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महत्वपूर्ण लेख

सूर्य के संबंध में वैज्ञानिक और ज्योतिष संबंधी धारणा है

सूर्य्य के सात घोड़े
केवल मध्य का अश्व सीधा है
अगल बगल के अपनी अपनी ओर खींचकर रस्साकशी सी करते जान पड़ते हैं।
एक अश्व ७° के मान को बताता है
एक ओर का कोण २४.५° (३×७+३.५) इस प्रकार दोनों ओर का योग ४९° होता है।
सूर्य्य के उत्तरायण-दक्षिणायन को समझाने के लिये ही ऐसी प्रतिमायें बनीं।
सूर्य्य की उत्तर-दक्षिण क्रान्ति का अधिकतम मान २४.५° ही हो सकता है।

वरुण (सूर्य) का पाश
वर्षभर के सूर्य के अयन का अंकन पाश जैसा ही है।
अब से सूर्यनारायण उत्तर की ओर गमन करेंगे , अतः अब देवों का दिन हो गया । सौरमास तप का आरम्भ । चीन में आगामी शुक्ल प्रतिपदा जो लगभग एक माह बाद है को नववर्ष आगमन का उत्सव मनाया जायेगा। सूर्य के कुम्भ में होने पर ।
वरुण तथा वसिष्ठ का परस्पर सम्बन्ध है। वसिष्ठ कुम्भज हैं और उत्तरदिशा में हैं । कुम्भ से उत्तरायणारम्भ होने पर नववर्ष तथा कुम्भपर्व मनाये जाने की बात बहुत पीछे तक जायेगी।
उत्तरायणारम्भ दिवस पर सनातनधर्म के आस्तिकजनों की मङ्गलकामना

चीन में नववर्ष उत्तरायणारम्भ के एक मास बाद आने वाली अमावस्या से नया साल होता है।
सूर्य के कुम्भराशिगत होने पर और शुक्लपक्षारम्भ से मनाया जाने वाला नववर्ष वही है जिसका उल्लेख प्राचीन ज्योतिष में है। द्वादश राशियों के अनुसार द्वादश वर्ष क्रम से आते रहते हैं।
पड़ोसी देश चीन में नये वर्ष का स्वागत होता है, चीनी नववर्ष सूर्य के उत्तरायण हो जाने के एक मास बाद , शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। साठ वर्षों के चक्र की मान्यता यहाँ पर भी है और द्वादशवर्षात्मक पञ्चयुगों की एक आवृत्ति में यह पूर्ण होता है। बारह राशियाँ आखु , वृष , व्याघ्र , शश , शरभ , अहि , अश्व , अवि , कपि , कुक्कुट , श्वान तथा वाराह और पाँच तत्वों क्षिति , जल , पावक , हिरण्य और दारु के संयोजन से षष्ट्यब्द चक्र बनता है।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क

सूर्य की संक्याएं
1 : एक चक्र = भास्कर
2 : द्विहस्त पंकजधृत
3 : त्रिसंध्य समरणीय
4 : चतुर्दिशी रश्मिवान
5 : पंचायतन प्रमुख
6 : छह मासीय अयनधर्मा (दक्षिणायन और उत्तरायण)
7 का पर्याय : रथ
… ऐसे ही आगे _
बारह : सूर्य संख्यात्मक
सूर्यपद: गोपनीय, कोष्टकीय
अरुण : लाल रंग, उदय वेला
सूर्यलोक : वीरगति ( प्रशस्ति)
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

कहते हैं सूर्य को दीपक क्या दिखाना ?

जो स्वयं सबको प्रकाश-ऊर्जा और ऊष्मा देता है, सौर-मण्डल का केंद्र है, सूर्य अनुपमेय है अपनी सत्ता, महत्ता और गतिशीलता के कारण.

सूर्य को ज्ञान-बुद्धि और चक्षु यानी आँख का देवता माना गया है, आप विचार करें तो बुध्दि या ज्ञान भी एक प्रकार से भीतरी आँख है – जो हमारे जीवन को प्रकाशित करते हैं, उत्साहित कर गतिशील-कर्मशील बनाते हैं. गायत्री-मंत्र द्वारा सविता देवता से बुद्धि-प्रेरणा-सम्बन्धित प्रार्थना की गयी है.

‘सूर्य’ शब्द संस्कृत के ‘सृ गतौ’ धातु से बनता है जिसका अर्थ है ‘गति’ और ‘षू’ से प्रेरणा निष्पन्न होता है – आकाश में बिना किसी सहारे सदैव गतिमान रहता हो या जिसकी गति से समस्त संसार अपने-अपने दैनिक-व्यवहार-कार्यों में लग जाने की प्रेरणा पाता हो !

सूर्य के अनेकानेक नामों में एक नाम दिवाकर भी है – जो ‘दिवु’ धातु से बनता है, जिसके अनेक अर्थ हैं , जैसे व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, क्रीड़ा, विजिगीषा, स्वप्न, कान्ति और गति.

आइये, दिवाकर के कतिपय धातु गुणों पर विचार करते हैं –

क्रान्त-दृष्टा : कवियों के काव्य

उदयीमान रक्ताभ अरुण की लालिमा किसका मन नहीं मोहती, किसको मुदित नहीं करती ?

सूर्य दीवाने ऐसे जो सूर्योदय से आँख लड़ा बैठे तो सूर्यास्त तक बैठे – इसे योगियों में सूर्य-त्राटक बोलते हैं.

सूर्य मोहता है, मुदित करता है, प्रमुदित करता है और उसका प्रमोद काव्य रूप में कवियों के हृदय से छलक जाता है –

सूर्य न होते तो कवि उपमा किसकी देते ? बानगी देखिये –

ज्योति दीप्ति दिशान देश-देशन में
दीपति दिवाकर सी दीखती ललाम है

‘हरिऔध’ ने वेद-ऋचाओं का अनुभाव रखा –

फैला दे वह दिव्य ज्योति, जिससे तम भागे,
बन्द हुए दृग खुलें, सो गयी जनता जागे.

‘प्रसाद’ द्वारा रची उपमा ने कितनों का विषाद हरा, प्रसाद भरा –

कीर्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती
अरुण किरण सी चारो ओर,
सप्तसिंधु के तरल-कणों में
द्रुम-दल में, आनन्द विभोर .

‘प्रसाद’ सूर्य-सूक्त (सूर्य आत्मा जगतस्त स्थुषश्च) को पिरोया –

जीवन जीवन की पुकार है
खेल रहा है शीतल-दाह
किसके चरणों में नत होता
नव प्रभात का शुभ उत्साह !


उठो लाल ! अब आँखें खोलो
पानी लायी हूँ मुँह धोलो

गाती हुई कवि-पंक्तियों ने मानो लाल-सूर्य को अर्घ्य देते हुए अपने भारत के लालों को उसके कर्तव्य-पालन हेतु प्रेरित कर दिया.

‘रश्मिरथी’ कथा-काव्य-रचना में सूर्यपुत्र दान-वीर-कर्ण का सम्बन्ध ‘दिनकर’ ने बारम्बार उकेरा है –

जिनके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।

……

पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें ‘तेज-प्रकाश’
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

……

बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से ।

खिलाड़ी सूर्य ::

बादल और रात्रि की ओट से आँख-मिचौली खेलते सूर्य क्रीड़ा-प्रिय हैं, एक पौराणिक कथा का सन्दर्भ लेते हुए उसके अध्यात्म भाव का प्राकट्य दर्शनीय है –

जीवन का रस है प्रेम और वह रस मिलता है जीवन के ज्ञान रूपी फल से.

सम्पाती और हनुमान दोनों ने सूर्य यानी ज्ञान तक पहुँचने की कोशिश की, ज्ञान का मार्ग कितना भी दुरूह क्यों न हो ज्ञानेक्षु को उसके लिए प्रयास करना चाहिए – यह बात प्रकट हुई . सम्पाती को अपने पक्ष का बलाभिमान था – उनके पंख जल गये – मने अभिमानी को या दुराग्रही को ज्ञान-प्राप्ति दुर्लभ है,

‘बाल समय रवि भक्षि लियो’
..
‘लील्यो ताहि मधुर फल जानू’
..
-हनुमान की बाल-चेष्टा से सूर्य कुपित नहीं हुए – वह तो जानते थे कि यह अबोध है – जैसे कोई घुटना-चलता बच्चा किसी डॉक्टरेट-थीसिस को मुँह लगा दे, सूर्य ने आश्वासन दिया कि जब योग्यता हो जायेगी तब हनुमान को ज्ञान दे दूँगा, तुलसी बाबा ने संकेत किया –

भानु सों पढ़न हनुमान गये भानु मन –
अनुमानि सिसु’केलि’ कियो फेरफार सो ।

पाछिल पगनि गम गगन मगन मन-
क्रम को न भ्रम, कपि बालक -बिहार सो ।।

हनुमान जब सूर्य से ज्ञान लेने पहुँचे तो सूर्य ने प्रवेश-परीक्षा ( entrance exam) ली, बोले – मुझे तो इस छोर से उस छोर तक प्रहर चलते रहना है, ठहर नहीं सकता, तुम पढ़ोगे कैसे ? हनुमान ने कहा – आप चलते-चलते ही पढ़ा दीजिये , मैं आपकी ओर मुख करके पीठ की ओर से आगे बढ़ता जाऊँगा. यानी ज्ञान से मुख मोड़ना नहीं, ज्ञान से ही गति है।
सूर्य हनुमान की ज्ञान प्राप्ति की उत्कट इच्छा पर प्रसन्न हो उन्हें सूत्र, वृत्ति, वार्तिक, संग्रह सहित महाभाष्य आदि समस्त विद्या, छन्द, तपोविधान आदि ज्ञान और गुण से निष्णात कर दिया.

जन : धन : भोजन पुष्टक

ऋग्वेद में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है यानी जैसे शरीर में चेतना शक्ति न होने से शरीर निष्प्राण हो जाता है वैसे ही सूर्य की महत्ता चराचर-सृष्टि समेत अन्य ग्रहों हेतु भी है.

सूर्य-उर्मियों से प्राप्त प्रकाश-उष्मा और ऊर्जा का परिणाम है कि हमें पृथ्वी पर वनस्पतियों,औषधियों,वृक्षों,पौध-पादपों,शैल-शैवाल-सागर का बीज-गत जीवन मिलता है जो कि जीव-गति का हेतु बन जाता है – यह सूर्य की अन्न-भोजन शक्ति का उदाहरण है, वनवास काल में द्रौपदी को सूर्य द्वारा प्रदान किया गया अक्षय-पात्र – अन्न की प्रचुरता हेतु सूर्य की ओर संकेत करता है.

सूर्य द्वारा प्राप्त ऊर्जा के संचयन हेतु विश्व में जागृति आयी है, एक आंकड़े के अनुसार सन 2050 तक विश्व ऊर्जा में अनुमानतः 36 प्रतिशत सौर-ऊर्जा का योगदान होगा, यदि एक यूनिट का मूल्य ₹20 भी मानें तो आज का मूल्यांकन अरबों-खरबों में होगा. यह सूर्य की धन शक्ति का उदाहरण है.

सूर्य द्वारा प्रदत्त स्यमन्तक मणि प्रचुर धन प्रदान करने का संकेत करती है.

रोग-निवारक ::

सूर्य किरणों पर अनेक शोध हुये – प्रिज्म- स्फटिक से प्रवाहित करने पर बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल रंग प्राप्त हुआ जो कि रेनबो यानी इंद्र-धनुष में सहज ही दृश्यमान होता है,

वर्षा यानी श्रावण माह का सूर्य इंद्र नाम से जाना जाता है – अतः रेनबो को इंद्र-धनुष कहा गया. इन किरणों का अलग-अलग विभाग करके अलग-अलग रंग की शीशियों में जल या तेल को भावित कर भिन्न-भिन्न रोगों टीवी,स्कर्वी,रिकेट, अनीमिया आदि के उपचार में प्रयोग किया गया, श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब का कुष्ठ रोग सूर्य चिकित्सा से जाता रहा, विटामिन डी का भरपूर स्रोत होने से सूर्य पाण्डु रोग यानी पीलिया में भी सहाय्य है , दाद-खाज-खुजली भी सूर्य चिकित्सा से दूर होती है.

सबके प्रिय सबके हितकारी ::

लौकिक दृष्टि से देखने पर भी सूर्य अलौकिक दीखते हैं, क्योंकि देखने वाली आँख और दीखने वाले स्वयं के मध्य भी वही हैं – उनका प्रकाश है – ‘चक्षो: सूर्योsजायत’ । शिव के त्रिनेत्र में तेजस्वरूप सूर्य -चन्द्र और अग्नि की गणना की गयी है – सोमसूर्याग्निलोचन:।

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने जगत को भासमान करते तेज को अपना बताते हुये कहा –

यदादित्यगतं तेजो जगद् भासयतेsखिलम्

और खोल कर बताया कि बारह आदित्यों में विष्णु और ज्योतिष रवि में अंशुमान हूँ –

‘आदित्यनामहं विष्णु ज्योर्तिषां रविरंशुमान’

सूर्य-रथ ::

मान्यतानुसार सूर्य रथ एक चक्रीय यानी एक पहिये का है – जो कि सम्वत्सर यानी वर्ष का प्रतीक है , उसमें तीन नाभि-धुरियाँ हैं जो शीत, उष्ण, वर्षा या भूत,वर्तमान,भविष्य की प्रतीक हैं, पहिये की तीलियाँ ही ऋतुएं और महीने हैं, सात रंग से झिलमिलाते अश्व वास्तव में वार या दिन है का प्रतीक है जो गति और रश्मि की चमक से सात रंगों में प्रतीत होता है,

सूर्य ज्ञान के देवता हैं और ज्ञान पद्य या गद्य में प्रकट होता है – पद्य और गद्य की सप्त छन्द गायत्री,वृहति, उष्णिक, जगती,त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति1 ही सूर्य के घोड़े हैं – जो विचारों का, ज्ञान का वहन करते हैं

सूर्य का सम्बन्ध सप्तद्वीपवती पृथ्वी के साथ-साथ सप्त-ऋषियों, सप्त ऊर्ध्व लोकों और सप्त पातालों से भी है, अदिति के सातवें पुत्र होने से सूर्य का एक नाम सप्त-पुत्र भी है.

सूर्य परिवार ::

नारायण से ब्रह्मा, ब्रह्मा से कश्यप, कश्यप से सूर्य, सूर्य से वैवस्वत मनु और यम-यमुना और ताप्ति और शनि,

चौदह भुवन को प्रकाश से प्रकाशित करते सूर्य उर्ध्वगामी होते हैं तो उस प्रभा शक्ति को संज्ञा या राज्ञी और अधोगामी तेजशक्ति जो पाताल आदि पर प्रभावी होती है उसे छाया या निष्प्रभा माना जाता है, यह दो पत्नियां मुख्य हैं.

मान्यतानुसार 27 नक्षत्रों, 12 राशियों और 9 ग्रहों में सूर्य प्रधान हैं, काल-समय के नियामक-निर्धारक सूर्य हैंन , सूर्य की गति पल, त्रुटि, प्रहर, दिन, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, सम्वत्सर(वर्ष), युग, मन्वंतर और कल्प में मापी जाती है, दो अयनों का एक वर्ष होता है , सूर्य के भूमध्य रेखा के दक्षिण मकर वृत्त और उत्तर कर्क वृत्त पर होने से दक्षिणायन और उत्तरायण कहे गये, भीष्म ने प्राण छोड़ने के लिये सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की.

योग, ज्योतिष और अन्यान्य मतावलम्बियों में सूर्य की महत्ता ::

योग में प्राणायाम और आसन बहुत महत्वपूर्ण है, सूर्य-नमस्कार ही उसका प्रारम्भ है, प्रणामासन, हस्तउत्तान, उत्तान, अश्वसंचालन ये चार आसन आरोह-अवरोह की अवधारणा से आठ हो जाते हैं , चतुरंग-दण्ड, अष्टांग-नमस्कार, भुजंगासन, अधोमुख-अश्वासन यह चार विशिष्ट रूप से मध्य में रहते हैं.

चक्र जागरण , सुर्दशन क्रिया पर भी सूर्य प्रभावी हैं. सूर्य में बारह कलाएं हैं और नाड़ी पिंगला है.

ज्योतिष में भिन्न-भिन्न राशि-ग्रहों पर सूर्य का प्रभाव विचार करने पर मुख्यत: बारह अन्य अनेक भाव व योगों की सिद्धि सिद्ध है.

खगोल शास्त्र के शिशुमार चक्र और ज्योति चक्र सूर्य बिना सम्भव ही नहीं.

जैन और बौद्ध मत में भी सूर्य उपासना की उपादेयता स्वीकार की गयी.

सूर्य ‘समर्थ’ है, जो फूल-सुगन्ध और मल-दुर्गंध दोनों को सम अर्थ से स्वीकार कर लेता है – भेद नहीं करता –

समरथ को नहिं दोष गुसाईं
‘रवि’ पावक सुरसरि की नाईं .

ऋजु, यजु, अथर्व आदि वेदो, सूत्रों, छान्दोग्य, वृहदारण्यक, श्वेताश्वतर, कठ, मुण्डकादि उपनिषदों के अतिरिक्त चाक्षुषी, अक्ष्य, सूर्यतापनी उपनिषदों, श्रीमद्भगवादतादि पुराणों, महाभारत आदि इतिहासों से अबतक के देश-विदेश के ग्रंथों में सूर्य सम्बन्धित सत्ता, महत्ता, प्रचुर सामग्रियाँ-जानकारियाँ मिलती हैं.

बारह आदित्यों के नाम माह अनुसार कई प्रकार के हैं, उनमें से एक क्रमानुसार ::

माह – आदित्य

  1. चैत्र – धाता
  2. वैशाख – अर्यमा

  3. ज्येष्ठ – मित्र

  4. आषाढ़ – वरुण

  5. श्रावण – इन्द्र

  6. भाद्र – विवस्वान

  7. आश्विन – त्वष्टा

  8. कार्तिक – विष्णु

  9. मार्गशीर्ष – अंशु

  10. पौष – सविता (भग)

  11. माघ – पूषा

  12. फाल्गुन – पर्जन्य

विश्वकर्मा ने तेरह सूर्य माने हैं

सूर्य पर्व व उपासना ::

वैसे तो जीवनदाता सूर्य के लिये कुछ भी किया जाय उससे उऋण नहीं हुआ जा सकता, फिर भी नित्य प्रति अरुणोदय बेला में अर्घ्य, त्रिकाल संध्योपासना, प्रत्येक रविवार व्रत, हर माह की षष्ठी-सप्तमी तिथि, मकर-संक्रान्ति (खिचड़ी-पोंगल आदि), यम द्वितीया-भाई दूज, कुम्भ, महाकुम्भ आदि सूर्य स्मरणार्थ हैं.

रविवार को नमक,तेल, अदरक और अन्न परित्याग की मान्यता है, फलाहार या एक समय मीठा भोजन विहित होता है, रक्त चन्दन, रक्तवस्त्र, रक्ताक्षत, रक्तपुष्प विहित माने गये.

व्रत और दान की विशेष महत्ता है ही.
✍🏻सोमदत्त द्विवेदी

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