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संपादकीय

हम कब तक 1 जनवरी से अपना नववर्ष मनाते रहेंगे ?

भारत प्राचीन काल से ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में सारे संसार का नेतृत्व करता आया है। धर्म की मर्यादा, नैतिकता और धर्म के नैतिक मानवीय ,नियमों व मूल्यों के माध्यम से सारी मानवता को एकता के सूत्र में पिरोकर देखने की अद्भुत और पवित्र भावना का नाम ही भारत ने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ के रूप में स्थापित किया है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जो भारत संपूर्ण मानव जाति का नेतृत्व करता आया है उसे कल परसों का ब्रिटेन या पश्चिमी जगत अकल सिखाएं? यह बात विशेष रूप से तब और भी अधिक मननीय हो जाती है जब हम देखते हैं कि पश्चिमी जगत मानवीय मूल्यों और सामाजिक स्तर पर मानव के जीवन को नैतिक और मर्यादित रखने की दिशा में आज तक भी सीखने की ही स्थिति में है, सिखाने की स्थिति में नहीं। वह आज तक भी विवाह जैसे पवित्र बंधन को एक कॉन्ट्रैक्ट या संविदा से आगे नहीं मान रहा। इसी प्रकार परिवार जैसी पवित्र संस्था को अपनाना वह आज भी अपने लिए दूर की कौड़ी समझता है।
पश्चिमी जगत की नकल करते हुए भारत अपनी अच्छाई और सच्चाई को भूलकर इसके दुर्गुणों को अपनाने की हठ किए बैठा है। अपनी इसी सोच को प्रकट करते हुए भारत के लोगों ने 1 जनवरी से नए वर्ष को मनाने की परंपरा को एक रूढ़ी के रूप में अपना लिया है। जो लोग 1 जनवरी से नए वर्ष का शुभारंभ मानते हैं वे भारत की वैज्ञानिक वैदिक परंपरा अर्थात सृष्टि संवत के प्रति कोई विशेष लगाव नहीं रखते हैं। उन्हें अंग्रेजों के द्वारा दी गई सोच और परंपराओं में ही वैज्ञानिकता दिखाई देती है। एक कुसंस्कार के रूप में हमारे भीतर यह भाव पैदा कर दिया गया है कि भारतवर्ष के पास अपना कुछ भी नहीं है, इसलिए इसे पश्चिमी जगत का ऋणी होकर उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।
अंग्रेजों के चले जाने के 75 वर्ष पश्चात भी जो लोग उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और यह मानते हैं कि भारत को सभ्यता और संस्कृति सिखाने वाले अंग्रेज ही थे, वे आज तक भी राष्ट्रबोध और इतिहास बोध से परिचित नहीं हो पाए हैं। इसका कारण केवल यह रहा है कि भारत की शिक्षा प्रणाली लॉर्ड मैकाले की मानस पुत्र बनकर भारत विनाश में अपनी अहम भूमिका निभा रही है। शिक्षा प्रणाली के चलते हम यह भूल गए हैं कि ब्रिटेन में 868 ई0 से पहले कोई विद्यालय नहीं था अर्थात वहां पर अशिक्षित और गंवार लोगों का वर्चस्व था। यही अशिक्षित और गंवार लोग जंगलीपन से आगे बढ़ने आरंभ हुए और धीरे-धीरे संसार के बड़े भाग पर छा गए। अपने जंगलीपन का परिचय देते हुए उन्होंने संसार के बड़े क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर अनेक प्रकार के अत्याचार किए। पर जो ‘जीता वही सिकंदर’ वाली झूठी अवधारणा के आधार पर बनाए गए इतिहास में अंग्रेजों को ‘मुकद्दर का सिकंदर’ घोषित कर दिया गया।
‘मुकद्दर के सिकंदर’ बने इन्हीं अंग्रेजों ने भारत में भारतीयता का विनाश करने का हर संभव प्रयास किया। अंग्रेजों के बारे में हम यह भूल जाते हैं कि 868 ईस्वी में जब उनके यहां पर एक भी विद्यालय नहीं था तब भारतवर्ष में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल थे। तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला जैसे कई बड़े-बड़े विश्वविद्यालय थे । जिनमें देश-विदेश के शिक्षार्थी विद्याध्ययन हेतु आते थे। इनमें 10 से 15 हजार विद्यार्थियों के रहने की समुचित व्यवस्था होती थी। इनमें से विद्यार्थियों को मानव बनाकर बाहर भेजा जाता था। जी हां, एक ऐसा सच्चा मानव जो संसार के लिए उपयोगी हो , जो अपने जीवन को सार्थक बनाकर जीने की प्रेरणा से अभिभूत हो और जो सारे संसार में मानवीय मूल्यों को स्थापित करने के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता हो।
स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग 75 वर्ष पूर्व जब भारत के लोग 4 अप्रैल को अपना नया वर्ष मना रहे थे तब अंग्रेजों ने एक कानून के माध्यम से यह घोषित कर दिया कि कोई भी व्यक्ति अप्रैल से नव वर्ष नहीं मनाएगा, बल्कि 1 जनवरी से नया साल मनाने के लिए बाध्य होगा। अगले वर्ष भारत का नया वर्ष 1 अप्रैल को आया तो अंग्रेजों ने उसे पहले ही ‘फूल्स डे’ घोषित कर दिया था अर्थात उन्होंने भारत के नव वर्ष को मूर्खों का दिवस घोषित कर दिया। धीरे-धीरे भारत के लोगों ने मूर्ख दिवस अर्थात अपने नए वर्ष को मनाने के प्रति नीरसता अपनानी आरंभ कर दी और पढ़े-लिखे भारतीय अंग्रेज 1 जनवरी से ही नया वर्ष मनाने लगे। भारत के लिए सबसे बड़े शत्रु वास्तव में ये पढ़े – लिखे काले अंग्रेज ही रहे हैं। इन्हीं की ‘उदारता’ के चलते भारत में आजादी के बाद जितने नए ईसाई बने हैं उतने अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान भी नहीं बन पाए थे। अंग्रेजों को भारत की संसद में अपने प्रतिनिधि के रूप में दो ‘एंग्लो- इंडियन’ भेजने के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ी थी अर्थात एंग्लो इंडियन ईसाईयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए राष्ट्रपति 2 सदस्य मनोनीत करेगा। कहने का अभिप्राय है कि उस समय भारतवर्ष में कहीं से भी कोई भी ऐसी लोकसभा सीट नहीं थी, जिससे कोई भारतीय अंग्रेज अर्थात ईसाई देश की संसद में पहुंच सके। पर पढ़े-लिखे भारतीय अंग्रेजों की उदारता के चलते अब लगभग दो दर्जन सीट ऐसी हो गई हैं जिनसे सीधे ईसाई चुनकर संसद में आ सकता है। अंग्रेजी नववर्ष मनाने का यह शुभ परिणाम है ।
अब हमें क्या करना चाहिए? निश्चित रूप से हमें अवैज्ञानिक, अतार्किक और बुद्धिहीन परंपराओं को त्याग कर अपनी वैदिक वैज्ञानिक परंपराओं की ओर लौटना चाहिए। हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि अंग्रेजी महीने 15 वीं शताब्दी तक 10 ही होते थे। इनमें सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर सातवें, आठवें, नौवें और दसवें महीने होते थे। सप्तम ,अष्टम, नवम और दशम शब्द सीधे संस्कृत के हैं। संस्कृत के इन्हीं शब्दों से इन महीनों का नामकरण हुआ। बाद में ग्रेगोरियन कैलेंडर के माध्यम से दो नए महीने जनवरी-फरवरी जोड़े गए। नियमानुसार ये दोनों महीने दिसंबर के बाद जोड़े जाने चाहिए थे, पर ये साल के आरंभ में जोड़ दिए गए।
भारत के 12 महीने चित्रा, विशाखा अड़ी नक्षत्रों के नाम पर रखे गए हैं। जिनका वैज्ञानिक और ज्योतिषीय आधार है। इसी प्रकार सप्ताह के सात दिन भी ग्रहों के आधार पर रखे गए हैं। इनका भी वैज्ञानिक और ज्योतिषीय आधार है। हम अपने गणित ज्योतिष और विज्ञान को भुलाकर पश्चिम के निराधार उन महीनों को वैज्ञानिक और सटीक मान रहे हैं जो वहां पर बेकार में ही किसी महापुरुष के नाम से रख दिए गए हैं। जैसे जूलियस सीजर के नाम पर जुलाई का नाम आया। जिसने इस महीने को 31 दिन का घोषित कराया। उसके पश्चात वहां पर ऑगस्टा नाम का नया सम्राट आया तो उसने भी यह इच्छा व्यक्त की कि मेरे नाम से भी कोई महीना होना चाहिए। तब अगस्त महीने का नामकरण उसके नाम से किया गया। अगस्त को ऑगस्टा के नाम करने पर भी उस सम्राट को तसल्ली नहीं हुई। उसने कहा कि यदि जुलियस सीजर के नाम से रखे गए जुलाई महीने को 31 दिन दिए गए हैं तो मैं भी जूलियस सीजर से किसी तरह कम नहीं हूं अर्थातआई एम नॉट जूनियर देन जूलियस”, इसलिए मुझे भी 31 दिन का महीना आवंटित किया जाए। तब उसके नाम से रखे गए अगस्त महीने को भी 31 दिन दे दिए गए। इन सब की गाज जाकर फरवरी माह पर पड़ी। जिसे 28 और 29 दिन का कर दिया गया।
भारत में भारतीयता को जीवित रखने के लिए हमें अपने देश को यथाशीघ्र हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहिए । जिससे आर्य संस्कृति की रक्षा हो सके। 1947 में जब देश का धर्म के नाम पर विभाजन किया गया तो उस दौरान भी भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करने पर गंभीरता से विचार किया गया था। उस समय प्रधानमंत्री नेहरू ने इस विचार कब तक विरोध किया था उन्होंने 30 सितम्बर 1947 को मिलों में काम करने वाले कर्मचारियों एवं मजदूरों के बीच एक भाषण देते हुए कहा था, “जब तक भारत से जुड़े मामलें मेरे अधिकार में है तब तक भारत एक हिन्दू स्टेट (Hindu State) नहीं बनेगा।”
देश के पहले प्रधानमंत्री की इसी सोच के कारण हम आज तक भी 01 जनवरी को ही नव वर्ष मनाने के लिए अभिशप्त हैं। अंग्रेजी संस्कारों में पले – बढ़े नेहरू के कारण देश अंग्रेजियत से आज तक भी मुक्त नहीं हो पाया है। अब इस सोच से बाहर निकलने की आवश्यकता है। आखिर हम कब तक अपनी वैज्ञानिक परंपराओं को भुलाकर 1 जनवरी को ही नववर्ष मनाते रहेंगे?

यदि बात वैदिक संस्कृति में मन्वंतर और संवत्सर की करें तो इसके पीछे भी हमारे ऋषि पूर्वजों का उत्कृष्ट ज्ञान और उनका बौद्धिक विवेक दिखाई देता है । 4 अरब 32 करोड़ की सृष्टि की अवस्था को हमारे ऋषियों ने 14 मन्वंतरों में विभाजित किया है।
प्रत्येक मन्वंतर का एक मनु होता है। एक मनु से दूसरे मनु के बीच के अंतर को ही मन्वंतर कहते हैं।
चौदह मनु और उनके मन्वन्तरों की अवधि को मिलाकर एक कल्प का निर्माण है। एक कल्प में 4 अरब 32 करोड़ की सृष्टि और 4 अरब 32 करोड़ की प्रलय होती है। दोनों को मिलाकर 8 अरब 64 करोड की कुल अवधि होती है। इसे ब्रह्मा का 1 दिन कहा जाता है।
वर्तमान काल 7 वां मन्वन्तर अर्थात् वैवस्वत मनु चल रहा है। इससे पूर्व 6 मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं। जिनके नाम स्वायम्भव, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुष रहे हैं।
कुल 1000 चतुर्युगी पूरे सृष्टि काल में ( अर्थात 4 अरब 32 करोड़ों वर्ष) होती हैं। एक चतुर्युगी का काल 4320000 वर्ष है। हमारे विद्वानों की मान्यता के अनुसार इसका विवरण इस प्रकार है :-
1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी
1 चतुर्युगी = चार युग अर्थात सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग।
चारों युगों का अलग-अलग काल :– सतयुग = 1728000 वर्ष, त्रेतायुग = 1296000 वर्ष ,द्वापरयुग = 864000 वर्ष और कलियुग = 432000 वर्ष। इस प्रकार 1 चतुर्युगी की का कुल काल या अवधि =1728000+1296000+864000+432000 = 4320000 वर्ष।

1 मन्वन्तर = 71 × 4320000(एक चतुर्युगी) = 306720000 वर्ष है। अब तक इतनी अवधि के 6 मन्वन्तर बीत चुके हैं । इसलिए 6 मन्वन्तर की कुल आयु = 6 × 306720000 = 1840320000 वर्ष हुई।
वर्तमान में 7 वें मन्वन्तर की यह 28वीं चतुर्युगी है। इस 28वीं चतुर्युगी में 3 युग अर्थात् सतयुग , त्रेतायुग, द्वापर युग की कुल अवधि बीत चुकी है और कलियुग का 5122 वां वर्ष चल रहा है । 27 चतुर्युगी की कुल आयु = 27 × 4320000(एक चतुर्युगी) = 116640000 वर्ष होती है।
जबकि 28 वीं चतुर्युगी के सतयुग , द्वापर , त्रेतायुग और कलियुग की 5122 वर्ष की कुल अवधि = 1728000+1296000+864000+5122 = 3893122 वर्ष। इस प्रकार वर्तमान में 28 वीं चतुर्युगी के कलियुग की 5122 वें वर्ष तक की कुल आयु = 27 वीं चतुर्युगी की कुल आयु + 3893115 = 116640000+3893115 = 120533122 वर्ष हुई।
इस प्रकार सृष्टि के अब तक के कुल बीते हुए वर्ष हैं = 6 मन्वन्तर की कुल आयु + 7 वें मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी के कलियुग तक की अर्थात 5122 वें वर्ष तक की कुल आयु = 1840320000+120533122 = 1960853122 वर्ष हुए। यही हमारा वैदिक सृष्टि संवत है । प्रत्येक वर्ष जब संवत परिवर्तित होता है तो इसी को वैदिक संवत्सर कहते हैं।
2022 ई0 में सृष्टि और उसके साथ सूर्य को बने 1,96,08,53,122 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। सृष्टि की कुल आयु 4320000000 वर्ष मानी जाती है। सृष्टि की स्कूल आयु में से एक अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 1सौ 22 वर्ष कम करने पर इस सृष्टि की शेष आयु निकल आएगी। जो कि अब 2,35,91,46,878 वर्ष शेष बचती है। तदुपरांत महाप्रलय निश्चित है। नासा के वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि अब इस सूर्य की शेष आयु 2 अरब 30 करोड़ से लेकर 2 अरब 50 करोड़ तक रह रही है।

  • डॉ राकेश कुमार आर्य
    ( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं ‘भारत को समझो’ अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)

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