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इतिहास के पन्नों से

महाराणा उदय सिंह प्रथम और महाराणा रायमल

महाराणा कुंभा जैसे वीर पराक्रमी और संस्कृति प्रेमी शासक के यहां उदय सिंह जैसा नैतिक मूल्यों से हीन पुत्र जन्मा। जिसने भारतीय इतिहास की उज्ज्वल परंपरा को कलंकित करते हुए अपने पिता की हत्या की। वास्तव में उदा सिंह मेवाड़ के गौरवशाली राजवंश का एक कलंक है। इस शासक को उदय और ऊदा के नाम से भी जाना जाता है। इतिहास में सुविधा के दृष्टिकोण से इसे महाराणा उदय सिंह प्रथम भी कहा जाता है।
इसने अपने पिता की हत्या करके न केवल मेवाड़ का महाराणा राजवंश कलंकित किया अपितु आर्य हिंदू राजाओं की गौरवशाली परंपराओं को ग्रहण भी लगा दिया। स्पष्ट है कि महाराणा उदा कुलदीप न होकर कुल कलंक था। उसे मेवाड़ का मुकुट उत्तराधिकार की सहज प्रक्रिया के अंतर्गत प्राप्त नहीं हुआ था अपितु उसने अपने पिता की हत्या करके इसे बलात छीना। यह और भी दु:खद बात है कि महाराणा कुंभा जिस समय एक अजीब सी मानसिक बीमारी से रोगग्रस्त थे, उदय ने उस समय उनकी हत्या की थी। पिता का हत्यारा होने के कारण इससे कभी भी मेवाड़ के लोगों का सम्मान प्राप्त नहीं हुआ।

हत्यारा था बाप का, लोक लाज से हीन।
बेहया – बेशर्म था , पूरा था बेदीन।।

मेवाड़ के लोगों ने अबसे पहले किसी भी हिंदू राजा को अपने पिता के साथ ऐसा नीच व्यवहार करते हुए नहीं देखा था। बात स्पष्ट है कि ऐसी परिस्थितियों में उदय के प्रति मेवाड़ के लोग तटस्थ हो गए। महाराणा उदय सिंह प्रथम को अपने लोगों का अपने प्रति ऐसा व्यवहार बहुत अखरता था। वह अपने नीच कर्म की ओर जब भी देखता होगा तब वह अपनी प्रजा के अपने प्रति व्यवहार और अपने द्वारा किए गए नीच कर्म को भी देखता होगा । उस समय उसके लिए ये दोनों स्थितियां ही दु:ख, निराशा और पश्चाताप का कारण बन जाती होंगी। दु:ख, निराशा और पश्चाताप तीनों से ही जिस विक्षोभ का निर्माण होता है उसमें व्यक्ति हठीला, दुराग्रही और क्रोधी होता चला जाता है । अंत में वह क्रूर होकर रह जाता है। बस, यही कारण था कि महाराणा उदय सिंह प्रथम अपने मौलिक स्वभाव और उसके कारण अपने चारों ओर सृजित हुई परिस्थितियों के वशीभूत होकर अपने मेवाड़ की प्रजा के लिए भी किसी रावण से कम नहीं था। वह प्रजा पर अत्याचार करके प्रसन्न होता था।
उदय सिंह प्रथम ने पिता की हत्या करते समय सोचा होगा कि सत्ता में आने के पश्चात लोग अपने आप ही उसे राजा स्वीकार कर लेंगे और शक्ति सत्ता के सामने उसका विरोध करने का साहस किसी का भी नहीं होगा। ऐसा सोचते समय महाराणा यह भूल गया था कि भारतवर्ष के लोग संस्कार को प्राथमिकता देते हैं। मुसलमानों के यहां शक्ति और सत्ता को सलाम करने वाले हो सकते हैं पर भारत में आर्य हिंदू समाज के भीतर ऐसा कभी नहीं होता। वैदिक संस्कारों में तो प्रारंभ से ही क्रूर, अत्याचारी, भ्रष्ट और चोर राजा या शासक के विरुद्ध विद्रोह करने की शिक्षा दी जाती है।

उदय सिंह प्रथम के शासन का अंत

 पश्चाताप की अग्नि में जलते महाराणा उदय सिंह के लिए एक-एक दिन काटना कठिन हो गया था। प्रजा की ओर से राजा का बहिष्कार किया जाना उसके लिए बहुत बड़ी चिंता और तनाव का कारण रहता था। उसका शासनकाल 1468 ईस्वी से लेकर 1473 तक मात्र 5 वर्ष का रहा। 1473 ईस्वी में उसको सत्ता से दूर कर दिया गया। इससे मेवाड़ के प्रजाजनों को भी बहुत अधिक सुख की अनुभूति हुई थी। उसको सत्ता से हटाने के पश्चात उसके भाई राणा रायमल ने मेवाड़ का सत्ता भार संभाला।

अस्त ‘उदय’ का होत है, दुनिया का दस्तूर।
जो भी आया है यहां , जाना पड़े जरूर।।

महाराणा कुंभा बहुत ही न्याय शील प्रवृत्ति के प्रजावत्सल राजा थे। उनके भीतर वे सभी गुण थे जो एक आर्य राजा में होने चाहिए। वह प्राचीन आर्य शासन पद्धति को अपनाकर चलते थे। जिसका आधार धर्म होता था अर्थात सभी के साथ न्याय करना और अपने आप को प्रजा का प्रथम सेवक समझना उनके महान व्यक्तित्व का विशिष्ट गुण था। ऐसे धर्मशील प्रजावत्सल शासक का अंत करके निश्चय ही महाराणा उदय सिंह प्रथम ने बहुत बड़ा अपराध किया था। इस अपराध के लिए महाराणा उदय सिंह ने चाहे अपने आपको क्षमा कर लिया हो पर उनकी प्रजा और उनके अधिकारियों ने उन्हें कभी क्षमा नहीं किया।
जिस राजा के होने से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश हो रहा था ,संस्कृति की रक्षा और दुष्टता का विनाश हो रहा था ,उस राजा की हत्या को मेवाड़ की प्रजा और मेवाड़ के अधिकारी भला कैसे सहन कर सकते थे? कहा जाता है कि मेवाड़ के अधिकारियों ने उसका एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया था। जिन पदों पर ये अधिकारी लोग नियुक्त थे, उन पर उन्होंने अपने किसी संबंधी, मित्र या पुत्र को भेजना आरंभ कर दिया था। वे नहीं चाहते थे कि महाराणा कुंभा के हत्यारे के सामने वे बैठें या उसका मुंह देखें।

प्रजाजन होते गए विरोधी

ऐसी परिस्थितियों में मेवाड़ की स्थिति दिन – प्रतिदिन दयनीय होती जा रही थी। शासन में शिथिलता थी और अनुशासनहीनता सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। राजा की शासन पर पकड़ ढीली होती जा रही थी। ऐसी परिस्थितियों में मेवाड़ के सरदारों में असंतोष व्याप्त था। वह चाहते थे कि इस दुष्ट राजा को हटाकर न्याय शील और जनप्रिय राजा की नियुक्ति की जाए। बहुत ही गोपनीय ढंग से इस राजा को सत्ता से हटाने की तैयारी आरंभ हो गई। सरदार और अधिकारी लोग नहीं चाहते थे कि मेवाड़ के यश को किसी प्रकार का धब्बा लगे और उसकी कीर्ति उनके देखते-देखते मिट्टी में मिल जाए। यही कारण था कि उन्होंने गोपनीय ढंग से निर्णय लेकर महाराणा उदय सिंह प्रथम के भाई रायमल को आमंत्रित कर मेवाड़ बुलाया। रायमल उन दिनों अपनी ससुराल ईडर में था।
जब रायमल को इस प्रकार की सूचना प्राप्त हुई कि उसे मेवाड़ के प्रजाजन और अधिकारीगण राजा बनाना चाहते हैं तो वह सहर्ष इसके लिए तैयार हो गया। जब उसने मेवाड़ में प्रवेश किया तो वहां पर भी उसके आगमन को गोपनीय रखने का पूरा प्रबंध किया गया था। उसके आगमन की गोपनीयता को भंग न होने देने की अधिकारियों ने बहुत ही अच्छी तैयारी की थी। उन्होंने अपनी योजना की भनक महाराणा उदय सिंह को नहीं लगने दी थी। यही कारण था कि जब राणा रायमल चित्तौड़ में प्रवेश कर गए तो भी उन्होंने महाराणा उदय सिंह को उनके आगमन की सूचना नहीं होने दी। उन्होंने बहुत ही बुद्धिमत्ता पूर्ण मार्ग अपनाया और वे महाराणा उदय सिंह को शिकार खिलाने के लिए जंगल में ले गए। जब महाराणा उदय सिंह महल से निकल गया तो इसी समय राणा रायमल को किले में प्रवेश दिलाया गया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

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