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यदि समान नागरिक संहिता लागू हो जाए तो व्यर्थ के सवालों पर बहस थम जाएगी

@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

जिस देश के उच्च सदन यानी राज्य सभा में समान नागरिक संहिता लागू करने या करवाने के सवाल पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में नोंकझोंक हो, वहां पर लोकतंत्र के भविष्य पर निश्चित रूप से कुछ भी कहना बेमानी होगी। यदि सभी देशवासियों के वोट की कीमत एक समान है तो फिर अन्य कानूनी समानताएं क्यों नहीं लागू की जा सकती हैं! आप सहमत हों या नहीं हों, लेकिन देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए नेशनल इंस्पेक्शन एन्ड इन्वेस्टिगेशन कमीशन बनाया जाना बदलते वक्त की मांग है और सरकार को इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए।

आपने देखा सुना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह विषय लाया गया है कि मुस्लिम लड़कियों के लिए विवाह की उम्र अलग क्यों हो? क्या इससे अन्य कानून प्रभावित नहीं होंगे? वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि वह आदिवासी महिलाओं को सम्पत्ति से महरूम रखने वाले हिन्दू उत्तराधिकार कानून, 1956 में संशोधन करे, ताकि उन्हें पिता की संपत्ति में हिस्सा मिल सके। बता दें कि हिन्दू उत्तराधिकार कानून आदिवासियों पर लागू नहीं होता है।

मसलन, उपर्युक्त दोनों सवाल तो महज बानगी भर हैं, जो यह जाहिर करते हैं कि आजादी के 75 साल बाद भी हमारे देश में सबके एक समान कानूनी हित सुनिश्चित नहीं किये जा सके। कभी यह कानून बनाने वाली इकाइयों की लापरवाही समझी गई तो कभी ऐसे मसलों पर काफी विलम्ब से न्यायिक दिशा-निर्देश प्राप्त हुए, जिसके बाद कानून बनने में भी अपेक्षाकृत देरी ही हुई।

लेकिन विषमता भरे कानूनों से जुड़े आज भी कुछ ऐसे सवाल हैं, जो या तो किसी से समक्ष उठाये नहीं गए हैं, या फिर उनपर संसद से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक ‘खामोश’ हैं! सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों, किसके लिए और कबतक? मेरी राय में समान नागरिक संहिता पर अमल सुनिश्चित किया जाना ही उन सभी उलझे हुए सवालों का एक सर्वमान्य जवाब हो सकता है, यदि संविधान के सभी प्रमुख स्तम्भ कोई किंतु-परन्तु न करें तो।

आखिरकार उन्हें यह समझना चाहिए कि किसी भी लोकतंत्र की आत्मा स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के सिद्धांत में वास करती है। लेकिन जब किसी राजनीतिक दल अथवा उनके समूहों द्वारा अल्पमत से बहुमत की प्राप्ति के लिए इन्हीं सर्वमान्य लोकतांत्रिक सिद्धांतों का गला घोंटा जाता है, या फिर उससे तरह-तरह के समझौते किये जाते हैं तो लोकतांत्रिक बात बिगड़ने लगती है।

दुनिया का सबसे बड़ा और सर्वाधिक सफल लोकतंत्र समझा जाने वाला भारत इसका एक दिलचस्प उदाहरण करार दिया जा सकता है। जहां पर एक समान नागरिक संहिता के बजाय जाति, धर्म, लिंग, भाषा या क्षेत्र आदि के आधार पर अलग-अलग कानून बने हुए हैं, रणनीतिक तौर पर बनाये जाते हैं। और खास बात यह कि सम्बंधित पक्ष द्वारा ऐसे कानूनों के पक्ष में तर्क-कुतर्क दिए जाते हैं। जिससे यहां के प्रबुद्ध वर्ग की अंतरात्मा समेत पूरे लोकतंत्र की आत्मा कलुषित होती है।

देखा जाए तो यहां पर ऐसे ऐसे विभिन्न दबाव समूह सत्ता पर हावी होने की कोशिश करने लगे हैं, जिनका लोकतंत्र से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं है, बल्कि वे विशेष सामाजिक-धार्मिक समूहों से जुड़े गुट तंत्र के महज पालक, पोषक और प्रोत्साहक प्रतीत होते हैं। इसलिए उनके अगर-मगर के सिद्धांतों से कहीं न कहीं नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का सिद्धांत भी प्रभावित होता है।

सच कहूं तो इनके ‘संसर्ग’ से विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, खबरपालिका और समाजपालिका का एक हिस्सा भी प्रभावित हो चुका है, क्योंकि विदेशों में बैठे इनके ‘संरक्षक’ भारत सरकार या राज्य सरकारों को अपने प्रभाव में लेने के लिए रणनीतिक रूप से इनका सदुपयोग-दुरूपयोग करते हैं।

कहना न होगा कि यदि ऐसे दबाव समूह की हर बात मान ली जाए तो देर सबेर लोकतंत्र की मूल भावना ही नष्ट हो जाएगी। ऐसे दबाव समूहों के चलते ही भारतीय संविधान पारस्परिक विरोधाभासों से भर गया। यही नहीं, स्वतन्त्र भारत में भी इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए कुछ संवैधानिक संशोधन किए गए या फिर कुछ नए कानून बनाये गए, जिससे भारतीयों के बीच पारस्परिक वैमनस्यता बढ़ी।

सच कहा जाए तो गुलाम भारत की तरह ही आजाद भारत में भी वर्ष 1967 से ऐसे दबाव समूह देश व उसके विभिन्न सूबों की सियासत में दखल देने लगे, जिनकी पराकाष्ठा वर्ष 1977 तक दिखाई देने लगी थी। और फिर वर्ष 1989 तक स्थिति इतनी जटिल हो गई कि समस्त राष्ट्र ही दिशाविहीन हो गया! उसके बाद से ही ऐसे दबाव समूहों की अधिनायकवादी प्रवृत्ति सत्ता पर हावी होने लगी, जिससे उस वंशवादी लोकतंत्र और वंशवादी दलतंत्र को फलने-फूलने का मौका मिला, जिसमें राजतंत्र के तमाम दुर्गुण महसूस किये गए, जो अब भी जारी है।

स्वाभाविक सवाल है कि जिस देश में हरेक नागरिक को रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान की गारंटी आजादी के 75 साल बाद भी नहीं दी जा सकी है, वहां पर ऐसे ऊलजुलूल सवालों पर क्यों न्यायपालिका और सिविल प्रशासन का समय और धन जाया किया जाए। मीडिया क्यों इन पर बहस को बढ़ावा दे और सियासतदानों द्वारा उनपर क्षुद्र राजनीति की जाए।लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो रहा है! इससे सिविल और न्यायिक प्रशासन पर कार्यभार भी बढ़ रहा है और पारस्परिक विरोधाभास भी।

आज कोई भी यह बात मानने को तैयार ही नहीं है कि वैश्वीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद लागू हुईं नई आर्थिक नीतियों के परिप्रेक्ष्य में आम आदमी की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। अब लोग-बाग रोटी, कपड़ा और मकान; शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान से आगे की बात सोचने लगे हैं। उन्हें यह आभास हो चुका है कि समकालीन दौर तकनीकी युग है। औद्योगिक क्रांति के बाद सूचना क्रांति ने सबकुछ बदलकर रख दिया है। उस पर आधारित डिजिटल तकनीक अब सबकी आवश्यकता बन चुकी है, क्योंकि इसने सभ्यता-संस्कृति के हर रंग-ढंग को गहरे तक प्रभावित किया है।

इसलिए हमें शासित करने वालों को यह सोचना होगा कि समकालीन लोकतंत्र को कबीलाई जातीय सोच या फिर मध्ययुगीन धार्मिक सोच के सहारे जैसे-तैसे हाँका तो जा सकता है, लेकिन आम लोगों का व्यापक भला नहीं किया जा सकता। लोगों को वोट के बदले फ्री में उपहार देने से बेहतर होगा कि हर हाथ को काम दिया जाए। इसमें बाधक साबित हो रहे दकियानूसी कानूनों को बदला जाए। जैसे एक देश में एक निशान और एक विधान की बात जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में की जाती है, और एक राष्ट्र, एक कर प्रणाली यानी जीएसटी की पैरोकारी की गई, उसी प्रकार से समान नागरिक संहिता को लागू करके यहां पर एक अरसे से जड़ जमा चुकी पारस्परिक वैमनस्यता को दूर किया जाए। यदि ऐसा हुआ तो सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास वाला पीएम नरेंद्र मोदी का सपना शीघ्र साकार हो सकेगा।(युवराज)

कमलेश पांडे, वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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