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संपादकीय

भारतोन्मुखी चिंतन और वैश्विक विकास का मॉडल

भारत के वैदिक चिंतन में समस्त प्राणी जगत का कल्याण निहित है। समस्त मानवता के कल्याण में रत वैदिक चिंतन एकांगी न होकर सर्वांगीण है। मनुष्य के विकास के लिए इसने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में सुव्यवस्था स्थापित की है। इस सुव्यवस्था को ही हम धर्म कहते हैं।
प्रकृति के साथ मनुष्य का क्या संबंध होगा ? इसे धर्म ही स्थापित करता है। इन संबंधों का पूर्ण निष्ठा से पालन करना ही मनुष्य का धर्म है। आत्मा परमात्मा को खोजते हुए कैसे आनंद में लीन होगी ? – मुक्ति की उस परम पवित्र अवस्था को प्राप्त करना ही मनुष्य का धर्म है। राजनीति किस प्रकार समस्त मानव समाज के लिए हितकारी हो सकती है ? – राजनीति के माध्यम से समाज और राष्ट्र का कल्याण करना और सब ओर शांति व्यवस्था स्थापित कर प्रत्येक मनुष्य को राजनीतिक ,सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करने का परिवेश सृजित करना राजनीति के क्षेत्र में लगे लोगों का सबसे बड़ा धर्म है। धार्मिक जगत में लोग किस प्रकार समस्त संसार के कल्याण के लिए कार्य कर सकते हैं ? – आदि इन सभी क्षेत्रों के लिए व्यवस्था देकर वैदिक चिंतन अपनी सर्वोपरिता पर आज भी कायम है।
वैदिक चिंतन ने मानवीय चेतना को सबसे अधिक प्रभावित किया है। मानवीय चेतना की व्यापकता को चरितार्थ करते हुए और उसका पूर्ण लाभ संसार के प्रत्येक प्राणी को दिलाने की चेष्टा करते हुए वैदिक चिंतन ने यज्ञ जैसी पवित्र परंपरा का आविष्कार किया। इसके साथ आश्रम व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था आदि सभी व्यवस्थाएं मानव के साथ-साथ प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक प्राणी के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की भी सुरक्षा करने का एक पूरा तंत्र है। इस तंत्र को हमारे ऋषि पूर्वजों ने बड़े जतन से खड़ा करने का कार्य किया । इसके साथ की जाने वाली छेड़छाड़ समझो पूरी मानवता को तार-तार करने की चेष्टा है।
अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने मुंबई में भारत की इस मानवतावादी वैदिक चिंतनधारा के विषय में वक्तव्य देकर भारतीयता को अर्थात भारत की आत्मा को छूने का सराहनीय कार्य किया है। उन्होंने कहा है कि इस देश का विकास अमेरिका चीन के द्वारा निर्धारित किए गए विकास के तथाकथित मानदंडों के आधार पर नहीं हो सकता, अपितु इसका विकास भारतीय दर्शन और उसकी संस्कृति तथा सकल संसार के बारे में इसके स्थापित विचारों और इसकी अपनी ही परिस्थितियों के अनुरूप किया जा सकता है। स्पष्ट रूप से श्री भागवत ने भारतीयता अर्थात भारत की आत्मा अर्थात भारत की चेतना अर्थात भारत की वैदिक संस्कृति की ओर साहसिक संकेत करने का प्रयास किया है।
आज के संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो वर्तमान वैश्विक समस्या का समाधान किसी लेनिनवाद, मार्क्स वाद, गांधीवाद या किसी इसी प्रकार के वाद में टटोलते हैं । यद्यपि इन सभी वादों में अनेक प्रकार की कमियां हैं । यदि हम भारत के वैदिक चिंतन को देखते हैं तो वह एक पूर्ण व्यवस्था है। जिसमें किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है। क्योंकि वैदिक संस्कृति मानव और प्रकृति के बीच समन्वय करके चलती है।
वैदिक संस्कृति संसार की सर्वोत्तम संस्कृति है। इस संस्कृति ने अहिंसा को धर्म के दस लक्षणों में जीवन को उन्नतिशील बनाने वाले दस यम – नियमों में प्रमुख स्थान दिया है। इसने दुष्ट की दुष्टता के दमन के लिए मन्यु की अर्थात सात्विक क्रोध की तो कामना की है, परंतु अक्रोध को धर्म के ही दस लक्षणों में से एक माना है। विधाता के विधान से रची गयी इस सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को वैदिक संस्कृति ने अपने लिए मित्र समझा है। वेद ने मनुष्य से अन्य प्राणियों के प्रति ‘मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे’-अर्थात प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र समझो, ऐसा व्यवहार करने का निर्देश दिया है। इसलिए अपने मित्रों के बीच रहकर कोई अनपेक्षित और अवांछित प्रतियोगिता वेद ने आयोजित नही की, अपितु सबको अपने – अपने मर्यादा पथ में जीवन जीने के लिए स्वाधीन छोड़ा।
स्वाधीनता का अभिप्राय अंतहीन और अपरिमित स्वाधीनता नहीं है। हमारे ऋषियों ने इस अंतहीन और अपरिमित स्वाधीनता को उच्छृंखलता की संज्ञा दी है। जिसमें एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण होने का अंतहीन सिलसिला आरंभ हो जाता है। जैसा कि हम आज देख भी रहे हैं। इस प्रकार भारतीय ऋषियों के चिंतन के संदर्भ में स्वाधीनता का अभिप्राय अपने कर्तव्यों पर ध्यान देते हुए दूसरे के अधिकारों का सम्मान करने की पवित्र भावना से है। हम जैसे प्राणी मात्र के प्रति दोहन, शोषण, दमन दलन से बचते हैं। वैसे ही प्रकृति के साथ भी हम समन्वय करके चलने वाले रहे हैं। हमने प्रकृति के साथ भी अत्याचार करना उचित नहीं माना। यही कारण है कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हम भारतवासियों ने कभी किसी भी काल में नहीं किया।
चीन हो या रूस, अमेरिका, ब्रिटेन आदि कोई भी विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश हो, ये सभी आज तक भी प्रकृति के साथ मित्रता पूर्ण संबंध स्थापित नहीं कर पाए। ये सारे के सारे मिलकर प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। प्रकृति के साथ अत्याचार कर रहे हैं। वैदिक संस्कृति में यद्यपि जड़ पूजा का कोई विधान नहीं है, परंतु हमारे ऋषियों ने प्रकृति के साथ मित्रता का भाव प्रकट करने के लिए जड़ पूजा को भी किसी काल या परिस्थिति विशेष में एक सुंदर सुव्यवस्थित अर्थ के साथ मान्यता दी। जिसे पश्चिम का जगत आज तक नहीं समझ पाया।
हमने राष्ट्र की पवित्र भूमि को माता कहा है और अपने आपको उसका पुत्र कहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्र की पवित्र भूमि के साथ हमारा मां व पुत्र का संबंध है। इसी भाव को हमने प्रकृति के साथ भी समन्वित किया है।
अपने मर्यादा पथ में रहकर अन्य जीवों के साथ मित्रवत व्यवहार करना मनुष्य का सबसे प्रमुख कार्य है। अत: वेद ने मनुष्य से अपेक्षा की कि सबसे अधिक तुझे ही मर्यादाओं का पालन करना है। इसीलिए वेद  ने मनुष्य से कहा है-न स्रेधन्तं रमिर्नशत (सा. 4/43/2) कि यदि तू हिंसक बनेगा तो तू मोक्षधन कभी  प्राप्त नही कर सकेगा।
‘मा हिंसी तन्वा’-अर्थात अपने शरीर से कभी भी हिंसा मत करो। यजुर्वेद का यह भी निर्देश है कि ‘पशून पाहि’ अर्थात हे मनुष्य ! तू क्योंकि सबसे श्रेष्ठ है, अत: सभी प्राणियों की, पशुओं की रक्षा कर। ऐसे में गाय की हिंसा की तो बात ही छोड़िए, अन्य पशुओं की भी रक्षा करने की बात वेद करता है।
वेद की इस प्रकार के चिंतन से स्पष्ट है कि हमारी अर्थव्यवस्था भी दूसरों के शोषण को अधर्म और पाप मानती है । जबकि आज के पश्चिमी जगत के सभी देश और विशेष रूप से तथाकथित विकसित देश विकास के नाम पर विनाश की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं । वे दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए धरती को जीने लायक न छोड़ने की सौगंध उठा चुके लगते हैं।
जब अंग्रेजों ने भारत पर अपना शिकंजा कसना आरंभ किया तो उन्होंने यहां के गांवों के स्वाधीन स्वरूप को विकृत करने पर अपना निर्मम कुल्हाड़ा चलाना आरंभ किया। हमने गांव को एक एक आचार्य दिया जो गांव में शिक्षा का पूर्ण प्रबंध करता था, एक वैद्य दिया जो पूरे गांव की स्वास्थ्य संबंधी सभी समस्याओं का पूर्ण निदान करता था। गाय को अर्थव्यवस्था का केंद्र बना कर ऐसी अर्थव्यवस्था को संचालित किया जो गांव को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उसे निर्यातक इकाई के रूप में भी समृद्ध करती थी। गांव से फल – फूल ,सब्जी, दूध – दही आदि सब निर्यात होते थे। जिनसे गांव की आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ होती थी। जब अंग्रेजों ने भारत पर अपना शिकंजा कसना आरंभ किया तो उन्होंने गांव के इस मौलिक स्वरूप को विलोपित कर दिया। आज हम अपनी वैदिक अर्थव्यवस्था के सुंदर सुव्यवस्थित स्वरूप से इतनी दूर निकल आए हैं कि अब हम उसके स्वरूप को विलोपित करने वाले अंग्रेजों को ही अच्छा कहने लगे हैं।
चीन और अमेरिका जैसे देशों ने प्रकृति को मिस प्राण मानते हुए उसकी कीमत पर किए गए विकास को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि माना है। यही उनकी वह भूल है जो मानवता के लिए इस समय सबसे अधिक घातक बन चुकी है। प्रकृति प्रतिशोध के लिए तैयारी करती जान पड़ती है। यदि इसने एक छलांग लगाकर जबरदस्त चांटा मानवता को लगा दिया तो उन तथाकथित विकसित देशों में से कोई भी ऐसा नहीं होगा जो चांटे से मानवता की रक्षा कर सके। यही वह स्थिति है जिसे हम प्रलय के नाम से जानते हैं। हमारे ऋषियों का चिंतन ऐसा था कि प्रलय की स्थिति को प्रकृति के साथ मनुष्य के मित्रता पूर्ण सहसंबंध के आधार पर जितनी दूर खिसकाई जा सके, उतना ही अच्छा है।
पश्चिम के देशों ने अर्थव्यवस्था को यंत्र अर्थात मशीन आधारित किया है, जबकि हमने उसे मंत्र अर्थात आध्यात्मिक दर्शन के साथ जोड़कर चलने का प्रयास किया। जिसमें प्रत्येक प्राणी एक दूसरे के साथ सहसंबंध सहचर्य का बर्ताव करता हुआ दिखाई देता है जबकि यंत्र अर्थात मशीन के चिंतन में प्रत्येक प्राणी ही एक ऐसी स्पर्धात्मक प्रतियोगिता में लगा दिखता है । जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। संघर्ष शब्द आते ही एक दूसरे को नीचा दिखाना और एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करने की एक अंतहीन प्रतियोगिता आरंभ हो जाती है। इस अवस्था में आकर मनुष्य मृगतृष्णा का शिकार हो जाता है।
मृगतृष्णा की इसी स्थिति से बचाकर भारतीय चिंतन की ओर ले जाकर मानवता के उत्थान के लिए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत यह कह रहे हैं कि यदि वास्तव में संसार को वैश्विक स्पर्धात्मक प्रतियोगिता से निकलकर सर्व समन्वयी चिंतन की ओर बढ़ना है तो इसके लिए भारतीय दर्शन और उसकी संस्कृति तथा सकल संसार के बारे में उसके सुस्थापित विचारों के अनुरूप उसे चलना ही होगा। यह बहुत ही महत्वपूर्ण बयान है कि मोहन भागवत अपने देश के चिंतन और अर्थव्यवस्था संबंधी विचारों को धड़ल्ले से और गर्व के साथ संसार के समक्ष रखने का साहस कर रहे हैं। कांग्रेसी सरकारों के शासनकाल में हम दूसरों के चिंतन और दूसरों की सोच की ओर देखने वाले होकर रह गए थे। यह एक शुभ संकेत है कि बड़े नेता अब भारतोन्मुखी चिंतन की ओर बढ़ रहे हैं।

— डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार एवं ‘भारत को समझो’ अभियान के प्रणेता हैं)

मोबाइल नंबर 99 11 16 99 17

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