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संपादकीय

सर्वत्र खिला कमल ही कमल

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की अग्नि परीक्षा के रूप में आये उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में पार्टी को मिली भारी सफलता के कारण मुख्यमंत्री इस परीक्षा में पूर्णत: सफल हो गये हैं। इन चुनावों में प्रदेश की जनता ने जिस प्रकार अपना परिपक्व निर्णय दिया है उससे योगी सरकार की कार्यशैली पर जनता की मुहर लग गयी है और जनता ने योगी सरकार को अपना प्रचण्ड समर्थन देकर सिद्घ कर दिया कि जो लोग गुजरात में विकास के ‘पागल’ हो जाने की बात कर रहे हैं वे स्वयं ही राजनीति की ‘मोदीवादी चकाचौंध’ में चुंधिया गये हैं उन्हें मार्ग नहीं सूझ रहा कि किधर जाएं?
आठ माह पूर्व प्रदेश की सत्ता को संभालने वाले मुख्यमंत्री योगी को भाजपा ने उस समय चुनाव पूर्व अपना मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया था। उन्हें चुनाव के उपरांत भाजपा विधायक दल का नेता चुना गया था। जिससे कई लोगों को यह आशंका थी कि वह भाजपा के मुख्यमंत्री हो सकते हैं, पर वे जनता के भी मुख्यमंत्री हों -यह तो उन्हें अभी सिद्घ करना था। तभी से लोगों को उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों की प्रतीक्षा थी। जिसमें लगभग ढाई करोड़ मतदाता चुनाव में भाग लेकर यह बताते कि वे मुख्यमंत्री के साथ हैं या नहीं। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने योगी की भाजपा को 16 मेयर पदों में से 14 पर सफलता दिलाकर यह बता दिया कि उनका योगी सरकार की नीतियों में पूरा विश्वास है और योगी सरकार की कार्यशैली से भी वह खुश हैं।
वास्तव में एक समय ऐसा था जब निकायों के चुनावों का सरकार से कोई सम्बन्ध नहीं होता था। परन्तु अब स्थिति में परिवर्तन आ चुका है अब स्थानीय निकायों के चुनावों में पार्टी के चुनाव चिह्नों पर चुनाव लड़ा जाता है तो उससे यह पता चल जाता है कि लोग प्रदेश सरकार के कार्यों से खुश हैं या नहीं? योगी सरकार ने बदमाशों से मुक्त प्रदेश बनाने का संकल्प सा ले लिया है-इसे लोगों ने पसंद किया है। उनकी अपनी छवि एक कर्मठ और कार्यकुशल राजनेता की बनी है। साथ ही विधानसभा चुनाव से पूर्व के योगी आदित्यनाथ और उसके बाद के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में भारी अंतर है। अब के योगी आदित्य नाथ बहुत ही संभलकर बोलते हैं और यह विश्वास दिलाने में भी सफल रहे हैं कि उनके लिए कानून के समक्ष सभी समान हैं। वह किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय विशेष के लिए कार्य करते हुए नजर नहीं आते-यह उनकी ताकत है और इसी ताकत के कारण मुख्यमंत्री को यह बम्पर जीत मिल सकी है।
चुनावों से पूर्व लग रहा था कि कांग्रेस कुछ संभलेगी, पर उसका विकास पूर्णत: विनाश में बदल गया और उसका ‘पगलाया’ हुआ विकास राजनीति की कीचड़ में धंसकर रह गया। यह मालूम ही नही पड़ा कि वह कहां गया? यहां तक कि अमेठी के लोगों ने भी अपने ‘युवराज’ के राजतिलक को ठुकरा दिया है और ”उन्हें बता दिया है कि जरा संभल कर चलो-जुबान को संभालो और पहले तोलकर बाद में कुछ बोलो। झूठी लफ्फाजी से कुछ भी नहीं होने वाला है।” अब आते हैं, सपा की ओर तो इसका भी सफाया ही हो गया है। बाप-बेटे अभी तक भी यही कह रहे हैं कि 1990 में उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलवाकर बहुत बड़ा काम किया था। वह सोच रहे हैं कि इसी से मुसलमानों का मूर्ख बनाने में वह सफल हो जाएंगे और बहका हुआ मुसलमान फिर उनकी ओर लौट आएगा। पर वास्तव में उनका यह दिवास्वपन ही सिद्घ हुआ। मुसलमानों का बड़ा वर्ग उनसे छूट चुका है। अब सपा के आजम खान वजीरे आजम कैसे बनेंगे-यह उनके लिए चिंता का विषय हो गया है? सपा की मुस्लिमपरस्ती भी उसके काम न आयी और सारा का सारा खेल उसका इन चुनावों ने बिगाड़ दिया है। उनके साथ लोगों ने वास्तव में बुरा किया है-उन्होंने इतनी सारी रोजा इफ्तार पार्टियों का आयोजन अपने शासनकाल में किया ना तो वे पार्टियां काम आयीं और ना अब भाजपा को रोकने के लिए रामनाम जपने का पाठ ही काम आया है। लगता है कि उनका दोगलापन लोगों ने ठुकरा दिया है। इन चुनावों में सबसे खतरनाक खेल मायावती खेलने में सफल हो गयी हैं। उन्होंने ‘खुरपा और बुरका’ का समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया और उसका फल यह हुआ कि बसपा को मेरठ और अलीगढ़ की मेयर की दो सीटें मिल गयीं हैं जबकि सहारनपुर में उसका प्रत्याशी भाजपा से केवल 2000 मतों से ही पराजित हो सका है। मायावती का हाथी फंसा तो है पर उसने भविष्य के लिए यह संकेत दे दिया है कि उसे समाप्त न माना जाए। वह एक खतरनाक लीला रच रहा है जो भारत के सामाजिक और राष्ट्रीय परिदृश्य को एक विनाशकारी स्वरूप दे सकता है। दलित भाइयों को मुस्लिमों के साथ जाने से रोकना होगा। इसके लिए न केवल सरकारी स्तर पर प्रयास हो, अपितु सामाजिक स्तर भी अच्छे प्रयासों की आवश्यकता है। बसपा की राजनीति स्वार्थों की राजनीति है। उसका राष्ट्र के भविष्य से कोई लेना देना नहीं है। मायावती को ‘ममता’ दी बनने में देर नहीं है। इसके लिए केन्द्र की मोदी सरकार को और प्रदेश की योगी सरकार को अभी से विशेष तैयारी करने की आवश्यकता है।
चुनावी परिदृश्य को देखकर अभी तो यही कहा जा सकता है-
राहुल की अमेठी गयी बसपा का हाथी फंसा।
सपा की साईकिल टूटी भाजपा का कमल खिला।।
चुनावों ने सिद्घ किया है कि प्रदेश की जनता को ‘कमल’ से प्यार है और वह अभी अपने प्यार से कोई समझौता करने को तैयार नहीं है।

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