Categories
बिखरे मोती

बिखरे मोती-भाग 238

समस्त सृष्टि की रचना पंचमहाभूतों से हुई है। इनमें अग्नि तत्त्व ऐसा है, जो चार महाभूतों जल, पृथ्वी, वायु और आकाश का अतिथि है अर्थात अग्नि तत्त्व सब महाभूतों में प्रविष्टï हो सकता है, यह विशेषता अन्य किसी महाभूत में नहीं है। यदि पांचों महाभूतों में प्रविष्टï होने की विलक्षणता है, तो वह केवल मात्र परमपिता परमात्मा है।

वेद में यह प्रार्थना की गयी है कि हे परमपिता परमात्मन् यदि मेरा अंत:करण चतुष्टïृय (मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार) लोहा है तो हे अग्नेय तू अग्नियों का भी अग्नि है। जिस प्रकार अग्नि लोहे जैसे जड़ पदार्थ में प्रविष्टï होकर उसे चेतन कर देती है, क्रियाशील कर देती है, ठीक इसी प्रकार हे प्रभो! आप मेरे मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार में रम जाओ, ताकि मेरा अंत:करण पवित्र हो जाए, पापवृत्ति हमेशा के लिए भस्मीभूत हो जाए, यानि कि मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो, कल्याणकारी विचारों वाला हो, नकारात्मक सोच का हृास तथा सकारात्मक सोच का विकास करने वाला हो। मेरी बुद्घि में हृदय और मस्तिष्क का समन्वय हो, विज्ञान और अध्यात्म का बेजोड़ मिलन हो बुद्घि कुशाग्र हो, प्रखर हो, सम्यक निर्णय करने वाली हो, विश्व मंगल के लिए कल्याणकारी आविष्कार करने वाली हो, सर्वदा पुण्य में रत रहने वाली हो। मेरा चित्त सुकोमल सदभावों की सृष्टिï करने वाला हो, दुर्भावों के मैल से सर्वदा दूर रहे, यह सर्वदा द्युतिमान और निर्मल रहे, इसमें रहने वाली सम्वेदना, स्मृति और संस्कार शुभ हों, सुखद हों, प्रभु मिलन की चाह चित्त में सर्वदा रहे ताकि मैं तेरे चरणों से जुडा रहूं और तुझसे ऊर्जान्वित होता रहूं।

मेरा अहंकार जो कि मन, बुद्घि, चित्त, का सेनापति कहलाता है जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आने वाली चुनौतियों को जो स्वीकार कर उनसे संघर्ष करता है और हमारे स्वाभिमान को गिरने नहीं देता है, वह हमारा अहंकार अपकर्ष के गह्वर में गिराने वाला नहीं अपितु उत्कर्ष के शिखर पर पहुंचाने वाला हो, वह मेरे स्वाभिमान की ज्योति को सर्वदा दीप्तिमान करने वाला हो। हे प्रेरक! आपकी प्रेरणा मेरी जीवन शक्ति बन जाए, अपरिमित ऊर्जा बन जाए, मेरी आत्मा की सारथी बन जाए, मेरी जीवन नैया को खैने वाली पतवार बन जाए ताकि यह जीवन नैया भवसागर से पार हो जाए अर्थात मोक्ष धाम मिल जाए।

पानी की तरह रास्ता खोजते रहो :-

सलिल चलै बाधा अड़ै,

मारग लेवै खोज।

होंसले को छांड़ै मति,

बढ़ता रहै तू रोज ।। 1174 ।।

व्याख्या :-प्राय: पानी की बूंदें गतिशील होती हैं किन्तु जब ये पर्वतों से लुढक़कर किसी झील, तालाब, पोखर, झरना अथवा नदी का रूप लेती हैं। मार्ग में आने वाली बाधा अथवा चट्टान के कारण इनका प्रवाह या तो मंद पड़ जाता है अथवा अवरूद्घ हो जाता है, जिसके कारण इनका विवाह ठहर सा जाता है। तत्क्षण ऐसा लगता है, जैसे जल-देवता रूकावट की समस्या के समाधान हेतु बिना धैर्य खोये गहरी समाधि में लीन हो गये हों किंतु एक क्षण ऐसा आता है, जब पानी अमुक बाधा अथवा चट्टान को तोडक़र निर्बाध रूप से बहने लगता है। वह अपना मार्ग अपने आप ही आखिरकार खोज ही लेता है। देखते ही देखते बड़ी बड़ी चट्टानों के सीने टूट जाते हैं यहां तक कि बड़ी-बड़ी नदियों पर बने बेहद पुख्ता बांध (ष्ठड्डद्व) और बैराज पानी के प्रबल प्रवाह के सामने रेत के ढेर की तरह बह जाते हैं। चारों तरफ विनाश की विभीषिका का नजारा दीखने लगता है। पानी की इन नन्हीं बूंदों की अपरिमित शक्ति का अनुमान बांध (ष्ठड्डद्व) और बैराज बनाने वाले बड़े-बड़े इंजीनियरों को भी नहीं लग पाता है। जब पानी की बूंदें बांधों को तोड़ आगे बढऩे का रास्ता खोज लेती हैं तब बड़े-बड़े वैज्ञानिक और अभियंता हाथ मलते रह जाते हैं।

क्रमश:

Comment:Cancel reply

Exit mobile version