कठिन हो रहा था। बाणों की वर्षा समाप्त हो चुकी थी और दोनों ओर के सैनिक एक दूसरे के समीप पहुंचकर तलवारों और भालों की भयानक मार कर रहे थे। हल्दीघाटी के पहाड़ी मैदान में मारकाट करते हुए सैनिक कट कटकर पृथ्वी पर गिर रहे थे। मुगलों का बढ़ता हुआ जोर देखकर राणा प्रताप अपने चेतक घोड़े पर प्रचंड गति के साथ शत्रु सेना के भीतर पहुंच गया और वह मानसिंह को खोजने लगा।”

चले नाश करने शत्रु का राणा ने संकल्प लिया।
शत्रु मार भगाएंगे ना मन में कोई विकल्प लिया।।

कर्नल टॉड के इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि महाराणा प्रताप युद्ध क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ रहे थे। महाराणा प्रताप के सभी साथी उनके साथ बड़ी मजबूती के साथ खड़े हुए थे। उनके भाई शक्ति सिंह ने भी इस युद्ध में उनकी सहायता की थी। उनके अन्य अनेक साथियों ने भी अपने प्राणों की बाजी लगाकर महाराणा का साथ दिया था। सभी को धर्म और धरती को बचाने की चिंता थी और उन्हीं के लिए संघर्ष करते हुए शत्रु के प्राण ले रहे थे। उचित समय आते ही अपने प्राण दे भी रहे थे। महाराणा प्रताप को इस युद्ध में उनके चेतक नामक घोड़े का भी बहुत सहयोग मिला था। यद्यपि चेतक एक पशु था, परंतु वह बहुत ही समझदार घोड़ा था। जिसने महाराणा को युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाने में और मुगलों से उस दिन उनके प्राण बचाने का बहुत प्रशंसनीय कार्य किया था। महाराणा की अमर कीर्ति के साथ चेतक भी अमर हो गया।

महाराणा प्रताप और रामप्रसाद हाथी

हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह कर रहा था। मानसिंह महाराणा प्रताप से अपने पुराने सभी वैर साध लेना चाहता था, परंतु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया। यदि वह हाथी के हौदे में जाकर नहीं छिपता तो उस दिन महाराणा प्रताप उसे परलोक पहुंचा देते। मानसिंह ने ही महाराणा प्रताप का इतिहास प्रसिद्ध रामप्रसाद नाम का हाथी ले जाकर अकबर को दिया था।

प्रसाद ‘राम’ का साथ हमारे सौभाग्य यह हम सबका था।
सचमुच अनुपम और अद्वितीय वीर पशु वह तब का था।।

रामप्रसाद नाम का यह हाथी इतना बलशाली था कि उसने अकबर की सेना के 13 हाथियों का विनाश कर दिया था। इसके बारे में इतिहास से जानकारी मिलती है कि सात हाथियों के माध्यम से इसे 14 महावतों के द्वारा नियंत्रण में लिया गया था। जब इसे अकबर के सामने प्रस्तुत किया गया था तो अकबर ने इसे अपने सैर सपाटे के लिए रखना चाहा था, परंतु इसने अकबर के यहां जाकर अन्न पानी त्याग दिया था। कहते हैं कि वह किले के मुख्य द्वार की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता था , संभवत: वह अपने स्वामी महाराणा प्रताप की प्रतीक्षा कर रहा था। 18 दिन बिना भोजन पानी के रहने के बाद उसने प्राण त्याग दिए थे।

क्या सलीम हल्दीघाटी के युद्ध में था?

हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसमें सलीम की उपस्थिति नहीं थी। सामान्य रूप से यह भ्रांति व्याप्त है कि अकबर की सेना का नेतृत्व शहजादे सलीम ने किया था। सलीम 1568 ई0 में पैदा हुआ था और यह युद्ध सन 1576 के जून माह में लड़ा गया था। इस प्रकार वह उस समय लगभग 8 वर्ष का एक छोटा सा बालक था। जिससे इतने बड़े युद्ध के नेतृत्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हल्दीघाटी के युद्ध में सलीम की उपस्थिति के संबंध में जो भी कुछ कहा जाता है वह काल्पनिक है।

झूठों के पुलिंदा गढ़ने वाले इतिहास धर्म से दूर खड़े।
आज पाप उजागर होने पर धरती में सिर जिनके गड़े।।

वास्तव में इस प्रकार की अनर्गल बातों को इतिहास में स्थापित करके कुछ इतिहासकारों ने केवल यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मुगल बचपन से ही वीर और प्रतापी हुआ करते थे। तलवारों से खेलना उनका शौक था और खून बहाने में उन्हें किसी भी प्रकार का संकोच नहीं होता था। इसी प्रकार की बेतुकी मान्यता को स्थापित करने के लिए यह बात मिथ्या प्रचार के रूप में स्थापित की गई है कि हल्दीघाटी के युद्ध में सलीम ने शाही सेना का नेतृत्व किया था।

मानसिंह और शक्ति सिंह के बारे में

मानसिंह ने बंगाल और बिहार को जीतकर मुस्लिम शासक अकबर के पैरों में लाकर डाल दिया था। उसकी वीरता में कोई संदेह नहीं है। अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हुए मानसिंह ने काबुल को भी जीता था। इस प्रकार वह अकबर के साम्राज्य विस्तार में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ था। काश ! इसी काम को वह महाराणा प्रताप के साथ मिलकर करता तो अकबर को भारत से भगाने में तो सफलता मिलती ही साथ ही देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा करने में भी बड़ी भारी सफलता मिलती। पर उसने ऐसा न करके विदेशी शासक को सहायता देकर भारत का अहित करने में ही भलाई समझी।
अब हम महाराणा प्रताप के एक भाई शक्ति सिंह के बारे में कुछ बताना चाहेंगे। महाराणा प्रताप के अनुज और महाराणा उदय सिंह के पुत्र शक्ति सिंह का जन्म 1540 ईस्वी में हुआ था। वह महाराणा प्रताप से कुछ महीने ही छोटे थे। उन्हें शक्ति तथा सगत नामों से भी जाना जाता था, राणा उदय सिंह की रानी सज्जा बाई सोलंकिनी के गर्भ से उनका जन्म हुआ था। शक्ति सिंह बचपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या में पारंगत हो गए थे। उनकी वीरता की धाक उनके बचपन में ही जम गई थी।
एक बार की बात है कि महाराणा उदय सिंह के दरबार में एक हथियार बेचने वाला व्यक्ति अपने हथियारों का प्रदर्शन करने के लिए आया हुआ था। वहीं पर बालक शक्ति सिंह भी बैठा हुआ उस हथियार विक्रेता के हथियारों का प्रदर्शन देख रहा था। वह हथियार निर्यातक व्यक्ति एक तलवार की तीव्र धार का प्रदर्शन करते हुए रूई को काट रहा था। तब शक्तिसिंह पर रुका नहीं गया। उसने कहा कि रूई काटकर देखने से हथियार की जांच नहीं होती। हथियारों का प्रदर्शन रुई काटकर क्यों कर रहे हो? वास्तव में हथियार निर्यातक जिस प्रकार हुई काट रहा था वह शक्ति सिंह को अच्छा नहीं लगा था। 

फलस्वरूप शक्ति सिंह ने हथियार विक्रेता से तलवार छीन ली और कहा कि किसी तलवार की धार का परीक्षण रूई काटकर नहीं किया जाता है। दरबार में बैठे हुए सभी लोग बालक शक्ति सिंह की बात को सुनकर आश्चर्य में पड़ गए। सब सोच रहे थे कि यदि रूई काटकर हथियार का प्रदर्शन नहीं किया जाता तो फिर ऐसा कौन सा ढंग है जिससे हथियार का अर्थात तलवार की धार का परीक्षण किया जा सकता है? शक्ति सिंह के आशय को दरबारी समझ भी नहीं पाए थे कि उसने तलवार उठाई और एक ही बार में अपनी एक उंगली आगे कर काट डाली।
महाराणा उदय सिंह ने भी अपने पुत्र शक्ति सिंह के इस दुस्साहस को देखा तो उसे यह बात उचित नहीं लगी। महाराणा ने सोचा कि उसका पुत्र बहुत ही निर्दयी है और उसका मेरे राज्य में रहना उचित नहीं है। फलस्वरूप राणा उदय सिंह अपने राज्यसिंहासन से उठे और राजकुमार को पकड़कर अपने सिंहासन के निकट ले आए। महाराणा ने क्रोधावेश में निर्णय दे दिया कि इस दुस्साहसी राजकुमार को शीघ्र से शीघ्र समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि जिसे अपने शरीर से ही प्रेम नहीं वह किसी अन्य से क्या प्रेम कर सकेगा?
राणा की यह आज्ञा सभी राजदरबारियों के लिए अप्रत्याशित थी। कइयों को तो यह अपेक्षा थी कि महाराणा अपने पुत्र की इस प्रकार की वीरता को देखकर उसे कोई पारितोषिक देंगे? पर इसके विपरीत उनके आदेश को सुनकर सब आश्चर्य में पड़ गए। सभी एक दूसरे की ओर देख रहे थे। किसी का भी यह साहस नहीं था कि वह उठकर महाराणा उदय सिंह के आदेश का क्रियान्वयन कर सके। कोई दरबारी यह भी नहीं कह पा रहा था कि महाराज ! बच्चा है और उससे यदि कोई गलती हो गई है तो उसे क्षमा कर दें। सचमुच महाराणा के निर्णय ने राज दरबार में बड़ी ही असहज स्थिति उत्पन्न कर दी थी।

एक दरबारी का अनुरोध

कुछ समय उपरांत एक दरबारी सरदार उठा और उसने राणा से कहा कि "महाराज यदि क्षमा कर दें तो एक अनुरोध करना चाहता हूं।" राणा उदय सिंह की अनुमति के पश्चात उस सरदार ने कहा कि महाराज मुझे कोई संतान नहीं है, यदि आप उचित समझें तो इस बच्चे को मुझे को दे दें। आप अपने लिए इसे मरा हुआ समझ लें। 

महाराणा ने इस पर अपनी सहमति दे दी तो वह सरदार उस बच्चे को अपने साथ लेकर चला गया। जब राणा उदयसिंह की मृत्यु हुई और महाराणा प्रताप मेवाड़ के नए शासक बने तो उन्होंने अपने भाई शक्ति सिंह को इस मन किया। इसके पश्चात उन्होंने अपने भाई शक्ति सिंह को अपने पास आने का निमंत्रण भेजा। महाराणा प्रताप के निमंत्रण को पाकर शक्ति सिंह को भी असीम प्रसन्नता हुई और वह अपने भाई के पास आकर रहने लगा। महाराणा प्रताप द्वारा लिए गए इस प्रकार के निर्णय की उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों और सभी सरदारों ने बड़ी प्रशंसा की। महाराणा प्रताप द्वारा लिया गया निर्णय सचमुच महत्वपूर्ण था, क्योंकि उस समय अकबर जैसे शत्रु से लड़ने के लिए सामूहिक एकता की आवश्यकता थी।
इस संबंध में एक मान्यता यह भी है कि अपने पिता से शत्रुतापूर्ण सम्बन्धों के कारण उन्होंने राजमहल तथा राजसी सुख स्वयं ही त्याग दिया था । जब अकबर को यह सूचना प्राप्त हुई कि शक्ति सिंह की अपने पिता से नहीं बनती है तो उसने परिवार की उस फूट का लाभ उठाना चाहा। 1567 ईस्वी में जब अकबर धौलपुर में पड़ाव डाले हुए था और मेवाड़ को नष्ट करने की योजना बना रहा था तब उसने शक्ति सिंह को बुलाकर महाराणा उदय सिंह से अपने द्वारा हमला करने की योजना सांझा की। अकबर सोच रहा था कि वह मेवाड़ पर आक्रमण की सूचना पाकर प्रसन्न होगा, क्योंकि वह भी राणा उदय सिंह से शत्रुता मानता है और मेरा स्वयं का शत्रु भी उदय सिंह ही है। उस समय अकबर यह भूल गया था कि वह जिस व्यक्ति से बात कर रहा है उसका नाम शक्तिसिंह है। वह अपने पिता से असहमत या असंतुष्ट हो सकता है परंतु इस असहमति या असंतोष का दंड वह मेवाड़ को कदापि नहीं देगा।

शक्ति सिंह की महानता

जब शक्ति सिंह को अकबर की योजना की जानकारी हुई तो वह अकबर के प्रस्ताव पर बहुत अधिक क्रुद्ध हुआ। वह अकबर से बिना कोर्निश अर्थात सलाम किए हुए ही तेजी के साथ वहां से निकल गया। इसके पश्चात उस देशभक्त युवा ने अकबर की सारी योजना अपने पिता को जाकर बताई। इस प्रकार शक्ति सिंह ने सही समय पर अकबर की योजना को अपने पिता राणा उदय सिंह को बताकर अपनी देशभक्ति का परिचय दिया। शक्ति सिंह के वंशज शक्तावत कहे जाते हैं। हल्दीघाटी युद्ध के समय वह अपने भाई राणा प्रताप के साथ आ गए थे।
शक्ति सिंह और महाराणा प्रताप के विषय में यह भी कहा जाता है कि एक बार ये दोनों भाई अहेरिया के उत्सव में सम्मिलित हुए। इस उत्सव में संपूर्ण मेवाड़ के गणमान्य लोग सामंत सरदार आदि पहले से ही विद्यमान थे। तभी वहां महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह भी आ उपस्थित हुए। ये दोनों भाई भी जंगली सूअर का शिकार करने की उस प्रतियोगिता में स्वेच्छा से सम्मिलित हुए। यह एक संयोग ही था कि दोनों ने एक साथ ही सुअर पर आक्रमण कर दिया और दोनों के भाले (कहीं-कहीं से बाण भी बताया गया है) सूअर को एक साथ ही जा लगे। जिससे उसकी मृत्यु हो गई। अब दोनों भाइयों में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया कि यह सूअर किसके भाले से मरा है? महाराणा प्रताप कहते थे कि इसकी मृत्यु मेरे भाले से हुई है तो शक्तिसिंह कहते थे कि आपके भाले से नहीं मेरे भाले से सूअर की मृत्यु हुई है।
दोनों भाइयों के इस वाद विवाद को देखकर उपस्थित लोग बड़े दु:खी थे। तभी वहां पर राणा परिवार का राजपुरोहित आ गया। उसने भी भरसक प्रयास किया कि दोनों भाई इस विवाद को और ना बढ़ाएं और आपस में लड़ाई झगड़ा ना करें, परंतु राजपुरोहित के इस अनुनय विनय का कोई प्रभाव इन दोनों भाइयों पर नहीं पड़ा। दोनों ने एक दूसरे के लिए तलवार खींच ली और एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए। कहा जाता है कि जब उस राजपुरोहित ने देखा कि वह दोनों भाई एक दूसरे पर हथियारों से हमला करने ही वाले हैं तो उसने अपनी कटार अपनी छाती में भोंक कर आत्महत्या कर ली। जिससे दोनों भाई झगड़े को रोक सकें। ऐसा भी कहा जाता है कि शक्ति सिंह की तलवार के आघात से बीच में आए राजपुरोहित की अनजाने में हत्या हो गई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि जब दोनों भाई एक दूसरे पर तलवार का आक्रमण कर ही रहे थे तो अचानक राजपुरोहित के बीच में आ जाने से उन दोनों की तलवारों के संयुक्त वार से पुरोहित वहीं पर ढेर हो गया था।
अब नवीन अनुसंधानों से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह के बीच ऐसा कोई वाद विवाद नहीं हुआ था, और यह घटना काल्पनिक है। वास्तव में जिस प्रकार शक्ति सिंह ने 1567 के युद्ध के समय अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए पिता को सही समय पर अकबर की योजना से अवगत कराया था और बाद में वह जिस प्रकार अपने भाई महाराणा प्रताप के साथ हल्दीघाटी युद्ध में आकर मिल गया था, उससे यही बात सही लगती है कि उसके भीतर देश भक्ति और परिवार भक्ति के उत्कृष्ट संस्कार थे। जिनके चलते उपरोक्त घटना को काल्पनिक माना जाना ही उचित होगा।

दानवीर, धर्मवीर और युद्धवीर शक्ति सिंह

 हल्दीघाटी युद्ध से जब महाराणा प्रताप को झालाराव मन्ना सिंह ने हल्दीघाटी रण क्षेत्र से बाहर निकल जाने के लिए प्रेरित किया तो पहले तो उन्होंने ना नुकर की परंतु मन्ना सिंह के अधिक कहने पर वह मान गए। झालाराव ने महाराणा के राजछत्र को पल भर में अपने लिए ले लिया और महाराणा को वहां से निकाल दिया। परंतु इस घटना को दो मुगल सैनिकों ने देख लिया था। उन दोनों मुगल सैनिकों ने महाराणा के पीछे अपने घोड़े दौड़ा दिए। उन दोनों को उस समय अकबर से पुरस्कार पाने का लालच था। महाराणा प्रताप अपने गंतव्य की ओर बढ़े जा रहे थे। तब उनके पीछे लगे उन दोनों मुगल सैनिकों को शक्ति सिंह ने देख लिया था । अतः वह भी अपने भाई के प्राणों को संकट में देखकर उस ओर दौड़ लिया था। 

महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक उस समय बड़ी दयनीय अवस्था में था। इसके उपरांत भी वह महाराणा को उनके सुरक्षित स्थान की ओर लिए जा रहा था। उस घोड़े ने महाराणा प्रताप को मार्ग में पड़ी एक नदी ( इसे नाला भी लिखा गया है) को भी लांघ कर पार करा दिया। इस नाले की चौड़ाई 26 फीट बताई गई है। चेतक तो अपना कर्तव्य निभा चुका था । अब बारी शक्ति सिंह की थी।
भाई के प्रति आत्मिक लगाव के वशीभूत होकर शक्ति सिंह उनकी सुरक्षा के लिए और मुगल सैनिकों को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर आगे बढ़ता जा रहा था। आज शक्ति सिंह कर्मवीर भी था, युद्धवीर भी था ,दानवीर भी था और धर्मवीर भी था। अपनी इस चतुरंगिणी सेना के साथ आज वह इतिहास लिखने जा रहा था। आपदा में फंसा देखकर विपत्ति में फंसा देखकर उसने पीछे से कड़कती हुई आवाज लगाई ‘ओ नीला घोड़ा रा असवार’ अर्थात ओ नीले घोड़े चेतक के असवार। शक्ति सिंह के इन शब्दों को सुनकर उन मुगल सैनिकों को झटका लगा। परंतु महाराणा वस्तुस्थिति को समझ नहीं पाए। कहा जाता है कि एक बार उन्हें ऐसा लगा कि जैसे शक्तिसिंह भी उनसे युद्ध करने के लिए यहां पर आया है और उन्हें चुनौती दे रहा है। परंतु शक्ति सिंह जैसे ही भाई के निकट पहुंचा तो उसने उन दोनों शत्रु सैनिकों का अंत कर दिया और उन्हें मृत्युलोक पहुंचा दिया। इसके पश्चात जिस भाले से शक्ति सिंह ने अपने भाई के शत्रुओं का नाश किया था उसे एक ओर फेंक कर शक्ति सिंह दोनों हाथों को जोड़कर अपराधी की मुद्रा में अपने भाई महाराणा की ओर बढ़ा।
महाराणा प्रताप ने अपने भाई की भावनाओं को समझने में देर नहीं की। जैसे ही शक्ति सिंह अपने भाई के पैरों की ओर झुका तुरंत उन्होंने अपने प्रिय अनुज को छाती से लगा लिया। दोनों की आंखों से अश्रु धारा बह चली। एक बार फिर भारत के इतिहास ने राम भरत का मिलाप देखा। गले मिलने के समय शक्ति सिंह कहे जा रहा था कि ‘भ्राता श्री ! मैंने आपको व्यर्थ ही इतना कष्ट दिया है मुझे क्षमा कर दो , क्षमा कर दो।’ महाराणा को भी अनुज शक्ति सिंह के शब्दों में आज एक अलग ही आकर्षण दिखाई दे रहा था। उस आकर्षण ने महाराणा को हृदय से पिघला दिया था। अश्रु धारा के अतिरिक्त शब्द उनके पास भी नहीं थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।
अब तक रूप में मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा नामक हमारी है पुस्तक अभी हाल ही में डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हो चुकी है । जिसका मूल्य ₹350 है। खरीदने के इच्छुक सज्जन 8920613273 पर संपर्क कर सकते हैं।)

Comment:Cancel reply

Exit mobile version