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भारतीय संस्कृति

आर्य समाज का प्रचार कैसे हो*? *आर्य समाज में भीड़ इकट्ठी क्यों नहीं होती*?

लेखक- स्वर्गीय डॉक्टर धर्मवीर जी।

प्रस्तुतकर्ता -आर्य सागर खारी, गांव तिलपता ग्रेटर नोएडा 🖋️

हर आर्य समाजी को एक चिंता सताती है कि आर्य समाज का प्रचार प्रसार कैसे हो। अलग-अलग लोग अपनी- अपनी सम्मति देते हैं। सबसे पहले वह लोग हैं जो लोगों को आकर्षित करने के लिए लोक रंजक उपायों को अपनाने का सुझाव देते हैं। कोई आर्य समाज के कार्यक्रम सत्संग में भोजन का सुझाव देता है ,तो कोई बच्चों में मिठाई बांटने की बात करता है। खेल -मेले आयोजन की बात करता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी कहा करते थे कि आज आर्य समाज का सारा कार्यक्रम तीन बातों तक सिमट गया है- जलसा, जुलूस और लंगर। भीड़ जुटाने के लिए हमारे पास विद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। बच्चों और विद्यालय के अध्यापकों की संख्या जोड़कर आर्य समाज के कार्यक्रम सफल किए जाते हैं। नगर के स्तर पर यदि समाजे हैं तो उत्सव के समय आर्य समाजो के लोग मिलकर एक दूसरे के कार्यक्रम में सम्मिलित हो जाते हैं ,तो संख्या सौ पचास तक हो जाती है और हम उत्सव सफल मान लेते हैं, प्रांतीय स्तर हो या राष्ट्रीय स्तर सभी स्थानों पर वही मूर्ति आपको दिखाई देती है यदि संख्या को बढ़ाना हो तो हम अपने कार्यक्रम में किसी राजनेता को बुला लेते हैं।

ऐसे व्यक्ति के आने से उनके साथ आने वालों की संख्या से समारोह की भीड़ बढ़ जाती है। समाज का भी कोई कार्य हो जाता है तथा राजनेताओं को जनसंपर्क करने का अवसर मिल जाता है। हमारी इच्छा रहती है कि हम कोई ऐसा कार्य करें ,जिससे हमारे कार्यक्रम में लोगों की भागीदारी बढे। हम अपने कार्यक्रमों की तुलना समाज के पंथो महंतों की कथा आयोजनों से करते हैं। आजकल यह कथाएं भागवत सत्यनारायण सुंदरकांड और भी बहुत सी पौराणिक कथायें चलती है इन से लोगों का मनोरंजन हो जाता है, कथा वाचक को अच्छी दक्षिणा प्राप्त हो जाती है और आयोजक सोचता है कि वह पुण्य का भागी है। आर्य समाज के पास ऐसी लोकलुभावन कथा तो है नहीं आर्य समाज वेद कथा करता है इस कथा को करने वाले ही नहीं मिलते तो सुनने वाले कहां से मिलेंगे। हमें समझना चाहिए कि हमारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे भीड़ को आकर्षित किया जा सके। भीड़ को आकर्षित करने का सबसे महत्वपूर्ण प्रकार है -चमत्कार दिखाकर जन सामान्य को मूर्ख बनाना। साईं बाबा ,सत्य साईं, आसाराम, निर्मल दरबार, सच्चा सौदा व सैकड़ों मत -मतांतर है जो चमत्कार से जनता पर कृपा की वर्षा करते हैं। ऋषि दयानंद ने किसी को कोई चमत्कार नहीं दिखाया, ना कोई झूठा आश्वासन दिया। आज व्यक्ति ही नहीं बल्कि मत संप्रदाय भी लोगों को चमत्कारों से ही मुर्ख बनाते हैं। ईसाई लोग चंगाई का पाखंड करते हैं दूसरों के पाप ईसा के लिए दंड का कारण बताते हैं। ईसा पर विश्वास लाने पर सारे पाप क्षमा होने की बात करते हैं। मुसलमान खुदा और पैगम्बर पर ईमान लाने की बात करते हैं। खुदा पर ईमान लाने मात्र से ही ईमान लाने वाले को जन्नत मिल जाती है ।जिहाद करने, काफिर को मारने से और कुछ भी बिना किये खुदा जन्नत बक्स देता है। पौराणिक गंगा -स्नान कराकर ही मुक्त कर देता है। व्रत -उपवास कथा से ही दुख ढल जाते हैं, स्वर्ग मिल जाता। मंदिर में देव दर्शन से पाप कट जाते हैं। सारे ही लोग जनता को मूर्ख बनाते हैं और भीड़ चमत्कारों के वशीभूत होकर ऐसे गुरु ,महंत, मठ मंदिरों पर धन की वर्षा करती है।

क्या ऋषि दयानंद ने कोई चमत्कार किया अथवा क्या आर्य समाज के पास कोई चमत्कार है ,जिसके भरोसे भीड़ को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है?
इसके अतिरिक्त लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का उपाय है- प्रलोभन। कोई व्यक्ति किसी के पास किसी के लाभ विचार से जाता है। कुछ लोग भोजन, वस्त्र धन का प्रलोभन देते हैं। ईसाई लोग गरीबों में भोजन वस्त्र बांटकर लोगों को अपने पीछे जोड़ते हैं। कुछ लोग प्रतिष्ठा के लिए किसी गुरु महंत के चेले बन जाते हैं। किसी मठ मंदिर में नौकरी ,संपत्ति का लोभ मनुष्य को उनके साथ जोड़ता है। मुसलमान और ईसाई ,लोगों को नौकरी और विवाह का प्रलोभन देते हैं। आर्य समाज में प्रलोभन के अवसर बहुत थोड़े हैं परंतु उनका उपयोग नये लोगों को अपने साथ जोड़ने या पुराने लोगों से काम लेने के लिए नहीं किया जाता ।आर्य समाज की संपत्ति और उसकी संस्थाओं का उपयोग अधिकारी प्रबंधक लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए करते हैं। इसी कारण इन संस्थाओं में कार्य करने वाला व्यक्ति आर्य सिद्धांतों से जुड़ना तो दूर जानने की इच्छा भी नहीं करता।
आर्य समाज में आने का एक लोभ रहता है -सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना। आर्य समाज की प्रजातांत्रिक चुनाव पद्धति के कारण किसी का भी इस संस्था में प्रवेश सरल है, दूसरे लोग संस्था में घुसकर संपत्ति व पदों पर अधिकार कर लेते हैं इनका आर्य समाज के विचार या सिद्धांत से विशेष संबंध नहीं होता। संगठन के पास ऐसे अवसर इतने अधिक भी नहीं है कि इनसे अन्य मत- मतांतर के लोगों में इसके प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न हो सके। ऋषि दयानंद के पीछे आने वाले लोगों में पहले भी कोई प्रलोभन नहीं था। आज तो संस्था के पास संपत्ति ,भूमि ,भवन, विद्यालय दुकाने आदि बहुत कुछ है परंतु आर्य समाज के प्रारंभिक दिनों में आर्य समाज में आने वालों ने अपना समय ,धन ,प्रतिष्ठा, प्राण सभी कुछ समाज और ऋषि की भावना के लिए अर्पित किया।

फिर कौन सा कारण है, जिससे हमें लगता है कि लोग ऋषि के पीछे आते थे और आज हमारे पीछे क्यों नहीं आते?

लोक चमत्कारों के पीछे जाते हैं। हमारे पास चमत्कार नहीं है ,ऋषि के पास भी नहीं थे। हमारे पास भी किसी को लाभ पहुंचाने के लिए कोई साधन नहीं है। फिर कौन सी बात है जिसके कारण लोग ऋषि के अनुयाई बने उनके पीछे चले और फिर आज हमारे में कौन सी कमी आ गई है जिसके कारण लोग हमारी ओर आकर्षित नहीं हो रहे?
इन सब बातों का एक उत्तर है ऋषि दयानंद ने जो कुछ कहा था वह बुद्धि को स्वीकार करने योग्य और तर्कसंगत था। उन्होंने जो कहा यथार्थ था, सत्य था, तर्क और प्रमाण से युक्त था। लोगों को स्वीकार करने में संकोच नहीं होता था। जो भी उनकी बात सुनता था, उसकी समझ में आ जाती थी और वह उनका अनुयायी हो जाता था। ऋषि दयानंद ने दुकानदारी का सबसे बड़े आधार की, भगवान पाप क्षमा करता है इसे ही समाप्त कर। ईश्वर ने संसार बनाया और जीवो के उपकार के लिए बनाया। ईश्वर प्रत्येक प्राणी के जीवन के लिए जो जितना आवश्यक है उसे देता है परंतु जिसका जितना व जैसा कर्म है उसको उतना और वैसा ही फल देता। वह अपनी इच्छा से कम या अधिक नहीं कर सकता। इसका कारण बताया कि वह न्यायकारी है। यदि किसी को कुछ भी दे सकता तो सब को सब कुछ बिना की ही दे देता। सब को सब कुछ बिना किए ही मिलता तो किसी को कुछ भी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। कर्म करने की आवश्यकता नहीं रही तो संसार के बनाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ऋषि कहते हैं- ईश्वर से जीव भिन्न है न वह उससे बना है और ना कभी उसका उसमें लय होता है। ना जीव कभी ईश्वर बनता है और न ईश्वर कभी जीव बनता है। अवतारवाद पाखंड है। गंगा आदि में स्नान करने से मुक्ति मानना भी पाखंड है। देवता जड़ भी होते हैं, चेतन भी। परमेश्वर निराकार चेतन देवता है, शरीरधारी साकार चेतन तथा शेष जड़ देवता है। मूर्ति ना परमेश्वर है,न मूर्ति पूजा परमेश्वर की रजा है यह तो व्यापार है, ठगी है। तीर्थ यात्रा से भ्रमण होता है, कोई पुण्य या स्वर्ग नहीं मिलता। जन्म जन्म से जाति व्यवस्था मानना, ऊंच-नीच मानना मनुष्य समाज का दोष है इससे दुर्बलो को उनके अधिकार से वंचित किया जाता है। विद्याज्ञान का अधिकार सब मनुष्य को समान रूप से प्राप्त है। इस प्रकार सैकड़ों पाखंड समाज में व्याप्त थे, उन सब का ऋषि दयानन्द ने प्रबल खंडन किया। यह अनुचित है तो ईसाई हो या मुसलमान जैन हो या बौद्ध हिंदू हो या पारसी आस्तिक हो या नास्तिक कुरान में हो या पुराण में देसी हो या विदेशी जहां पर जो भी गलत लगा ऋषि ने उसका खंडन किया। इस प्रकार उनके भाषण, उनकी पुस्तकें जिसके पास भी पहुंची उसे बुद्धिगम्य होने से स्वीकार्य लगी। यही ऋषि दयानंद के विचारों का तीव्रता से फैलने का कारण था।

आज हमारी समस्या यह है कि हम दूसरों के पाखंड का खंडन करने में असमर्थ हैं ,खंडन के मामले में हम समझौतावादी हो गए है और स्वयं पाखंड से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कारण इस कार्य में सफलता कैसे मिल सकती है। सफलता के लिए, बुद्धिमान लोगों तक ऋषि के विचारों का पहुंचना आवश्यक है जिसमें हम असफल रहे हैं। आज समाज में युवा वर्ग अपनी भाषा से दुर हो गया है, उस तक उसकी भाषा में पहुंचना आवश्यक है। इसके लिए सभी भाषाओं में साहित्य और प्रचारक दोनों ही सुलभ नहीं है। परिणाम स्वरुप नई पीढ़ी से हमारा संपर्क समाप्त प्राय है। आर्य समाज को यदि बढ़ना है तो बुद्धिजीवी व्यक्ति तक वैदिक विचारों को पहुंचाने की आवश्यकता है, इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

नान्यः पन्था विद्यतेSयनाय

नवंबर द्वितीय २०१६

यह लेख ऋषि भक्त विद्वान परोपकारिणी सभा अजमेर के यशस्वी प्रधान/मंत्री स्वर्गीय डॉ धर्मवीर जी की कहां गए वे लोग पुस्तक संपादकीय संग्रह से लिया गया है।

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