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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

जगत मिथ्या या कोराआभास मात्र नहीं है

जब दयानन्द ने सत्य की खोज में गृह-त्याग किया तब उनका झुकाव वेदान्त की ओर हो गया था। वे ऐसे विद्वान संन्यासियों के संपर्क में आ गये थे जिन पर शांकर मत का प्रभाव था। उन्होंने अनेक वर्षों तक वेदान्त दर्शन एवं तत्सम्बन्धी ग्रंथों का अध्ययन एवं विचार किया था। एक समय तो वे भी शांकर सिद्घान्त के इतने कायल हो गये थे कि स्वयं को ब्रह्मा ही मानने लगे थे। उन पर शांकर अद्वैतवाद का इतना प्रभाव जो हो गया था।
अन्ततोगत्वा उन्होंने समझ लिया कि प्रत्ययवादी अद्वैतवाद के सिद्घान्त से उनकी संतुष्टि नहीं हो सकेगी और वे दृढ़ यथार्थवादी बन गये। उनमें यह परिवर्तन परोक्ष रूप से गुरू विरजानन्द के सम्पर्क से आया। बाल्यकाल में दयानन्द ने यजुर्वेद कण्ठस्थ तो किया था किंतु गुरू से मिलने तक वेद का वाड्मय तथा आर्ष साहित्य को समझने की नवीन अन्तर्दृष्टि दी। इससे उनका यह विश्वास दृढ़ हो गया कि वेदों में जो कुछ लिखा है, सत्य लिखा है।
वेद जीवन की सत्यता में विश्वास करते हैं और डा. राधाकृष्णन का भी कथन है कि ऋग्वेदीय मंत्रों में जगत की अवास्तविकता की धारणा का कोई आधार नहीं मिलता है, जगत कोई निष्प्रयोजन आभास नहीं है। ऐसा होने पर वेदों में अपनी दृढ़ आस्था के कारण दयानन्द शंकर-प्रतिपादित ऐसे एकत्त्ववाद में एक क्षण भी कैसे विश्वास करते जिसमें जगत को मिथ्या, मृग-मरीचिका, आभास, कोरा स्वप्न या मायाजाल बताया गया हो?
अब स्वामी दयानन्द वैदिक वांड्मय के क्षेत्र में नये पक्षों की खोज में लग गये। उनकी सबसे महत्वपूर्ण खोज यह रही कि षडदर्शन वेदों की सर्वोच्चता में पूर्ण विश्वास रखते हैं। ऐसा है तो वेदों के मौलिक सिद्घान्त के विरूद्घ जाने वाली इन शास्त्रों की कोई व्याख्या स्वीकार्य नहीं हो सकती। इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शांकर दर्शन सही हो या गलत, यह वेदान्त सूत्रों के प्रवत्र्तक बादरायण के दर्शन की सम्यक व्याख्या नहीं करता। स्वामी दयानन्द ने शंकर को सदा ऊंचा सम्मान दिया है, विशेषकर बौद्घमत को देश से बाहर निकालने के अग्रगण्य कार्य के लिए, किंतु वे उनकी व्याख्याओं से सहमत नहीं हो सके।
स्वामी दयानन्द षडदर्शन को आर्ष ग्रन्थ अर्थात ऋषिकृत ग्रंथ कहते हैं और उन्हें वेदों के उपांग बताते हैं। मौलिकता के प्रश्न पर वे उनमें कोई विरोधाभास नहीं पाते। जहां तक तीन अनादि तत्त्वों के मूल स्वरूप का प्रश्न है उनकी दृष्टि से छहों दर्शनों में मतैक्य है। षडदर्शन के संबंध में स्वामी दयानन्द का सर्वोच्च योगदान यह है कि उन्होंने इन सबका समन्वित रूप प्रस्तुत किया है। अन्य व्याख्याकारों की भांति उन्होंने न तो वैशेषिक के समर्थन में सांख्य को छोड़ा, न ही वेदान्त के समर्थन में न्याय या मीमांसा को। उनके लिए पतंजलि का योग अर्थात समाधि में ब्रह्म का साक्षात्कार करना वेदांत प्रतिपादित ज्ञान के मार्ग में अथवा मीमांसा-प्रतिपादित कर्म के मार्ग में बाधक बनकर नहीं खड़ा होता। सांख्य का प्रकृतिवाद और वैशेषिक का अणुवाद भी असंगत नहीं है। जीवन का अंतिम लक्ष्य भी सबमें बंधन से छूटना और मोक्ष की प्राप्ति ही बताया गया है। स्वामी दयानन्द सांख्यकार कपिल को अनीश्वरवादी बताये जाने का बलपूर्वक खण्डन करते हैं और अपने विचार की पुष्टि में पूर्वापर तथा आंतरिक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। जो छह दर्शन बाद में इतने अधिक भिन्न मान लिये गये, उनमें समन्वय स्थापित करना सचमुच विलक्षण योगदान है। इस क्रम में स्वामी दयानन्द शिखर पर आरूढ़ हैं। भले ही असामयिक निधन से स्वामी दयानन्द अपना लेखन पूर्ण न कर पाये हों, तथापि उन्होंने भावी विद्वानों के लिए सुस्पष्ट पथ-प्रदर्शन कर दिया है।
शास्त्रों में समान विचार
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जो भारतीय दर्शन के श्रेष्ठ व्याख्याकार हैं, ने ‘कॉमन आइडियाज’ शीर्षक से जो रोचक वर्णन किया है, वह विस्तृत चर्चा से पहले प्रस्तुत है। वे कहते हैं-”छहों शास्त्र कतिपय सिद्घांतों पर एकमत हैं। वेद की स्वीकार्यता का तात्पर्य है कि सभी छह दर्शन एक महास्रोत से उद्भूत हुए हैं। हिंदू दर्शनविदों ने अपने विचार सुस्पष्ट करने के लिए भूतकाल की सांस्कृतिक धरोहर का कृतज्ञतापूर्वक उपयोग किया। अविद्या, माया, पुरूष, जीव आदि पदों का सर्वत्र प्रयोग होना यह दर्शाता है कि सब शास्त्रों की चिंतन भाषा समान है। ध्यान रहे कि विभिन्न शास्त्रीय परम्पराओं में समान शब्दों के भिन्न अर्थ लिये गये हैं जिनसे शास्त्रों को पृथक मान्यतायें प्राप्त हुई हैं। दर्शन के इतिहास में प्राय: मिलता है कि भिन्न परम्पराओं ने समान शब्दों एवं मुहावरों का प्रयोग भिन्न अभिप्रायों से किया। सब शास्त्रों ने उच्चतम धार्मिक चिंतन की प्रचलित भाषा में आवश्यक संशोधन करके अपने विशेष सिद्घांत गठित किये हैं। शास्त्रों में उनके अपने दर्शन का बोध बना रहता है। वेदों में वर्णित आध्यात्मिक अनुभूतियां शास्त्र विशेष की तार्किक समीक्षा के अधीन हो जाती है। ज्ञान के प्रमाण एवं साधनों की परीक्षा शास्त्र-विशेष का पृथक अध्याय बन जाती है। प्रत्येक दार्शनिक ग्रंथ का अपना ज्ञान सिद्घांत है, जो उसकी तत्वमीमांसा का अभिन्न भाग या आवश्यक फल है। सभी शास्त्रों में अन्त: प्रज्ञा, अनुमान एवं वेद को स्वीकार किया गया है। सभी में अंत:प्रज्ञा को तर्कबुद्घि से ऊंचा स्थान दिया गया है।
ये सभी शास्त्र बौद्घों के संशयवाद का विरोध करते हैं और सदा चलने वाले क्षणस्थली प्रवाह के विरूद्घ बाह्य वस्तु की सत्ता एवं सत्य का मानक स्थापित करते हैं। ये संसार में लयबद्घता स्वीकार करते हैं जिसके अंतर्गत सृष्टि पालन प्रलय की दीर्घ अवधियां अनंत चक्रीय क्रम में आगे पीछे प्रवाहमान हैं। पूर्व मीमांसा के अतिरिक्त सभी शास्त्रों का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष से शास्त्रों का अभिप्राय है कि आत्मा अपने मूल स्वरूप को वापस पा लें जो उनसे पाप एवं त्रुष्ट के कारण खो गया था। इन सब दर्शनों का आदर्श है मानसिक साम्य की संपूर्णता तथा जीवन के भय, अनिश्चितता, दु:ख एवं क्लेशों से मुक्ति यह विश्वास कि हर क्षण समान है जिसे न संदेह तोड़ सकते हैं, न पुनर्जन्म खंडित कर सकते हैं।
‘द सिक्स सिस्टम्स ऑफ इंडियन फिलॉसफी’ में मैक्स मूलर लिखते हैं-”मैंने इन शास्त्रों का जितना अध्ययन किया उतना ही मैं विज्ञानभिक्षु एवं अन्यों के विचार से प्रभावित हुआ। षडदर्शनों की विविधता के पीछे एक विचार-महाकोष है, जिसे राष्ट्रीय या लोक-दर्शन कह सकते हैं। यह विशाल मानस दार्शनिक विचार एवं भाषा की झील सदृश है जो भौगोलिक एवं कालिक दृष्टि से बहुत दूर तक फैली है। इससे हर विचारक अपने प्रयोजनों के अनुरूप विचार ग्रहण कर सका है।”
षड्दर्शनों को पढ़ते समय जो विरोधाभास प्रतीत होते हैं, उन पर स्वामी दयानंद ‘सत्यार्थ प्रकाश’ (समुल्लास-3, प्रस्तर: 143-144) में निम्नवत स्थिति स्पष्ट करते हैं-
प्रश्न-जैसा सत्यासत्य और एक दूसरे ग्रंथों का परस्पर विरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टिविषय में छह शास्त्रों का विरोध है-मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु, योग पुरूषार्थ, सांख्य प्रकृति और वेदांतशास्त्र ब्रह्मा से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है, क्या यह विरोध नहीं है?
उत्तर-नहीं, प्रथम तो सांख्य और वेदांत के अतिरिक्त दूसरे चार शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्घ नहीं लिखी और इनमें विरेाध भी नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूं कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में?
प्रश्न-एक विषय में अनेक का परस्पर विरूद्घ कथन हो उसको विरोध कहते हैं। यहां भी सृष्टि एक ही विषय है।
उत्तर-क्या विद्या एक है वा दो? एक है। जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है? जैसा एक विद्या में अनेक विद्या के अवयवों का , एक दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छह अवयवों का छह शात्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, काल, मिट्टी, विचार, संयोग-वियोगादि का पुरूषार्थ, प्रकृति के गुण और कुम्हार कारण हैं, वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याख्या मीमांसा में, काल की व्याख्या वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याख्या न्याय में, पुरूषार्थ की व्याख्या योग में, तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याख्या सांख्य और निमित्त कारण जो परमेश्वर हैं, उसकी व्याख्या वेदांतशास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहंी। जैसे वैद्यकशास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषध-दान और पथ्य के प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित हैं, परंतु सबका सिद्घांत रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छह कारण हैं। इनमें से एक एक-कारण की व्याख्या एक एक शास्त्रकार ने की है। इसलिए इनमें कुछ भी विरोध नहीं।
इस कथन से स्वामी दयानन्द का अभिप्राय है कि विभिन्न शास्त्रों ने एक ही विषय की व्याख्या अपने-अपने सिद्घांत के अनुसार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से की है। किसी एक ने पूर्ण समाधान नहीं दिया। अत: इन सबका संश्लेषण ही हमें सत्य की ओर ले जाएगा।

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